कैसे और कब हुई अर्जुन सिंह की नेहरू जी से मुलाकात, जानिए सियासत के शिखर तक पहुंचने का पूरा किस्सा

Story of Arjun Singh's political journey

आदित्य सिंह

वर्ष 1952, आजादी के बाद देशभर में विधानसभा चुनाव हो रहे थे, रीवा व्यंकट बटालियन मैदान में तब कांग्रेस के सबसे बड़े नेता और देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरु, विधानसभा चुनावों में आमसभा को संबोधित करने आए थे, पंडित नेहरु मंच पर बैठे थे, उनके अगल-बगल कप्तान अवधेश प्रताप सिंह और पंडित शंभूनाथ शुक्ल भी मंचासीन थे, नीचे विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के सभी उम्मीदवार खड़े थे, तभी पंडित नेहरु के कान में मंचासीन किसी व्यक्ति ने, नीचे खड़े चुरहट के उम्मीदवार राव शिवबहादुर सिंह की तरफ देखकर कुछ इशारा किया, पंडित जी की भौंहें तन गईं, उन्होंने मंच से ही घोषणा की, चुरहट से जो कांग्रेस के उम्मीदवार हैं, वो अब कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नहीं हैं, सभा में सनाका खिंच जाता है, अपना भाषण खत्म कर पंडित नेहरु मंच से उतरकर नीचे खड़े लोगों से मिलने लगते हैं, इसी बीच लाइन में एक लड़का भी खड़ा था, जिसका परिचय चुरहट कांग्रेस के पूर्व प्रत्याशी के पुत्र के तौर पर करवाया जाता है, पंडित जी ध्यान से उस लड़के को देखते हैं, हल्का सा मुसकुराते हैं और उस लड़के की पीठ को हल्के से थपका के आगे बढ़ जाते हैं, लेकिन कहीं ना कहीं मन में अपने पिता के अपमान से आहत वह लड़का वहीं खड़ा होकर शून्य में ताकता हुआ कुछ सोचता रहता है। वो लड़का, जो उस दिन नेहरू की सभा में भीड़ में खड़ा था, शायद अपने पिता के अपमान से कुछ दुखी जरूर रहा होगा, पर शायद वह यह खुद नहीं जानता था कि आने वाले तीन दशकों में वही रीवा-चुरहट की धरती से निकलकर भारतीय राजनीति के सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक बनेगा। आगे की पूरी कहानी देखिये हमारे हमारे इस चैनल में

नमस्कार! शब्द सांची विंध्य में आपका स्वागत है, हमारे खास सेगमेंट “शख्सियत विंध्य” में आज बात मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री कुंवर अर्जुन सिंह की, जिन्होंने अपने सिद्धांतों के आधार पर राजनीति के शिखर तक की यात्रा तय की, जो एक समय कांग्रेस में राजीव गांधी के बाद सबसे बड़े नेता बनकर उभरे थे, वही अर्जुन सिंह जिन्हें राजनैतिक विश्लेषकों ने आधुनिक राजनीति का चाणक्य कहा था।

अर्जुन सिंह का जन्म पांच नवंबर 1930 को रीवा राज्यांतर्गत चुरहट के राव शिव बहादुर सिंह और उनकी तीसरी पत्नी मोहिनी देवी के यहाँ हुआ था। उनके पिता शिक्षा के महत्व को समझते थे, इसीलिए उन्होंने अर्जुन सिंह समेत अपने तीन बेटों को अच्छी शिक्षा के लिए अल्पायु में ही इलाहाबाद भेज दिया था, जहाँ उनका एडमिशन सेंट मेरी स्कूल में करवा दिया। बाद में उनका दाखिला बनारस के सुप्रसिद्ध उदय प्रताप कॉलेज करवाया गया, हालांकि 1941 में वह रीवा आ गए और इन्टर की पढ़ाई घर पर रहकर करने लगे। 1948 में उनका दाखिला इलाहाबाद विश्वविद्यालय में करवा दिया गया, वहाँ से अपना स्नातक करने के बाद उन्होंने रीवा के सुप्रसिद्ध दरबार कॉलेज से लॉ की पढ़ाई की। 1948 में 18 वर्ष के उम्र में उनका विवाह हो गया।

