पद्म श्री बाबूलाल दहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में आज प्रस्तुत है, कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे उपकरणों में मृदा वस्तुएं (5वी किस्त)।
प्राचीन समय में यदि लौह शिल्पी, लकड़ी शिल्पी, पत्थर एवं धातु शिल्पी आदि हमारे कृषि आश्रित समाज को अपने तरह – तरह के उपकरण या बर्तन बनाकर देते थे तो 30–32 प्रकार के बर्तन वा तमाम प्रकार की वस्तुएं हमें मिट्टी शिल्पियों से भी मिलती थीं।
यूं तो मिट्टी के खिलौने ईंट आज से 6-7 हजार वर्ष पहले मोहन जोदड़ो – हड़प्पा काल में ही बनने लगे थे। पर घड़े के अवशेष लगभग 4 हजार वर्ष के आस पास के ही पाए जाते हैं। शुरू- शुरू में मनुष्य की इस क्षेत्र की गुरु शायद दीमक रही होगी।
हुआ यह होगा कि दीमक ने गीली मिट्टी की बॉबी बनाया होगा जो सूख कर ठोस होगई होगी। बाद में गर्मी के दिनों में जब जंगल में आग लगने के कारण वह पक कर कुछ मजबूत और लाल दिखने लगी तो उसे देख मनुष्य के दो अदद फुर्सत के हाथ और एक अदद विलक्षण बुद्धि ने जोर मारा होगा। फिर अनगढ़न ही सही परन्तु पानी पीने के लिए एक घड़ा तैयार ही कर लिया होगा जो बाद में ब्यापार संस्कृति का जनक ही बन गया।
तब प्रागैतिहासिक काल का ऐसा काल खंड था जब मनुष्य नदियों के किनारे ही झोपड़ियां बनाकर रहता और नदी का ही पानी पीता था। फिर तो उसने चाक नामक एक उपकरण ही बना लिया और घड़े के साथ- साथ हंड़िया, तेलइया, ताई ,पैना आदि तरह – तरह के उपकरण बनाने लगा। हमारे बघेलखण्ड क्षेत्र में मिट्टी शिल्प से जुड़े इस समुदाय को कुम्हार नाम से जाना जाता है जो शायद संस्कृत के कुम्भकार से निकला शब्द है।
हम यहां कुम्भकार समुदाय के बनाए बर्तनों और उपकरणों की जानकारी दे रहे हैं जिनमें कुछ चलन से बाहर होकर अब हमारे संग्रहालय में संग्रहीत हैं। परन्तु पहले तुम्बे की जानकारी से शुरुआत करते हैं जो घड़े का भी बड़ा भाई है।
तुम्बा (लौकी )
जब मनुष्य के पास कोई अस्त्र शस्त्र नही थे और मिट्टी के बर्तन भी नही थे तब वह पेड़ में चढ़कर अपनी जीवन रक्षा करता रहा होगा। परन्तु उसके सामने एक समस्या अक्सर आती रही होगी और वह थी पानी पीने की।
तब वह समूह बनाकर नदियों य झील झरनों में पानी पीने जाता रहा होगा जिससे अपने कुछ परिजनों से भी हाथ धोना पड़ता। क्योकि बाघ चीते भेड़िया इसी ताक में रहते थे कि कब यह पेड़ से उतरे और हम इसका निवाला बना लें। ऐसी स्थिति में वह समूह बना हाथ में लकड़ी के लट्ठे लेकर जाता रहा होगा।
कालांतर में जब उसे पककर पेड़ में लटक रही सूखी लौकी मिली तो उसकी अक्ल ने जोर मारा। उसने उस तुम्बे को खो
ल कर अन्दर के दाने को बाहर फेंक गले में पेड़ के छाल की रस्सी बांध पानी पीने का प्रबंध कर लिया होगा जो यदा कदा अब भी कहीं- कहीं दिख जाता है। यहां तक कि जिस लौकी में रस्सी बांधने लायक गला भी नही होती उसे भी सुतली से गांस कर हाथ में लटका कर चलने लायक बना लिया जाता है।
गघरी
गघरी घड़ा का ही रूप है जिसे बघेली में गघरी कहा जाता है। पिछले चार हजार वर्ष पहले से अब तक में इस गघरी में बहुत सारा सुधार हुआ है। सर्व प्रथम मिट्टी शिल्पी इसे बनाने के लिए कंकड़ रहित चिकनी मिट्टी चुनता है। फिर उसे कूट सींच उसमें घोड़े की लीद मिला कर साँचे से बड़े लोटे के आकर की एक आकृति निकालता है। और हल्की धूप लगजाने के पश्चात अन्दर एक हाथ में पत्थर के एक पिंड जिसे पींड़ी कहा जाता है एवं दूसरे हाथ में लकड़ी के हथौड़े से जो थापा कहलाता है उसके सहारे पीट- पीट घड़े का रूप देता है। शायद उसके इसी हुनर को देख ही कवीर ने कहा रहा होगा कि,
गुरु कुम्हार शिष कुम्भ सम,
गढ़ि गढ़ि काढ़य खोट।
अन्तर हाथ सम्हारिया,
बाहर मारइ चोंट।।
इस तरह घड़े को बना सम्हाल कर अच्छी तरह सूख जाने पर उसे आबा में पकाया जाता है। तब वह हमारे पानी पीने के लिए बन कर तैयार होता है।खूब सूरती के लिए कुम्भकार उसके मोहड़े के नीचे रामरज की एक पट्टी पोत देते हैं जिससे आबा में पकने के बाद वह भाग गहरा लाल दिखने लगता है।
गघरा
गघरा गघरी की तरह ही बनता है पर उसका आकार कुछ बड़ा होता है। अगर कुछ मोटे दल का हुआ तो वही मरका कहलाने लगता है। बांकी मिट्टी सानना घोड़े की लीद मिलाना आदि बनाने का तरीका और रामरज पोत कर पकाने की बिधि एक जैसी ही होती है। इसका उपयोग मुख्यतः गर्मी में ठंडा पानी रखने के लिए होता है। यह लगभग मटके जैसा काम ही करता है पर बनावट घड़े जैसी होती है एवं मटके से कुछ पतला होता है। अब फ्रिज आदि के चलन से गघरों की उपयोगिता में कमी स्पस्ट दिखने लगी है।
घइला
घइला घड़े का लघु संस्करण है जो कटाई जुताई के समय हार खेत में पीने का पानी लेजाने के काम आता था। जब आर्द्रा नृक्षत्र में किसान नए वर्ष में प्रथम दिन हल चलाता तो इसी में दीपक जला उसे सिर में रख महिलाएं खेत में खड़ी होती थीं। साथ ही अक्षय तृतीया को देवालय में जल भर कर जुताई हेतु नई रस्सी बना किसान उस रस्सी को इसी घइला में रख कर पूजा करता था। पर अब खेती की पद्धति बदल जाने और जुताई में ट्रैक्टर के एकाधिकार के कारण इसकी उपयोगिता समाप्त सी है। आज के लिए बस इतना ही फिर मिलेंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी में।