Dev Uthani Ekadashi: बघेलखंड और विंध्य क्षेत्र में दीपावली की रौनक के साथ ही, एक दूसरे पर्व के लिए भी उत्साह उठने लगता है, जिसे डिठोन कहा जाता है। यह पर्व कार्तिक मास की एकादशी, जिसे देशभर में देवउठनी एकादशी कहा जाता है, जबकि बघेलखंड की बोली में इसे बोला जाता है डिठोन। यहाँ यह पर्व दीपावली से भी ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। धार्मिक परंपराओं के अनुसार भगवान विष्णु चार माह के शयन के बाद इसी दिन जागते हैं, इसीलिए इसे देवउठनी कहा जाता है, बघेली भाषा में यही देवउठनी बन जाता है डिठोन।
देव उठनी एकादशी कब होती है
यह पर्व दिवाली के 11 दिन बाद होता है, इस दिन घर में दीवाली की तरह फिर से सफाई की जाती है, मुख्यतः तुलसी के चौरी को छुई पोता जाता था, अब तो कांक्रीट के गमले इत्यादि में तुलसी लगाई जाने लगी हैं। माना जाता है इस दिन तुलसी का विवाह शालिग्राम के साथ होता है, हालांकि बघेलखंड में भारत के कुछ हिस्सों से इतर, विवाह की कोई पारंपरिक रस्म नहीं निभाई जाती, लेकिन पूजा इस दिन तुलसी की ही होती है। दीवाली की ही तरह इस दिन पूरे घर को और हर स्थान को दीपों से सजाया जाता है, दरसल इस दिन दीवाली के ही बचे हुए और उठाए हुए दियों को जलाते हुए पूरे घर को प्रज्वलित किया जाता है।
विंध्य में देव उठनी एकादशी के दिन बनने वाले पकवान
डिठोन का दिन बघेलखंड में सिर्फ धार्मिक और लोकपर्व का ही नहीं, बल्कि स्वादों का भी पर्व होता है। इस दिन रीवा और विंध्य क्षेत्र के घरों में विशिष्ट पारंपरिक व्यंजन बनते हैं। उनमें सबसे प्रमुख होता है कोंहड़ा, अर्थात कद्दू के पकवान। चौमासे के दिनों में जब घर की पछीती और बारी में फैली बेलों में लगे कोंहड़े पकने लगते हैं, तो उन्हें इसी अवसर के लिए सहेज कर रखा जाता है। डिठोन पर इन्हीं कोंहड़ों से दो विशेष व्यंजन बनाए जाते हैं- लपसी और फाँका। लपसी में कोंहड़े को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर, घी में जीरा का छौंक देकर दूध में उबाला जाता है, और फिर इलायची डालने के बाद, इसका स्वाद और सुगंध दोनों ही अद्भुत हो जाते हैं। वहीं फाँका नामक व्यंजन में कोंहड़े के बड़े-बड़े टुकड़ों को उबालकर पकाया जाता है, जो स्वाद और सादगी दोनों में अनुपम होता है। आजकल पारंपरिक लपसी के स्थान पर लोग कोंहड़े का हलवा बना लेते हैं, लेकिन पुराने लोग अब भी लपसी और फाँके असली स्वाद जानते हैं। इस दिन एक और लोकप्रिय पकवान यहाँ बनता है, सिंघाड़े के आटे के कतरे, जो इस त्योहार की मिठास और स्वाद को और भी ज्यादा बढ़ा देते हैं। इसके साथ ही खाया जाता है शकला, यानी शकरकंद। इसे डिठोन के दिन भूनकर या उबालकर दूध के साथ खाया जाता है, परंतु परंपरा के अनुसार इसे अंगारों में भूनकर पकाना ही सही माना गया है।
देव उठनी एकादशी के दिन घर से दरिद्रता निकालने की लोकपरम्परा
डिठोंन के दूसरे दिन प्रातःकाल घर की स्त्रियों द्वारा सूपा बजाकर दलिद्र अर्थात दरिद्रता निकालने का नियम होता है, इस प्रक्रिया में घर की मालकिन या उसकी अनुपस्थिति में घर की कोई भी गृहलक्ष्मी, ब्रम्हमुहूर्त में चार बजे उठ कर एक हाथ में बांस का सूप और लोहे की हंसियाँ पकड़, दूसरे हाँथ में लुआठी ले लेती थी, लुकाठी एक अधजली लकड़ी हुआ करती थी, जो रात को खाना पकाते समय चूल्हे पर लगाई जाती थी और पूरी नहीं जलती थी। तो उसी लुकाठी से सूप बजाते हुए मलकिन पूरे घर में हर कोने और कमरे में घूमती है और बोलती रहती है- ईशर आबय, दालिद निकरय, चारों खूंट नारायण बईठंयं, अर्थात- ईश्वर घर आए, दरिद्रता निकल जाए और घर के चारों दिशाओं में भगवान श्रीनारायण विष्णु का वास हो। इस कवित्त से संबंधित एक मजेदार बात भी बघेलखंड में अत्यंत प्रसिद्ध है।
