Shivaji maharaj jayanti\ शिवाजी महाराज जयंती\ स्वराज के संस्थापक शिवाजी महाराज

शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1630 को पुणे के जुन्नारगढ़ के शिवनेरी दुर्ग में हुआ था, कुछ सोर्स में उनका जन्म 6 अप्रैल 1627 भी बताते हैं। दुर्ग में स्थित देवी मंदिर की अधिष्ठात्री शिवाई देवी के नाम पर ही उनका नाम शिवाजी रखा गया था। उनके पिता थे शाहजी भोंसले जो दक्कन में बीजापुर सल्तनत में एक सरदार थे, जबकि उनकी माँ थीं जीजाबाई, जो एक प्रतिष्ठित मराठा सरदार और सिंदखेड़ के राजा लखुजी जाधव की पुत्री थीं।

Shivaji maharaj jayanti

शिवाजी महाराज की पारिवारिक पृष्ठभूमि

शिवाजी के दादा थे मालोजी जो प्रारंभ में सिंदखेड़ के जाधवों के यहाँ बतौर घुड़सवार सैनिक के रूप में भर्ती हुए थे। ये जाधव अहमदनगर सल्तनत के जागीरदार थे। आगे चलकर वह अहमदनगर सल्तनत के वजीर मलिक अम्बर की सेना में भर्ती हो गए, मलिक अम्बर के प्रभाव के कारण ही उन्हें तीन परगने मिले, आगे चलकर उन्हें राजा की उपाधि और पुणे की जागीर भी मिली, इसके अतिरिक्त उन्हें शिवनेरी और चाकण के दुर्गों पर नियंत्रण भी मिला। इनका विवाह निंबलकर कुल की उमाबाई से हुआ, जिनसे उनको दो पुत्र शाहजी और शरीफजी हुए।

शाहजी का विवाह लखुजी जी जाधव की कन्या जीजाबाई से हुआ था, जिनसे उनके दो शंभूजी और शिवाजी का जन्म हुआ था। एक कहानी है जब मालोजी लखुजी जाधव की सेना मे थे, एक बार होली के अवसर में लखुजी ने मजाक में कहा जीजाऊ और शाहजी की जोड़ी कितनी अच्छी लगती है, मालोजी ने समझा जाधव अपनी बेटी की शादी मेरे बेटे से करना चाहते हैं, इसीलिए उन्होंने सार्वजनिक रूप से इस बात का ऐलान कर दिया, उनके बेटे और जीजाबाई की सगाई वह तय करते हैं। अब लखुजी ने इसे अपना अपमान माना क्योंकि वह एक जागीरदार थे और मालोजी एक उनके अन्डर में एक सैनिक अधिकारी, इसीलिए उन्होंने अपना अपमान मानते हुए इस रिश्ते से इंकार कर दिया, पर कालांतर में जब मालोजी का राजनैतिक उदय हुआ तो उन्होंने अपनी बेटी का विवाह उनके साथ कर दिया।

मालोजी के निधन के बाद उनकी जागीर इत्यादि शाहजी को प्राप्त हो गईं, शाहजी भी पहले मलिक अंबर और अहमदनगर सल्तनत को अपनी सैन्य सेवाएँ देते थे, लेकिन अपनी सुविधानुसार दक्किनी सल्तनतों और मुग़ल की तरफ मिल जाया करते थे, वह अक्सर ऐसा करते रहते थे। बीजापुर, अहमदनगर और मुग़ल सल्तनत के विरुद्ध होने वाले संघर्षों का उन्होंने फायदा उठाते हुए अपनी जागीर को स्थायी बना लिया, अहमदनगर से अलग होने के बाद वह बीजापुर सल्तनत कोअपनी सैन्य सेवाएँ देने लगे। उस समय बीजापुर और गोलकुंडा के मध्य विजयनगर साम्राज्य के कुछ हिस्से को लेकर संघर्ष चल रहा था, बीजापुर सुल्तान द्वारा उन्हें वहीं ही तैनात कर दिया गया, जहाँ वह लगभग 20 वर्ष रहे।

शिवाजी महाराज का प्रारंभिक जीवन

पुणे की जागीर अपने पुत्र शिवाजी को सौंपकर और उसका संरक्षक दादोजी कोंडदेव को नियुक्त कर, शाहजी सुदूर दक्षिण में बैंगलोर चले गए। चूंकि शिवाजी तब बालक थे वह क्या ही प्रबंध करते, इसीलिए इस जागीर का प्रबंध दादा कोंडदेव के साथ मिलकर जीजाबाई ही करतीं थीं। शिवाजी महाराज पर अपनी माँ का अत्यंत प्रभाव पड़ा, वह उन्हें रामायण-महाभारत की कथाओं के साथ ही, स्वराज की प्रेरणा दिया करती थी, शिवाजी महाराज के व्यक्तित्व के निर्माण में उनकी ही प्रमुख भूमिका थी। शासन प्रबंधन और राज-काज की शिक्षा उन्हे दादा कोंडदेव से प्राप्त होती थी। 1647 में कोंडदेव के निधन के बाद शिवाजी महाराज ने, जागीर का प्रबंधन पूर्णतः अपने हाथों में ले लिया।