अर्जुन सिंह बचपन से ही प्रगतिवादी विचारों के थे, शायद इसीलिए युवावस्था में उनपर सोशलिस्ट प्रभाव भी था, जो आगे चलकर उनके राजनैतिक गतिविधियों में परिलक्षित भी होता है। शादी के बाद उनके पिता ने अपने चारों पुत्रों का बंटवारा कर दिया था, एक समय बड़ा अकाल पड़ा अर्जुन सिंह ने अपने हिस्से के क्षेत्रों का लगान माफ कर दिया था। उसके बाद अर्जुन सिंह अध्ययन के लिए इलाहाबाद चले गए। इधर जब उनके पिता को इस बात की जानकारी हुई तो उन्होंने अपने कारिंदों को भेजकर लगान की वसूली कर ली, जब वापस आने के बाद अर्जुन सिंह को यह बात पता चली तो उन्होंने प्रतिवाद किया करते हुए कहा- जब आपने यह क्षेत्र मुझे दे दिया है, तो आप इसका बंदोबस्त मुझपर छोड़ दीजिए, पिता ने कहा अगर लगान नहीं वसूलोगे तो खर्च कैसे चलाओगे, अर्जुन सिंह जी ने कहा- मेरा निर्वाह कैसे होगा यह सोचना मेरा काम है, कृपया आप चिंता ना करें, आखिरकार पुत्र के जिद के आगे पिता को झुकना पड़ा।

1937 की बात है जब अर्जुन सिंह इलाहाबाद के कान्वेन्ट स्कूल में पढ़ा करते थे, उसी समय एक दिन महात्मा गांधी का इलाहाबाद आगमन हुआ, वह यहाँ कमला नेहरु अस्पताल की नींव रखने आए थे, वहाँ उनके संरक्षक और शिक्षक बृजवासीलाल पांडे उनको इस कार्यक्रम में ले गए। वहीं उन्होंने पहली बार महात्मा गांधी और पंडित नेहरु को देखा था, दरअसल सात साल के अर्जुन सिंह अपने भाइयों के साथ, जमीन पर बच्चों के तय स्थान पर बैठे हुए थे, जब महात्मा गांधी मंच से उतर रहे थे, तो उन्होंने कान्वेन्ट स्कूल में पढ़ने वाले बालक अर्जुन सिंह की टाई पकड़ ली, बोले कुछ नहीं, इस घटना का बालक अर्जुन सिंह के बालमन में ऐसा प्रभाव पड़ा, की उन्होंने तब के बाद टाई पहननी ही छोड़ दी थी।

उसी समय की एक और घटना है, दशहरा पर्व था, रीवा राज्य में यह त्योहार अपने भव्य उत्सव के लिए प्रसिद्ध था। उस समय यह राजसी नियम था, की जागीरदारों को इस राजकीय आयोजन में शामिल होना पड़ता था। जागीरदार और पवाईदार अपने साथ अपने बच्चों को भी इस कार्यक्रम में लाते थे। राव शिवबहादुर सिंह भी रीवा इस उत्सव में शामिल होने के लिए आने की तैयारी करने लगे। इसके लिए बच्चों को अनिवार्य राजसी पोशाक पहनना पड़ता था, उनका सेवक जल्दी-जल्दी सभी को तैयार करने लगा, उनके बाकि भाई तो जल्दी ही तैयार हो गए लेकिन वह तैयार नहीं हो रहे थे, क्योंकि उन्हें दशहरे के इस उत्सव में इतना सज-धज के जाने की उनकी कोई इच्छा नहीं थी, उनकी जिद देखकर सेवक ने उनके संरक्षक बृजवासीलाल पांडे को बुलाया और पूरी बात बताई, पांडे जी भी उन्हें समझाने लगे लेकिन वह समझने को तैयार नहीं थे, इस स्थिति में उनका सहयोगी रोने लगा, क्योंकि उसे रावसाहब का कोपभाजन बनने का डर सताने लगा। उसे ऐसा करते देख बालक अर्जुन सिंह का मन पसीज गया और वह चिल्ला कर बोले-“लो सजा दो मुझे दशाहरा के हाथी जैसा।” लेकिन यह पहली और आखिरी बार था, जब अर्जुन सिंह इस तरह पारंपरिक राजसी परिधान के साथ किसी आयोजन में शामिल हुए थे।

