पहली बोलती फिल्म आलम आरा की ये बात नहीं जानते होंगे आप!

Story of first talking film Alam Ara

Story of first talking film Alam Ara: रुपहली यादों में आज हम आपसे बात करेंगे 14 मार्च 1931 मे प्रदर्शित आर्देशिर इरानी की फिल्म विश्व की रोशनी यानी आलम आरा की जो भारत की पहली सवाक , बोलती फिल्म है निर्देशक आर्देशिर ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुए आलम आरा को समकालीन फिल्मों से पहले बनाया इसका पहला प्रदर्शन मुंबई के मैजिस्टिक सिनेमा में किया गया और उत्साह की सारी हदें पार हो गईं और भीड़ पर नियंत्रण करने के लिए पुलिस की मदद लेनी पड़ी ।


फिल्म के लेखक थे जोसेफ डेविड और मुंशी शाहिद जिन्होंने अभिनय भी किया था अभिनेता थे मास्टर विट्ठल ,अभिनेत्री जुबेदा और खलनायक के रूप में पृथ्वीराज कपूर ने भी इसमें अभिनय किया मास्टर विट्ठल पहले मूक फिल्मों में काम कर रहे थे पर संवाद पर उनकी पकड़ नही थी इसलिए आर्देशिर जी ने उनसे अपनी फिल्म में काम न लेने का फैसला कर लिया था पर विट्ठल ने उनपर केस कर दिया अनुबंध तोड़ने की बाबत और ये केस जितवाया उनके वकील रहे मो .अली जिन्ना ने फिल्म में कुल 78 कलाकार थे संयुक्त संगीत संयोजन था फिरोज शाह मिस्त्री और बहराम ईरानी का फिल्म और इसके संगीत दोनों को ही व्यापक रूप से सफलता मिली फिल्म का एक गीत जिसके बोल थे दे दे खुदा के नाम पर भारतीय सिनेमा का पहला गीत बना जिसे अभिनेता मोहम्मद वज़ीर खान ने गया था जो फिल्म में एक फकीर की भूमिका में थे उनका यह गीत बेहद मशहूर हुआ जबकि उस समय भारतीय फिल्मों में पार्श्व गायन शुरू नहीं हुआ था इसलिए इस गीत को हारमोनियम और तबले की संगत के साथ सजीव रिकॉर्ड किया गया,कुछ गीत फिल्म की नायिका जुबैदा ने गाए जिनके बोल थे , बदला दिलवाएगा या रब तू , दरस बिन तरस गए मोर नैना ,भर दे जाम साकी ,दे दिल को आराम , एक गीत एक्ट्रेस जिल्लो द्वारा गया गया जो था झुकता है

आसमान गुम हो गया है माहताब,इस फिल्म का प्रचार ये कह कर किया गया था की आप के सामने आ रही है पहली बोलती नाचती गाती, जीवित कलाकारों की फिल्म और जब इसके प्रदर्शन की बात आई तो लोग समय से पहले ही पहुंच गए 25 पैसे के टिकेट को ब्लैक में उस ज़माने में भी 5 रूपए तक बेचा गया जबकि फिल्म का बजट था क़रीब 40 हजार रुपए का , खैर भीड़ इतनी बढ़ गई की उसे नियंत्रित करने के लिए पुलिस बुलवानी पड़ी अब हम आपको बतादें कि बोलती फिल्मों के पिता कहे जाने वाले आर्देशिर ईरानी ,ईरान से आए थे इनका पूरा नाम था खान बहादुर शेख ईरानी लगभग 20 साल की उम्र में वो मुंबई आए और हॉलीवुड कंपनी यूनिवर्सल रिप्रेजेंटेटिव के तौर पर काम करने लगे जहां उनकी मुलाकात हुई दवे साहब से जो कभी दादा साहब फाल्के के सहयोगी रहे थे तभी से उनका रुझान फिल्मों की तरफ हुआ तब उन्होंने पहले बोलती फिल्म आलम आरा बना कर और निर्देशकों से बाज़ी मार ली पर ब्रिटिश फ़िल्म इंडस्ट्री इंस्टीट्यूट ने इसे भारत में निर्मित सभी लुप्त फिल्मों में से एक माना है इस फिल्म में सात गाने थे जो सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय गीत रहा वो था दे दे खुदा के नाम पर।


