बिरसा मुंडा की कहानी जो आपको शायद ही मालूम होगी

Birsa Munda ki Kahani

जनजातीय गौरव दिवस 2023: भारत का समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास अदिवासियों की गाथा के बिना अधूरा सा लगता है। इसी लिए आदिवासियों की विरासत, सांस्कृतिक धरोहर, और राष्ट्र के निर्माण में उनके योगदान को उचित सम्मान देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा साल 2021 से 15 नवंबर के दिन स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा की जयंती पर जनजातीय गौरव दिवस मानाने का निर्णय लिया गया है।

कौन थे बिरसा मुंडा

Who Was Birsa Munda: झारखण्ड में “धरती आबा ” अर्थात “धरती के पिता ” के नाम से मशहूर बिरसा मुंडा (Birsa Munda) आज के भारत के झारखण्ड राज्य के खूंटी जिले के उलीहातू गांव में 15 नवंबर 1875 को पैदा हुए थे। बिरसा मुंडा के पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हटु था। वो बहुत ही गरीब थे और घुमन्तु खेती से जीवन यापन करते थे। बिरसा को बचपन में बांसुरी बजाना बेहद पसंद था। बिरसा की शिक्षा एक जर्मन क्रिश्चन स्कूल में हुई। उस स्कूल में केवल ईसाई बच्चों को प्रवेश दिए जाने के कारण मुंडा को ईसाई धर्म अपनाना पड़ा। एक शिक्षक द्वार मुंडा जनजाति पर की गई अशोभनीय टिप्पणी के कारण मुंडा ने स्कूल बीच में ही छोड़ दिया, बाद में ईसाई धर्म छोड़ कर अपना नया धर्म ‘बिरसैत’ शुरू किया। मुंडा और उरांव जनजाति के लोगों ने जल्द ही उनके धर्म को अपना लिया।

बिरसा मुंडा की कहानी

Story Of Birsa Munda: बिरसा मुंडा का संघर्ष 1886 में चाईबासा से शुरू हुआ। जहाँ उन्होंने एक आदिवासी आंदोलन का नेतृत्व किया और ब्रिटिश सरकार को कोई टैक्स न देने की अपील की. इसी आंदोलन में मुंडा ने नारा दिया “अबूया राज एते जाना/महारानी राज टुडू जाना” मतलब अब मुंडा राज शुरू हो गया और महारानी राज ख़त्म हो गया है। मुंडा ने 1890 तक इस आंदोलन का नेतृत्व किया। उस समय के साहूकारों द्वारा आदिवासियों को प्रताड़ित किया जाता था उनकी जमींनों पर कब्ज़ा किया गया और उन्हें जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल नहीं करने दिया जा रहा था। इसके विरुद्ध आदिवासियों ने एक आंदोलन छेड़ दिया, मुंडा ने इस आंदोलन को ‘उलगुलान’ ( विद्रोह ) नाम दिया।

क्या बिरसा मुंडा भगवान थे?

Was Birsa Munda a God: साल 1895 में हुई कुछ घटनाओं के बाद लोगों को बिरसा में अलौकिक शक्तियों का आभास हुआ और आदिवासी समुदाय बिरसा को भगवान् मानने लगा. बिरसा स्वयं भगवान् विष्णु से बड़े प्रभावित थे। इसलिए आदिवासी समुदाय उन्हें भगबान विष्णु का अवतार मान कर पूजने लगा।

मुंडा पर रखा गया 500 का इनाम

मुंडा के भाषण जोश से भरे होते थे जिससे जनता उनसे जुड़ती चली गई। अपने भाषण में जनता से कहते थे – ‘डरो मत ! अब मेरा राज्य शुरू हो गया है और ब्रिटिश हुकूमत का राज्य खत्म हो गया है’। उन्होंने जमींदारों और पुलिस स्टेशन की संपत्ति पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। ब्रिटिश शासन का झंडा उखाड़ फेका और मुंडा राज का प्रतीक सफ़ेद झंडा लगाया जाने लगा। बिरसा से तंग आकर सरकार ने बिरसा पर 500 रूपए का इनाम घोषित कर दिया जो उस ज़माने में एक बड़ी रकम हुआ करती थी।