सन् 1956 की एक घटना उनके व्यक्तित्व के उस पक्ष को उजागर करती है जहाँ नैतिकता और न्यायबोध उनके निजी संबंधों से भी ऊपर था। अर्जुन सिंह के एक मित्र थे दयाशंकर मिश्र, एक बार जब राव साहब चुरहट में नहीं थे, तो उन्होंने अर्जुन सिंह के बड़े भाई रणबहादुर सिंह से गढ़ी के पास ही एक जमीन खरीद कर अपना कच्चा घर बना लिया था, लौट कर आने के बाद जब रावसाहब को यह बात पता चली वह बेहद नाराज हुए, उन्होंने दयाशंकर मिश्र को उस जमीन के एवज में कहीं और जमीन देने की पेशकश की, लेकिन वह नहीं माने, जिसके बाद रावसाहब के आदमियों ने उनसे जमीन जबरजस्ती खाली करवाने की कोशिश की, वह अर्जुन सिंह के पास गए, अर्जुन सिंह ने अपने पिता के इस कार्य का विरोध किया, उन्होंने दयाशंकर मिश्रा को कानूनी कार्यवाई के लिए कहा, यह मामला अंततः अदालत पहुँचा। तीन महीने बाद सीधी की अदालत में जब सुनवाई हुई तो अप्रत्याशित रूप से अर्जुन सिंह स्वयं अपने पिता के विरुद्ध गवाही देने के लिए उपस्थित हुए। उनके इस कदम से सब स्तब्ध रह गए, क्योंकि भारतीय सामाजिक परंपरा में पिता के विरुद्ध खड़े होना असाधारण माना जाता था। किंतु अर्जुन सिंह ने न्याय को सर्वोपरि रखा। न्यायाधीश ने इस तथ्य पर ध्यान देते हुए कहा कि “जब पुत्र स्वयं अपने पिता के विरुद्ध गवाही दे रहा है, तो निश्चित ही उसमें निजी स्वार्थ नहीं है।” और इस टिप्पणी के साथ उन्होंने मुकदमा खारिज कर दिया। यह घटना भले ही इतिहास के किसी कोने में दबी रह गई हो, पर यह अर्जुन सिंह के उस चरित्र की झलक देती है जिसमें सत्य, निष्ठा और न्याय के प्रति अटूट आस्था विद्यमान थी। निजी हित, पारिवारिक भावनाएँ या सामाजिक दबाव भी उनके नैतिक दृष्टिकोण को डिगा नहीं सके।

