सुनील दत्त जो थे आवाज़, अदाकारी और इंसानियत की मिसाल


About Sunil Dutt In Hindi | न्याज़िया बेगम: बड़ा सलोना सा चेहरा, जिसमें उनकी आवाज़ और आंखें कमाल करती थीं। हर डायलॉग उन पर इस तरह जचता था जैसे शब्दों ने भी अभिनय सीख लिया हो। उनका परफेक्ट स्टाइल हर किरदार में चार चांद लगा देता था, फिर चाहे वह मासूम आशिक़ का हो या दमदार हीरो का। यही नहीं, अपनी रियल लाइफ में भी वह सबके चहीते और खुशमिज़ाज इंसान थे।

आवाज़ की दुनिया से अभिनय तक का सफ़र

ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत के झेलम ज़िले के खुर्दी गाँव में जन्मे सुनील दत्त का असली नाम बलराज दत्त था। विभाजन के दौरान वे भारत आ गए और मुंबई के एक कॉलेज में पढ़ाई की। शुरुआत में उन्होंने कंडक्टर की नौकरी की, लेकिन मन वहां नहीं रमा।

अपनी आवाज़ की गहराई और प्रभाव को पहचानते हुए वे पहुँचे दक्षिण एशिया के सबसे पुराने रेडियो स्टेशन, रेडियो सीलोन। ऑडिशन पास कर वे जल्दी ही एक लोकप्रिय उद्घोषक बन गए। इस लोकप्रियता ने उन्हें एहसास दिलाया कि वह कुछ बड़ा कर सकते हैं, और माया नगरी मुंबई में उन्होंने अभिनय की राह पकड़ ली।

‘मदर इंडिया’ से स्टारडम की ओर

कुछ संघर्षों के बाद उन्हें पहली फिल्म मिली — ‘रेलवे स्टेशन’ (1955)। इसमें उनकी सशक्त अदायगी ने उन्हें चर्चा में ला दिया। फिर महबूब ख़ान ने उन्हें ‘मदर इंडिया’ (1957) में काम दिया, जो हिंदी सिनेमा की ऐतिहासिक फिल्म बन गई और सुनील दत्त को एक सच्चा फिल्म स्टार बना गई।

प्रतिभा की उड़ान

इसके बाद उनकी प्रतिभा को और पहचान मिली फिल्म ‘मुझे जीने दो’ (1963) से, जो डकैतों के जीवन पर आधारित थी। इस फिल्म के लिए उन्हें 1964 का फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला। फिर 1966 में ‘खानदान’ के लिए उन्हें पुनः यह सम्मान प्राप्त हुआ।

जब आग ने मिलाया दो दिलों को

उनकी प्रेम कहानी किसी फिल्मी स्क्रिप्ट से कम नहीं थी। ‘मदर इंडिया’ की शूटिंग के दौरान सेट पर आग लग गई और नरगिस उसमें घिर गईं। सुनील दत्त ने बिना एक पल गँवाए आग में छलांग लगा दी। वे खुद तो झुलस गए, लेकिन नरगिस को बचा लिया। यही बहादुरी और इंसानियत नरगिस के दिल को छू गई। इस हादसे ने दोनों को नज़दीक ला दिया। 11 मार्च 1958 को दोनों ने शादी कर ली।

उनके बेटे संजय दत्त, जो मां-पिता दोनों की झलक अपने चेहरे में लिए हुए हैं, आज खुद भी एक मशहूर अभिनेता हैं। बेटी प्रिया दत्त राजनीति में सक्रिय हैं और समाज सेवा में जुटी हैं।

सिनेमाई चमक से राजनीतिक मैदान तक

1950 के दशक के अंत से लेकर 1960 के दशक तक सुनील दत्त ने ‘साधना’, ‘सुजाता’, ‘गुमराह’, ‘वक़्त’, ‘पड़ोसन’, और ‘हमराज़’ जैसी यादगार फिल्मों में अभिनय किया।

वे सिर्फ अभिनेता नहीं थे निर्माता और निर्देशक भी रहे। उन्होंने पंजाबी फिल्मों में भी अभिनय किया और राजनीति में भी गहरी भूमिका निभाई। 2004 से 2005 तक वे मनमोहन सिंह सरकार में खेल एवं युवा मामलों के कैबिनेट मंत्री भी रहे।

निर्माण और निर्देशन में योगदान

उन्होंने कई फिल्मों का निर्माण और निर्देशन भी किया। जिसमें प्रमुख हैं यह आग कब बुझेगी, दर्द का रिश्ता, रेशमा और शेरा, ये रास्ते हैं प्यार के, रेशमा और शेरा, रॉकी, दर्द का रिश्ता, डाकू और जवान, यह आग कब बुझेगी, गौरी, यादें

एक विचार थे सुनील दत्त

सुनील दत्त केवल एक कलाकार नहीं थे, वह एक विचार थे जो दिल से बोलता था, आंखों से महसूस करता था और अपने कर्म से समाज को जोड़ता था। उनका जीवन एक प्रेरणा है, जो सिखाता है कि आवाज़ अगर सच्ची हो तो वह परदे से निकलकर दिलों में उतर जाती है।

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