बोलती फिल्मों के इस दौर में कुछ और धार्मिक फिल्में उसके बाद आई जिनमें थी अयोध्या का राजा जिसे बनाया वी शांताराम की प्रभात कंपनी ने यह फिल्म हिंदी के साथ-साथ मराठी में भी बनी मराठी में इसका टाइटल था अयोध्ये च राजा ।और मराठी में बनने वाली यह पहली फिल्म बनी ,और जब फिल्मों में नवरस उभरे तो इसके गीत और संवाद भी लोगों की जुबां पर रवा होने लगे , आलम आरा की अवधि 124 मिनट थी । टर्नर साउंड सिस्टम का उपयोग कर आर्देशिर ईरानी ने ध्वनि विभाग स्वयं संभाला था टर्नर एकल प्रणाली कैमरे द्वारा किया गया था जो ध्वनि को सीधे फिल्म पर दर्ज करता था जिसके लिए हॉलीवुड के साउंड रिकॉर्डिंग एक्सपर्ट विल फोर्ड डेमिंग को बुलाया गया था ,उस समय साउंड प्रूफ स्टूडियो उपलब्ध नहीं थे इसलिए दिन के शोर शराबे से बचने के लिए इसकी शूटिंग ज्यादातर रात में की गई थी शूटिंग के समय माइक्रोफोन को अभिनेताओं के पास छुपा कर रख दिया जाता था या किसी पेड़ पर या खंभे पर लगा दिया जाता था.

आलम आरा फिल्म की कहानी एक राजकुमार और बंजारन लड़की की प्रेम कथा थी यह जोसेफ डेविड और मुंशी ज़हीर द्वारा लिखित थी जो एक पारसी नाटक पर आधारित है जोसेफ डेविड ने ही बाद में ईरान की एक ईरानी फिल्म बनाई थी ,आलम आरा की बात करें तो इस पहली टॉकी फिल्म से ही सिनेमा हॉल को टॉकीज कहा जाने लगा था फिल्म की कहानी महल के अंदर की साजिशों को दिखाती थी जिसकी वजह से सेनापति की बेटी एक कबीले में जन्म लेती है और उसे बंजारे पलते हैं और जैसे जैसे वो बड़ी होती है वैसे वैसे ही लोगों को बहुत नेक दिल औरअल्लाह की प्यारी बंदी लगने लगती हैं जिसकी दुआ हमेशा क़ुबूल होती है और इस खूबी के लिए वो इतनी मशहूर हो जाती है कि जब उसके राज्य में अकाल पड़ता है तो दुआ करने के लिए उसे महल बुलाया जाता है जहां राजकुमार को उससे प्रेम हो जाता है,और फिर सारे राज़ खुलते हैं कि वो सेनापति की बेटी है ,आखिर में फिल्म आलम आरा और शहजादे की शादी तय होने के खुशनुमा पलों पर पड़ाव डालती है।


इस फिल्म के बारे में इतना कुछ जानने के बाद आपका मन अगर इस फिल्म को देखने का करे तो हमे आपको ये अफसोस के साथ बताना पड़ रहा है कि इसका एक भी प्रिंट हमारे पास मौजूद नही है एक आखरी कॉपी थी जो सन 2003 में नेशनल फिल्म आर्काइव पुणे में आग लग जाने के कारण खत्म हो गई,हालांकि नानूभाई वकील ने। 1956 और 1973 में आलमारा नाम से ही इसका रीमेक बनाया ,जिसमे मो. वज़ीर खान भी नजर आए जो पहली आलम आरा में भी फकीर की भूमिका में थे इसके अलावा जगजीत सिंह की आवाज में बतौर नज़्म आप दास्तान ए आलम आरा भी सुन सकते हैं।पहली बोलती फिल्म में न शुद्ध हिंदी थी न ख़ालिस उर्दू ये मिली जुली हिंदुस्तानी थी जो आज भी हमें फिल्मों में सुनने मिलती है।फिल्म लेखक इसे दूध में मिले मिश्री की डली कहते हैं भारतीय फिल्मों में फिल्म संगीत की फेवरेट फिल्म के लिए निर्देशक श्याम बेनेगल ने कहा कि यह एक सवाक फिल्म ही नहीं थी बल्कि यह एक बोलने और गाने वाली फिल्म थी जिसमें कई गाने थे जो कहानी को आगे बढ़ाने की परंपरा का सूत्रपात कर रहे थे।

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