अर्जुन सिंह के राजनैतिक कैरियर की शुरुआत इन्टर की पढ़ाई करते समय ही प्रारंभ हो गई थी, जब उन्होंने 1947 में बनारस के उदय प्रताप कॉलेज के छात्रसंघ का चुनाव लड़ा था, लेकिन किसी भी विचारधारा के अभाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद जब वह रीवा के दरबार कॉलेज से लॉ कर रहे थे, तभी वह वहाँ के छात्रसंघ अध्यक्ष बने। इसी बीच वह घटना हुई, जिसका जिक्र हमने सबसे पहले किया था। 1952 में जहाँ अर्जुन सिंह के पिता जहाँ चुनाव हारे वहीं, 1954 में उन्हें न्यायालय में भी हार का सामना करना पड़ा था। दरअसल विंध्यप्रदेश के उद्योग मंत्री रहते उनपर घूँस लेने का आरोप लगा था, लेकिन वास्तविकता में वह राजनीति का शिकार हुए थे, इस घटना पर हम कभी अलग से वीडिओ बनाएंगे तो इस पर विस्तार से बात करेंगे, अभी के लिए इतना ही कि उनके पिता को तीन साल की सजा हुई, हालांकि उन्हें जमानत मिल गई थी, लेकिन अर्जुन सिंह के मन में इस घटना के बाद एक राजनैतिक टीस उठी थी कांग्रेस के प्रति, शायद ही यह बहुत ज्यादा लोगों को यह बात मालूम हो, कि आचार्य नरेंद्र देव की विचारधारा से प्रभावित होकर प्रजा सोशिलिस्ट पार्टी ज्वाइन कर ली थी, इसी दल में यमुना प्रसाद शास्त्री और चंद्रप्रताप तिवारी भी जुड़े थे, अर्जुन सिंह ने चुरहट से प्रसोपा की टिकट मांगी और वह उन्हें लगभग मिलने भी वाली थी, लेकिन जिस दिन रीवा में टिकट की घोषणा होनी थी, उस दिन वह वहाँ उपस्थित नहीं थे, जिसके बाद टिकट उन्हें नहीं मिल पाई, इसी बीच कांग्रेस नेता और स्वास्थ्य मंत्री सुशीला नैय्यर रीवा आईं और उन्होंने अर्जुन सिंह को बुलाकर उन्हें टिकट की पेशकश की, लेकिन अर्जुन सिंह ने मना कर दिया। सुशीला नय्यर और अर्जुन सिंह की और दिलचस्प मुलाकात हो चुकी थी। और वह सीधी जिले की ही मझौली विधानसभा से 57 का चुनाव लड़ा और अच्छे मतों से उन्हें जीत मिली। इस चुनाव में पूरे मध्यप्रदेश से कुल 15 निर्दलीय उम्मीदवार विजयी हुए थे, और उन सब ने मिलकर अर्जुन सिंह का अपना नेता स्वीकार कर लिया था। और उसके बाद अर्जुन सिंह विधानसभा की कार्यवाइयों में बढ़-चढ़ कर भाग लेने लगे। भूमि सीमा निर्धारण बिल सदन में पास करवाने में सक्रिय भूमिका निभाई। इसी बीच 1959 में उन्होंने अपनी संपत्ति और आमदनी का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने की घोषणा की, इस प्रस्ताव के बारे में पंडित नेहरु को भी पता चला और यह उन्हें पसंद भी आया। बाद में अर्जुन सिंह ने पंडित नेहरू को पत्र लिखकर मिलने की इच्छा व्यक्त की, पंडित नेहरू अर्जुन सिंह से मिलने के बाद इतना प्रभावित हुए कि उन्हें कांग्रेस में शामिल होने का प्रस्ताव दिया, जिसके बाद वह मध्यप्रदेश लौटे और कैलाशनाथ काटजू के माध्यम से कांग्रेस में शामिल हो गए।

