Amrita Pritam Death Anniversary | अमृता प्रीतम के अधूरे मोहब्बत के फ़साने

Amrita Pritam Death Anniversary:अमृता प्रीतम एक पंजाबी कवियत्री और लेखिका थीं, उन्हें ज्यादातर साहिर लुधियानवी और इमरोज के साथ अपने रिश्तों के वजह से जाना जाता है, और उनकी लेखन यात्रा पर उतनी चर्चा नहीं होती है। इसीलिए 20 से ज्यादा उपन्यास, 18 कविता संग्रह और 10 से ज्यादा कहानी संग्रह उनके प्रकाशित हैं। अपने लेखन के लिए उन्हें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार और पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे नागरिक सम्मान प्राप्त हैं। इसीलिए अमृता केवल इश्क नहीं लिखती। वह दर्द, विरह, अधूरापन और विद्रोह के स्वर भी लिखती हैं।

अमृता प्रीतम का जन्म कहाँ हुआ था

31 अगस्त 1919 को ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत के गुजरांवाला में एक सिख परिवार में जन्मीं अमृता प्रीतम, जन्म से अमृत कौर थीं। उनके पिता कृतार्थ विचारों वाले अध्यापक, कवि और धर्मप्रचारक करतार सिंह हितकारी थे, जो ‘हितकारी’ नाम से एक साहित्यिक पत्रिका भी निकालते थे। वे ब्रजभाषा के ज्ञाता और संवेदनशील रचनाकार थे। जबकि उनकी राजबीबी स्कूल शिक्षिका थीं। अमृता उनकी इकलौती संतान थीं, इसलिए शब्दों और विचारों की दुनिया उनसे विरासत में मिली।

माँ की मृत्यु के बाद शुरू किया लेखन

लेकिन साहित्य सृजन से उनका अपनापन तब शुरू हुआ, जब अमृता मात्र ग्यारह वर्ष की थीं, तभी उनकी माँ का निधन हो गया। यह आघात उनके कोमल मन पर गहरी छाप छोड़ गया। पिता के साथ वह लाहौर चली आईं और वहीं 1947 तक रहीं। माँ के जाने के बाद जीवन में अचानक अनेक जिम्मेदारियाँ आ गईं, और इसी एकांत में उन्होंने काग़ज़ और क़लम को अपना साथी बना लिया। कह सकते हैं, अमृता ने अकेलेपन से कविता रची।

राजन को समर्पित की कविताएं

अमृता प्रीतम की सृजन यात्रा का प्रारंभ, युवा होते चंचल मन में उभरे एक चित्र पर कविता लिख कर हुआ था, काल्पनिक प्रेमी भी था, जिसका नाम अमृता ने राजन रखा था, उनकी पहली नज़्म इसी राजन को समर्पित थी, लेकिन एक बार उनकी जेब में पैसा डाल रहे पिता ने, उनके खीसे में राजन का नाम लिखी कविता देख ली और अमृता को एक चांटा भी मारा था। तो एक तरह से देखा जाए तो अमृता प्रीतम के मन में कविता और प्रेम के बीज का अंकुरण लगभग एक साथ हुआ। जो ताउम्र उनके जिंदगी से जुड़ा रहा, उन्होंने आगे चलकर इनको अपनी रचनाओं का आधार भी बनाया। सोलह वर्ष की आयु में ही उनका पहला कविता-संग्रह ‘अमृत लेहरन’ 1936 में प्रकाशित हुआ।

16 साल की उम्र में की शादी

अमृता प्रीतम का जीवन किसी उपन्यास से कम नहीं था। उनके जीवन में तीन तीन किरदार, जिन्होंने उनकी कहानी को तीन अलग दिशाएं दीं। पहले थे प्रीतम, उनके पति, जिनसे उनका विवाह 16 साल में ही हो गया था, और वह ‘अमृता कौर’ से ‘अमृता प्रीतम’ बन गईं।। लेकिन कुछ वर्षों बाद यह रिश्ता टूट गया, और अमृता अकेली रह गईं, लेकिन पति का प्रीतम उपनाम उन्होंने ताउम्र अपने साथ सजाए रखा।

