कल अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवश था जिसमें तमाम विद्वानों ने सोशल मीडिया में अपने_ अपने विचार रखे। किसी दिवस को यदि राष्ट्रसंघ द्वारा उस पर सोचने बिचार करने और मनाने की सलाह दी जाती हो तो उसका मोटा अर्थ यह होता है कि वह खतरे में है। किन्तु प्रश्न यह है कि पर्यावरण आखिर क्या है जो इतना महत्वपूर्ण है की उसके लिए राष्ट्रसंघ तक चिंतित है?
हमारे आस पास जंगल, पहाड़, नदी , नाले , झील , झरने, पेड़, पौधे, भूमि आदि जो भी दिख रहे हैं उसकी समग्रता ही पर्यावरण है। और वह सभी अपने मूल स्वरूप के निकट ही बने रहे यही पर्यावरण संरक्षण है। अपने भारत मे दो तरह की संस्कृति देखी जा सकती है।
- यहां आदिम काल से बास करने वालों की संस्कृति।
- बाहर के आये लोगों की संस्कृति।
आदिम वासियों का यहां एक ऐसा समुदाय है जिन्हें सरकारी भाषा में (अनुसूचित जन जाति) कहा जाता है। पर यदि उनकी संस्कृति को देखा जाय तो वह ऐसी नैसर्गिक संस्कृति है जिसे पर्यावरण से अलग करके देखा ही नही जा सकता।
क्योकि जहा – जहा घना जंगल वहां- वहां आदिवासी और जहां जहां आदिवासी वहां- वहां ही घना जंगल। पर जहां गैर आदिवासियों का पदार्पण हुआ वहां जंगल साफ एवं सारा पर्यावरण भी चौपट य विनष्ट।
इसलिए “आदिवासी संस्कृति ही वह पर्यावरण संरक्षक संस्कृति है जिसमें जीव जगत को लाखों वर्षो तक बनाए रखने की अवधारणा छिपी है। बाकी संस्कृति तो ऐसी है कि जिस डाल में बैठी है उसी को काट रही है।” क्योंकि आदिवासी संस्कृति में आवश्यकता नुसार सीमित संसाधनों का ही उपयोग है। इस समुदाय में गीत ,संगीत, बनोपज संग्रहन से लेकर आखेट तक में सामूहिकता है।
यह समुदाय प्राकृतिक संशाधनों य जंगल पहाड़ों को एक सार्वजनिक भोजन कोष समझता है इसलिए उतना ही उपयोग करता है जितना वह प्रकृति को वापस कर सके।
किसी भी गांव में देखा जाय तो वहां भले ही आदिवासियों के 25–30 मकान हों पर किराना य विसादखाना की दुकान किसी गैर आदिवासी की होगी, आदिवासी की नही। क्योकि आदिवासी समुदाय में श्रम तो जीवन पर्यन्त है लेकिन संचय और ब्यापार नही है। हमने यह सब नजदीन के देखा और अनुभव किया है कि आदिवासी बालक 6 वर्ष से काम करना शुरू करेगा तो काम करते- करते ही बूढ़ा होकर अपनी इह लीला समाप्त कर देगा। पर न तो अनावश्यक संचय करेगा और न ही उसकी उस ओर रुचि है कि वह ब्यापार करे।
इस पर्यावरण संरक्षक आदिवासी समुदाय में और ही अनेक विशेषताएं होती है वह यह कि–
- आदिवासी खुद के बनाए मकान में रहना ही पसन्द करता है।
- आदिवासी कभी भीख नही मांगता।
- वह चोरी नही करता।
- वह झूठ फोरेव आदि नही रचता। जो भी कहना हुआ स्पस्ट कहता है।
- अपने बस्ती में आने वालों को यथेष्ट सम्मान देता है।
- वह किसी का संसाधन लूटने कहीं बाहर नही गया बल्कि अन्य लोग ही उनके संसाधनों की लूट किए और उनके राज्य तक छीने।
इसलिए यह कहना गलत न होगा कि आदिवासी संस्कृति ही ऐसी संस्कृति है जो पर्यावरण नष्ट करने वालों को जीव जगत के लाखों वर्ष बनाए रहने की एक राह दिखा सकती है। किन्तु इस समय आदिवासी समाज अपने को बहुत असहज महसूस कर रहा है। क्यो कि शहरों के आस- पास तो अब कोई जमीन बची ही नही कि वहां फैक्ट्रियाँ लगती?
जो भी बची है आदिवासियों के नैसर्गिक रहवासों जंगल पहाड़ों में ही। इसलिए जितने भी बड़े -बड़े बांध बध रहे हैं फैक्ट्रियां आदि लग रही हैं वह सभी आदिवासियों के प्राकृतिक रहवासों के आस पास ही। अस्तु विस्थापन की सबसे बड़ी त्रसदी भी आदिवासी समुदाय को ही भोगना पड़ रहा है।
अन्य समुदाय के लोग तो इस ब्यस्थापन में खेतों मकानों आदि का अच्छा खासा मुआवजा पाते हैं। पर जिस समुदाय की संस्कृति ही सामूहिकता की हो और प्रकृति का वह उतना ही संसाधन उपयोग करता हो जितना उसके लिए आवश्यक है तो वह समुदाय मुआवजे से भी बंचित रह जाता है।
छिनने के लिए तो उससे खरिक, मैदान, जंगल, नदी नाले, झील ,झरने सब कुछ छिन जाते हैं। वह बाप पुरखों जैसे उम्र वाले बड़े- बड़े पेड़ों की छाया भी छिन जाती है जिनके नीचे बैठ कर कई पीढ़ियां जीवन के ताने बाने बुने होंगे। गीत संगीत की महफिलें सजी होगी। पर मुवाबजा मिलता है एक दो कमरे के झोपड़े और छोटी