कैलाशनाथ काटजू को पंडित रविशंकर शुक्ल के निधन के बाद पैराशूट मुख्यमंत्री बनाकर मध्यप्रदेश भेजा गया था, उस समय कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद और संगठन को लेकर भारी गुटबाजी थी, इसी चक्कर में मुख्यमंत्री काटजू 1962 का चुनाव हार गए, इसी बीच मध्यप्रदेश की राजनीति में पंडित द्वारका प्रसाद मिश्रा का उदय हुआ, और इंदिरा गांधी के सहयोग से वह मजबूत भी हो रहे थे, लेकिन पंडित नेहरु उन्हें कुछ खास पसंद नहीं करते थे, उनका झुकाव कैलाश नाथ काटजू की तरफ था, 1962 के बाद मुख्यमंत्री भगवंतराव मंडलोई बने, लेकिन गुटबाजी जारी रही, इसी बीच उपचुनाव हुए और काटजू साहब फिर से चुनाव हार गए, चूंकि प्रदेश के बड़े नेता पंडित नेहरु को भरोसा दे चुके थे, कि वह उन्हें जीता के लाएंगे, जिसके बाद कांग्रेस से वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं का गुट पंडित नेहरु के पास जाने में डर और हिचक रहा था, इसके बाद सभी लोगों ने अर्जुन सिंह को पंडित नेहरु के पास इस समस्या के समाधान के लिए दिल्ली भेजा। अर्जुन सिंह बताते हैं पंडित जी उस समय बेहद गुस्से में थे, वैसे भी उनके गुस्से के किस्से मशहूर थे, मुलाकात के वक्त वह अपने हाथों में बेचैनी से पेपरवेट लेकर उसे घुमा रहे थे। अर्जुन सिंह ने इस मुलाकात में पंडित नेहरु को, पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्रा के पक्ष में मनाने में सफल रहे और पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र 1963 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। और उन्होंने अर्जुन सिंह को अपने मंत्रीमंडल में सामान्य प्रशासन और कृषि के स्वतंत्र मंत्री के तौर पर शामिल कर लिया। यह पहली बार नहीं था, इससे पहले भी अर्जुन सिंह प्रदेश कांग्रेस के प्रतिनिधि के तौर पर पंडित नेहरु से मिल चुके थे। फिर आया वर्ष 1967 जब अर्जुन सिंह चुरहट से विधानसभा का चुनाव लड़े, लेकिन उन्हें सोशलिस्ट नेता चंद्रप्रताप तिवारी से हार का सामना करना पड़ा। विधानसभा में सबसे ज्यादा उनकी कमी मुख्यमंत्री मिश्रा को खल रही थी, हालांकि कुछ राजनैतिक विश्लेषक अनुमान लगाते हैं कि अर्जुन सिंह के हार के पीछे संभवतः द्वारिका प्रसाद मिश्र ही थे। खैर महाराज मार्तंड सिंह के माध्यम से उमरिया के विधायक रणविजय सिंह का इस्तीफा दिलवा सीट खाली करवाई गई और उसके बाद अर्जुन सिंह उपचुनाव जीतकर फिर से विधायक और मिश्र जी की सरकार में योजना और विकास मंत्री बने। इसी बीच द्वारिका प्रसाद से रुष्ट राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने, गोविंदनारायण सिंह के माध्यम से कांग्रेस की सरकार गिराकर नई संविद सरकार बनाई, लेकिन राजमाता के अत्यधिक दखल से नाराज होकर गोविंदनारायण सिंह ने इस्तीफा देते हुए फिर से कांग्रेस में लौट गए और वापस श्यामाचरण शुक्ल के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी।

धीरे-धीरे अर्जुन सिंह, मध्यप्रदेश की राजनीति के केंद्रीय चेहरा बन गए। द्वारका प्रसाद मिश्र, श्यामाचरण शुक्ल, राजमाता सिंधिया, इन सबके दौर में अर्जुन सिंह सत्ता के समीकरणों के केंद्र में रहे। उनका राजनीतिक सफर कभी आसान नहीं रहा,
पर हर झटके ने उन्हें और मजबूत किया। हालाँकि दांव-पेंच वह अपने पिता के समय से देख रहे थे.

उसके बाद 1972 का चुनाव जीतकर अर्जुन सिंह प्रकाशचंद्र सेठी के मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री बने। इसी बीच इंदिरा गांधी ने देशभर में आपातकाल की घोषणा कर दी, इसे पसंद ना करने के बाद भी अर्जुन सिंह इंदिरा गांधी के साथ ही रहे, लेकिन 1975 में श्यामाचरण शुक्ल जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अर्जुन सिंह को अपने कैबिनेट में शमिल नहीं किया। लेकिन कांग्रेस संगठन में वह अपरिहार्य बने। धीरे-धीरे अर्जुन सिंह, मध्यप्रदेश की राजनीति के केंद्रीय चेहरा बन गए। इसी बीच 1977 में देशभर में चुनाव हुए और कांग्रेस बुरी तरह हारी, लेकिन अर्जुन सिंह ने जीत दर्ज की और मध्यप्रदेश के नेता प्रतिपक्ष बने। इसी बीच कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने इंदिरा गांधी का साथ छोड़ दिया था, लेकिन अर्जुन सिंह साथ बने रहे इसके साथ ही उनके संजय गांधी से संबंध भी थे, शायद इसी का परिणाम था कि अर्जुन सिंह 1980 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने और इसी के साथ मध्यप्रदेश की राजनीति में उदय हुआ अर्जुन सिंह का। हालांकि उनका मुख्यमंत्री बनना आसान नहीं रहा और उन्हें शुक्ल बंधुओं के विरोध का सामना करना पड़ा था।