साहिर लुधियानवी से हुआ इश्क

फिर जब अमृता 21 वर्ष की हुईं, तब उनकी जिंदगी में आए साहिर लुधियानवी – एक मशहूर शायर और गीतकार, जिनके शब्दों में इश्क़ बहता था। हालांकि दोनों उस समय कॉलेज में पढ़ते थे, उन दोनों की मुलाकात एक मुशायरे में हुई थी, जब सबकी तरह अमृता भी उनसे आटोग्राफ मांग रही थीं, और साहिर ने अपने अपने हथेली में निब से स्याही गिराकर, अमृता के हाथ में छाप दिया था, यह पहली छुअन का एहसास था, हालांकि दोनों पूर्व परिचित थे। अमृता की कई कविताएं साहिर को ही समर्पित हैं। उन्होंने साहिर से एकतरफा प्रेम किया, लेकिन कभी व्यक्त नहीं किया। उनके ही द्वारा साझा उनके अनुभव कहते हैं, जब साहिर अमृता के घर आते, तो वह उनके बचे हुए सिगरेट के टुकड़े सम्भाल कर रख लेती थीं। उनकी आत्मकथा में अमृता ने लिखा – “मैंने कभी साहिर से अपना प्रेम नहीं कहा, लेकिन दिल में ताउम्र वही बसे रहे…”, हालांकि अमृता ने साहिर के प्रति अपनी भावनाएं कभी छुपाईं नहीं, जबकि साहिर ने ताउम्र खामोशी का एक लबादा ओढ़ रखा था। दरसल अमृता ने अपनी किशोर उम्र में जिस राजन की कल्पना की थी, उसकी प्रतिमूर्ति साहिर ही थे, इसीलिए शायद वह साहिर से एक अलग जुड़ाव महसूस करती थीं।

जब इमरोज बने साथी

फिर एक दिन, अमृता के जीवन में आए इमरोज़ – प्रसिद्ध चित्रकार और कवि। इमरोज़ ने उन्हें सिर्फ़ प्रेम नहीं दिया, बल्कि सृजन का सहारा भी दिया। जब अमृता रातों में कविताएं लिखतीं, तो इमरोज़ उनके लिए चाय बनाते, खाने-पीने का ध्यान रखते, और हर शब्द में उनका साथ निभाते। प्रेम भी कितना विचित्र होता है – जहां उम्मीद होती है, वहां नहीं मिलता और जहां नहीं होती, वहां बहने लगता है। अमृता को पति से उपेक्षा मिली, साहिर से स्नेह मिला लेकिन प्रेम नहीं… और जब इमरोज़ आए, तो उन्होंने बिना किसी अपेक्षा के प्रेम बरसाया। इमरोज़ जानते थे कि अमृता साहिर से प्रेम करती हैं – फिर भी उन्होंने तय कर लिया था कि “वह अमृता को प्रेम करते रहेंगे, चाहे कुछ भी हो।” उन्होंने अमृता को महसूस कराया कि सच्चा प्रेम क्या होता है – वो प्रेम जो किसी शर्त या अधिकार से नहीं, बस अस्तित्व से जुड़ा होता है। लेकिन इमरोज अमृता के जीवन में बड़ी देर से आए थे, इसीलिए वह अक्सर कहती भी थीं-“अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले मिलना ही था, तो दोपहर में मिलते”, उनकी एक प्रसिद्ध कविता, जो उनके द्वारा जीवन के उत्तरकाल में लिखी गई थी- “मैं तुझे फिर मिलूंगी”, भी इमरोज को ही समर्पित है। इमरोज ने भी पूरी जिंदगी में अमृता के साथ ही रहे, वह उनके लिए ड्राइवर भी बने और आखिरी वक्त में उनके तीमारदार भी। क्योंकि आखिरी समय अमृता के लिए बहुत तकलीफदेह था, जब वह बाथरूम में फिसल कर गिर गईं थीं, और इसके दर्द के साथी इमरोज रहे अंत समय तक। इसी दर्द से जूझते हुए ही 31 अक्टूबर 2005 को उनकी मृत्य हो गई।

अध्यात्म से था लगाव

अमृता प्रीतम चूंकि एक धर्म प्रचारक की संतान थी, और इसका प्रभाव ही था, कि वह धार्मिक थीं, लेकिन माँ के निधन के बाद ही वह ईश्वर के प्रति विद्रोहिणी हो गईं थीं, लेकिन आध्यात्म से उनका संबंध हमेशा बना रहा और इसका असर उनकी कई रचनाओं से भी प्रकट होती है।

अमृता प्रीतम की आत्मकथा रसीदी टिकट

अमृता प्रीतम के मोहब्बत के फ़साने अधूरे ही रहे। उन्होंने अपनी जिंदगी में दुख, दर्द, संघर्ष, नाम, प्रसिद्धि, गुमनामी और बदनामी सब दौर देखे लेकिन उनकी सृजन यात्रा अनवरत चलती ही रही, बंटवारे के वक्त ट्रेन में बैठकर उन्होंने वारिस शाह को संबोधित करते हुए एक कविता लिखी थी, बंटवारे की विभीषिका पर ही उन्होंने पिंजर नाम का उपन्यास भी लिखा था, जिस पर 2003 में एक फिल्म भी बन चुकी है, उनकी आत्मकथा रसीदी टिकट भी अत्यंत प्रसिद्ध कृति है।

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