डोम्बारी पहाड़ी की भयानक मुठभेड़

बिरसा मुंडा द्वारा फैलाई विरोध की आग जल्द ही बहुत बड़े क्षेत्र में फ़ैल गई, साल 1900 आते आते पूरा छोटा नागपुर पठार इसकी जद में आ गया। डोम्बारी पहाड़ी पर आदिवासियों और ब्रिटिश सेना में जबरदस्त मुठभेड़ हुई. आदिवासियों के तीर कमान अंग्रेजों की बंदूकों का सामना नहीं कर सके। आदिवासियों के शवों के ढेर लग गए। लगभग 400 आदिवासी मारे गए लेकिन सरकार ने केवल 11 लोगों के मौत की पुष्टि की। कई घायल आदिवासी पहाड़ से फेंक दिए गए या जिन्दा ही दफना दिए गए। बिरसा मुंडा सुरक्षित निकलने में सफल रहे।

मुखबिर की वजह से गिरफ्तार हुए मुंडा

बिरसा पर 500 का इनाम होने के चलते कुछ गांव वाले बिरसा की मुखबिरी में जुट गए। 3 मार्च 1990 को चक्रधरपुर के पास बिरसा गिरफ्तार कर लिए गए। उस समय के एसपी रोश को एक झोपडी दिखाई दी, जब उन्होंने झोपडी का दरवाज़ा खोला तब झोपडी के बीच में मुस्कुराते हुए बिरसा मुंडा पालती मारे बैठे हुए थे। उन्होंने तुरंत उठ कर एसपी से हथकड़ी पहनाने का इशारा किया। बिरसा की गिरफ्तारी की बात लोगों तक न पहुंचे इसलिए बिरसा को दूसरे रस्ते से रांची लाया गया बावजूद इसके हजारों की भीड़ बिरसा की एक झलक पाने सड़क के दोनों ओर खड़ी थी।

संदिग्ध परिस्थितियों में हुई बिरसा की मृत्यु

जेल में बिरसा को किसी से भी मिलने की इज़ाज़त नहीं थी। उन्हें तीन महीने तक एकांत में रखा गया। जेल में उन्हें कई तरह की शारीरिक और मानसिक यातनाएँ दी गई। उन्हें कोड़ो से मारा जाता था। जब बिरसा को सुनवाई के लिए लाया गया तब बिरसा के जख्म प्रशासन के जुल्मों के दासता को बखूबी बयां कर रहे थे। लेकिन बिरसा के चेहरे पर दर्द का नामों-निशान तक नहीं था। जेल में दिनों-दिन उनकी हालत बिगड़ती चली गई। उन्हें खून की उल्टियां शुरू हो गई और अंततः 9 जून 1990 को उस आज़ादी के मतवाले ने केवल 25 साल की उम्र में अंग्रेजी शासन, जमींदारी प्रथा और धार्मिक कुरूतियों से लड़ते हुए इस दुनिया को अलविदा कह दिया । उस समय सरकार पर बिरसा को जहर देकर मारने का आरोप लगा था मगर सरकार ने हैजा से मौत की पुष्टि की थी।

बिरसा के आंदोलन का परिणाम

बिरसा की मौत के बाद उनका आंदोलन धीमा पड़ गया। उन्ही के आंदोलन के कारण सरकार ने 1908 में ‘छोटा नागपुर किरायेदारी अधिनियम( Chota Nagpur Tenancy Act) CNT Act 1908 पारित किया, इस अधिनियम ने आदिवासी भूमि को गैर आदिवासियों के लिए पारित होने को प्रतिबंधित किया अर्थात आदिवासियों की जमीन आदवासियों के अलावा कोई और नहीं खरीद सकता है। ये क़ानून आज तक आदिवासियों का संरक्षक बना हुआ है।

वनवासियों के बीच अंग्रेजों के विरोध में सशस्त्र आंदोलन चलाने वाले भगवान् बिरसा मुंडा ने बहुत बड़ा अभियान छेड़ा। अंग्रेजी हुकूमत के षड्यंत्र को समझने वाले बिरसा मुंडा ने धार्मिक और राजनैतिक स्तर पर लड़ाइयाँ लड़ी।बिरसा मुंडा न केवल स्वतंत्रता सेनानी थे बल्कि समाज सुधारक भी थे। उनके जन्म दिवस को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाना सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय के लिए गौरव की बात है।

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