अर्जुन सिंह पांच वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे। मुख्यमंत्री के रूप में अर्जुन सिंह की नीति गरीबों की खुशहाली के लिए बनी रही। उन्होंने कृषि क्षेत्र में किसानों की हालत सुधारने के लिए जमीन का मालिकाना अधिकार प्रदान किया। झोंपड़पट्टी में रहने वाले लोगों को, झोपड़ी के पट्टे दिए गए। गरीबों की बस्तियों में सिंगल बत्ती कनेक्शन दिया गया। और प्रदेश में कई सारी बहुद्देशीय नदी परियोजनाओं का शुभारंभ किया गया। लेकिन इसके साथ उनके साथ जुड़ा 1984 में भोपाल का भयावह गैस कांड, जिसका जिन्न उनका जिंदगीभर पीछा करता रहा। हालांकि कहते हैं नैतिकता के आधार पर उन्होंने राजीव गांधी के समक्ष इस्तीफे की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया।

1985 में हुए मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस अर्जुन सिंह के नेतृत्व में दो-तिहाई बहुमत के साथ मध्यप्रदेश में वापसी की। और उन्हें विधायकों ने अपना नेता चुना, इसके बाद अर्जुन सिंह दिल्ली राजीव गांधी के पास शिष्टाचार मुलाकात करने के लिए गए। वहीं राजीव गांधी ने उन्हें पंजाब का राज्यपाल बनाने की सूचना दी और जल्द से जल्द रवाना होने के लिए कहा। इसके साथ ही उन्होंने उनसे मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री और प्रदेशाध्यक्ष के लिए अपनी पसंद के व्यक्ति का नाम बताने के लिए कहा। हालांकि कई विश्लेषक बताते हैं, राजीव गांधी ने अर्जुन सिंह को राज्यपाल बनने की सूचना चुनाव से पहले पचमढ़ी में हुए किसी कांग्रेस सम्मेलन में ही दे दी थी, लेकिन अर्जुन सिंह ने उनसे चुनाव तक का वक्त मांगा था।

खैर अर्जुन सिंह ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और महज एक दिन में इस्तीफा दे दिया और उसके बाद वह पंजाब के राज्यपाल बनकर चले गए। अपनी जगह उन्होंने अपने अनुयायी मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री और दिग्विजय सिंह को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया। अर्जुन सिंह जब पंजाब गए, तो उस समय पंजाब जल रहा था, यहाँ के हालात भी सही नहीं थे, लेकिन अर्जुन सिंह ने बड़ी सूझ-बूझ से मामलों को सुलझाया और बहुत जल्द ही राजीव गांधी और संत लोंगोवाल में समझौता कराके, वहाँ पर शांति स्थापित की।

पंजाब में स्थिरता लाने के बाद वह दिल्ली वापस लौट आए, और ललित माकन की हत्या के बाद खाली ही साउथ दिल्ली लोकसभा से सांसद बने और राजीव गांधी सरकार में कॉमर्स मंत्री के तौर पर शामिल हुए। आगे चलकर उन्हें राजीव गांधी ने कांग्रेस उपाध्यक्ष बना दिया, और इसके बाद अर्जुन सिंह कांग्रेस में अघोषित तौर पर नंबर दो गए, इसके बाद उन्होंने संचार मंत्रालय का कार्य संभाला। लेकिन 1988 में कांग्रेस ने फिर से मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया, इसके लिए उन्होंने अत्यंत पिछड़े रायगढ़ जिले की खरसिया विधानसभा से चुनाव लड़ा, बीजेपी ने उनके विपक्ष में दिग्गज नेता और वहाँ के राजपरिवार से संबंध रखने वाले अत्यंत लोकप्रिय नेता दिलीप सिंह जूदेव को टिकट दिया, हालांकि बहुत कड़े संघर्ष के बाद अर्जुन सिंह चुनाव जीत गए। हालांकि चुरहट लाटरी कांड के बाद उन्हें फिर से इस्तीफा देना पड़ा था।

