दिल की बात कहें? तो किससे कहें?

न्याज़िया
मंथन।
कैसे ढूंढे? उस इंसान को जो हमारी मजबूरियों का फायदा न उठाएं! शायद आज की दुनियां में ये काम सबसे मुश्किल है ,क्योंकि आज हर इंसान ,दूसरे का फायदा उठाना चाहता है उसका मज़ाक बनाना चाहता है और शायद इसीलिए हर इंसान भीड़ में तन्हा महसूस करता है, किसी को अपनी परेशानी बताने से डरता है ,अपने दुख बांटने से डरता है ,इस डर से कि, किसी एक को अपना मान कर साझा की गई बात ,कई कानों तक न पहुंच जाए ,चुप रहना या अंदर ही अंदर घुटना बेहतर समझता है। पर क्या ये हमारे लिए ,हमारे स्वास्थ के लिए सही है ? नहीं न!

दुख बांटने से ही कंम होता है

हम जानते हैं कि दुख बांटने से ही कम होता है फिर भी हम किसी का सहारा नहीं बन पाते कभी कभी तो अपनों के ग़मों को भी समझ नहीं पाते साथ रहने उठने बैठने, कभी तो साथ सोने के बावजूद भी, हम अपने आप में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि अपनों के दिल का हाल भी नहीं समझ पाते और उसके दिल की तन्हाई , बेक़रारी जब बहोत बढ़ जाती है तो दवाइयां भी उसके काम नहीं आतीं। तो आख़िर हम क्यों इतने बिज़ी हो गए हैं ?और किसके लिए?

सुख-दुख का क्यों नही बना पा रहे साथी

क्यों नहीं बना पा रहें हैं ?किसी को अपना,सुख दुख का सच्चा साथी, क्या एक प्राइवेसी नाम का शब्द हर रिश्ते पे हावी हो गया है,फिर चाहे वो दोस्ती ही क्यों न हों? कुछ मामलों में हम किसी की दख़ल नहीं बर्दाश्त करते इसी लिए, न खुशियां बांटने से बढ़ रही हैं न दुख बांटने से कम हो रहे हैं ,हर चीज़ में दिखावा है ,न आंसू असली हैं न हंसी ,यक़ीन भी नहीं होता किसी पे ,आखिर ये कैसा ज़माना है ?कहां जा रहे हैं हम? जहां किसी की ख़ुशी में खुश हो जाना और ग़म में दिल से दुखी हो जाना किसी को सांत्वना देना ,इतना मुश्किल है?

क्या हमारी पढ़ाई लिखाई व्यर्थ

आज हम उस सभ्य समाज का हिस्सा हैं जहां ज़्यादातर लोग बहोत पढ़े लिखे हैं फिर भी हम असमर्थ हैं किसी की भावनाओं को समझने में,इंसान होकर इंसान को समझने में ,उसकी मदद करने में ,तो क्या हमारी पढ़ाई लिखाई व्यर्थ नहीं है ? हम अपनी पिछली पीढ़ी से भी कहीं बहोत पीछे नहीं हैं ? जो खुलके हंसती थी ठाठ से जीती थी एक दूसरे का ख्याल रखती थी घर द्वार में ही नहीं अड़ोस पड़ोस में भी सबका ध्यान रखती थी। कोई लेटा है ,बैठा है, चुप है ,परेशान है, हंस रहा है, रो रहा है तो क्यों ,इस बात की न केवल उसको खबर होती थी बल्कि हर हाल में उसका साथ देने के लिए खड़ी थी, तब तो सबके साथ से ,खुशियों का जश्न दुगना था और बड़े से बड़े ग़म बौने, कोई अकेला मायूस होकर , अपने आंसू खुद पोछते, छुपाते नहीं बैठा था।
सोचिएगा ज़रूर इस बारे में फिर मिलेंगे आत्ममंथन की अगली कड़ी में।

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