दरिद्रता निकालने की लोककथा
कथानुसार एकगाँव में रहने वाली स्त्री के पति का नाम नारायण था, चूंकि भारतीय संस्कृति में स्त्रियों के द्वारा अपने पतियों का नाम लिया जाता था, हमारे बघेलखंड में तो, पहले यह प्रचलित था, कि पति-पत्नी प्रत्यक्ष बात भी नहीं करते थे और ना ही एक-दूसरे का नाम लेते थे, बल्कि अपने बच्चों के आड़ से बोलते थे, आप लोगों को सुनने में यह बात अजीब लग सकती है, लेकिन इस तरह होता था। तो उस समय स्त्री अपने पति का नाम कैसे ले भले ही उसका नाम उसके पति का नाम ईश्वर के नाम पर ही आधारित हो। उस स्त्री के समक्ष यह प्रश्न खड़ा हुआ, वह कवित्त पढ़ के घर से दालिद्र कैसे निकाले। तो कवित्त पढ़ने लगी- ईशर आबय, दालिद निकरय अउर उया कठबैठा ता हमरे घरेन मा हय। यह तो हुई बात मजाक की, लेकिन अब के समय में ना उस तरह की रीति और परंपरा बची है और ना इनको निभाने वाले लोग।
देवउठनी एकादशी के दिन सूप क्यों बजाते हैं
लेकिन सूपा बजाने के पीछे संभवतः यह धारणा रही होगी, कि जैसे अनाज फटकने के दौरान सूपा, कचरा और भूसा को अलग करके निकाल देता है और अनाज सूपा में ही रह जाता है। ऐसे ही सूप घर से दरिद्रता और नकारात्मकता का को निकाल कर घर में खुशहाली लाए। बजाने के बाद सूपा और लुआठी को घर से दूर घूरे में फेंक दिया जाता था, यहाँ यह माना जाता था, सूपा बजाने वाली स्त्री इस क्रिया में सूतकी हो जाती थी, इसके बाद वह घर के अंदर नहाने के बाद ही आती थी। हालांकि अब परंपराएं उस तरह की नहीं रही हैं, बल्कि समय के साथ इनमें अब बदलाव भी हो गए हैं, लेकिन भाव अब भी वही है, अब सूपा को गन्ने से भी बजाया जाने लगा है।
सूप बजाने की कहावत
दीवाली को सूपा बजाने को लेकर भी एक कहावत यहाँ कटाक्ष करने के हिसाब से कही जाती है- “सूपा के गुन ता डिठोने का देखात हय”, अर्थात सूपा कितना अच्छा और मजबूत है यह एकादशी के दिन ही पता चलता है। जब उस पर चोंट पड़ती है, इस कहावत का प्रयोग ज्यादातर व्यंग्यात्मक ढंग से किया जाता है, उस व्यक्ति के लिए जो बहुत मीठा बोलता हो और बहुत अच्छा बनता हो, लेकिन वास्तविकता में वह ऐसा नहीं होता है। अर्थात बहुत बड़ी-बड़ी बातें करने वाला इंसान, हकीकत में ऐसा ही है, वह तो समय आने पर ही पता चलेगा।
देवउठनी एकादशी के दिन धार्मिक परंपराएं
इसके साथ ही बघेलखंड में एकादशी के व्रत का अत्यंत महत्व है, यहाँ कहा जाता है- जो पहले के समय में कोई भी व्रत नहीं करता था, वह भी एकादशी का व्रत रहता था, यहाँ इस दिन चावल नहीं खाया जाता था, संभवतः इसकी कोई लोकमान्यता के साथ ही पुराणों में वर्णित धार्मिक परम्पराएं भी रही हों। लेकिन इसके साथ ही एक और अनोखी प्रथा डिठोन की रात यहाँ पर प्रचलित थी, दरसल जो लोग झाड़-फूँक किया करते थे, वह डिठोन की रात अपना मंत्र जगाते थे। हालांकि हम किसी भी अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं कर रहे हैं, हमारा उद्देश्य केवल बघेलखंड की संस्कृति की जानकारी देना मात्र है।