इसी बीच देशभर में 1991 में आमचुनावों की घोषणा हो गई, अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के सतना लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहे थे, इसी बीच बेहद दर्दनाक दुर्घटना में राजीव गांधी की हत्या हो गई, देश सन्न रह गया। चुनावों के परिणाम आए तो कांग्रेस बहुमत के करीब थी, अर्जुन सिंह भी लोकसभा चुनाव भारी बहुमत से जीते थे। हालांकि कांग्रेस ने लगभग रिटायर हो चुके नरसिंम्हा राव के नेतृत्व में सरकार बनाई अर्जुन सिंह इस सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री बनाए गए इसके साथ ही वह लोकसभा के नेता सदन भी बने, क्योंकि प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। हालांकि आगे चलकर दोनों नेताओं के मध्य प्रतिद्वंदिता प्रारंभ हो गई और इसी का परिणाम था, अर्जुन सिंह राव की कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था, आगे चलकर उन्हें कांग्रेस से निष्काषित कर दिया गया, जिसके बाद उन्होंने तिवारी कांग्रेस की स्थापना की, लेकिन 1996 और 1998 के चुनावों में उन्हें सतना और होशंगाबाद से करारी हार का सामना पड़ा।

हालांकि इसके बाद वह कांग्रेस में लौट आए और उन्होंने पार्टी में सोनिया गांधी को नेतृत्व लेने के लिए प्रेरित किया, इसी के परिणामस्वरूप सोनिया गांधी का भारतीय राजनीति में पदार्पण हुआ। लेकिन इसके साथ ही अर्जुन सिंह के राजनीति के सूर्य का ढलान भी प्रारंभ हो गया था, क्योंकि जब 2004 में उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए चल रहा था, तब कांग्रेस नेतृत्व ने उनकी जगह मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया और वह मनमोहन कैबिनेट में मानव संसाधन विकास मंत्री बनकर रह गए। हालांकि उन्होंने इस दौरान उच्च शिक्षा संस्थानों के द्वार पिछड़े वर्ग के छात्रों के लिए खोल दिए, हालांकि उन्हें ना तो इसका कभी श्रेय दिया गया और ना ही कांग्रेस इस मुद्दे को भुना पाई। खैर अर्जुन सिंह को 2009 के लोकसभा चुनाव उनके लिए अत्यंत मुश्किल थे, जब मांगने पर भी उनकी पुत्री को लोकसभा का टिकट नहीं प्राप्त हुआ, जिसके बाद वह निर्दलीय लड़ी और हार गईं, सोच सकते हैं जो व्यक्ति कभी लोगों को टिकट बांटता था, वह खुद अपनी बेटी को टिकट नहीं दिलवा सका। लेकिन उन्हें इसके लिए अपनी पार्टी में अपयश का भागी भी बनना पड़ा, शायद इसीलिए उन्हें मनमोहन कैबिनेट में नहीं रखा गया, वजह बताई गई मनमोहन सिंह की अनिच्छा। लेकिन मूल वजह उन्हें दरकिनार कर दिया गया था, जिस व्यक्ति ने अपनी सारी जिंदगी कांग्रेस को समर्पित कर दी, आखिर में उनकी पार्टी ही शायद उन्हें अब भूलने लगी थी, इन्हीं अंतर्द्वंदों से संघर्ष करते हुए 4 मार्च 2011 को उनका इहलोक से प्रस्थान कर गए। कहते हैं जिन लोगों ने कभी उनका शिष्यत्व धारण किया था, उन्हीं लोगों ने उन्हें धोखा दिया था।

वक़्त बीत जाता है, लेकिन कुछ नाम वक़्त के साथ चलते रहते हैं, कांग्रेस की नई धारा सम्भवतः अर्जुन सिंह को विस्मृत कर चुकी है, लेकिन विंध्य की धरती आज भी उन्हें याद कर प्रफुल्लित होती रहती है, उनका जीवन बताता है कि विचारों से बड़ी कोई विरासत नहीं होती, यह वीडिओ अगर आपको अच्छा लगा हो तो कमेंट्स में जरूर बताएं और जुड़े रहें शब्द साँची विंध्य से, आपसबका बहुत-बहुत धन्यवाद!

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