प्रारंभिक अभियान

1646 में महज 16 साल की उम्र में उन्होंने तोरणा दुर्ग पर अधिकार कर लिया था, तोरणा दुर्ग पर बीजापुर के आदिलशाही वंश का नियंत्रण था, और शिवाजी के पिता शाह जी आदिलशाही दरबार में ही थे। तोरणा दुर्ग से उन्हें बहुत सारा धन भी प्राप्त हुआ, जिससे उन्होंने राजगढ़ में एक दुर्ग का निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त उन्होंने पुणे के निकट ही स्थित अन्य दुर्गों पुरंदर, कोंडाढ़ा और चाकन इत्यादि पर भी अधिकार कर लिया। उनके इन अभियानों के फलस्वरूप बीजापुर दरबार द्वारा पिता शाहजी कैद कर लिया गया, जिसके वजह से शिवाजी महाराज ने कुछ वर्षों तक अपनी गतिविधियां बंद कर दीं थी।

अफजल खान का अंत

शिवाजी के अभियानों की वजह से बीजापुर सल्तनत की संरक्षिका बड़ी साहिबा ने, अपने एक अनुभवी जनरल अफजल खान को शिवाजी के विरुद्ध भेजा, अफजल खान ने शिवाजी के विरुद्ध कड़ी घेराबंदी शुरू की, वह तुलजा भवानी मंदिर और पंढ़रपुर तीर्थ इत्यादि को अपवित्र करता हुआ प्रतापगढ़ तक पहुँच गया, जहाँ शिवाजी महाराज थे, उसने वहीं घेराबंदी डाली, शिवाजी महाराज घेराबंदी को तोड़ने में असफल रहे और अफजल खान दुर्ग तोड़ने में, परिणामस्वरूप दोनों पक्ष समझौते का प्रयास करने लगे, दोनों लोगों की मुलाक़ात किले की तलहटी में तय हुई, अफजल खान ने एक षड्यन्त्र रचा उसने अपने कपड़े में एक खंजर छुपा रखा था, और गले लगकर शिवाजी को मारने की योजना बना रखी थी, शिवाजी महाराज को भी उसकी साजिश का अंदेशा था, इसीलिए उन्होंने कपड़ों के नीचे कवच पहन रखा, और हाथों की उंगलियों में बघनखा भी धारण कर रखा था। शिवाजी महाराज के सामने अफजल काफी लंबा-चौड़ा था, उसने योजना अनुसार गले लगकर शिवाजी महाराज को खंजर से मारने का प्रयास किया, हालांकि कवच के वजह से वह बच गए, और अपने बघनखे से उन्होंने अफजल खान को मार डाला।

शाइस्ता खान से टकराव

बीजापुर की आदिलशाही शिवाजी को नियंत्रित करने में असमर्थ रही, इधर मुग़ल बादशाह बने औरंगजेब ने अपने मामा शाइस्ता खान को दक्कन का सूबेदार बनाकर भेजा, शाइस्ता खान अपने साथ बहुत बड़ी करीब डेढ़ लाख की सेना लेकर आया था, उसने शिवाजी के कई क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया, उसने पुणे पर अधिकार कर लाल महल को अपना निवास बनाया था, लालमहल में निवास करने के समय ही शिवाजी ने एक रात लाल महल पर गुप्त द्वार से प्रवेश कर आक्रमण कर दिया, रात का समय और घुप अंधेरा था, इसी भगदड़ का फायदा उठाकर शाइस्ता खान महल से भाग गया, हालांकि उसकी तीन उँगलियाँ जरूर इसी चक्कर में कट गईं, शाइस्ता खान की इस शर्मनाक हार के बाद औरंगजेब ने उसे बंगाल भेज दिया।

सूरत पर आक्रमण

तीन साल तक मुग़लों से लड़ते हुए शिवाजी महाराज की वित्तीय स्थित बहुत ही खराब हो चुकी थी, इसीलिए उन्होंने सूरत को लूटने की योजना बनाई, सूरत जो उस समय बंदरगाह और भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक नगर था, यहाँ पर विदेशी व्यापारी खूब आते थे, इसके अलावा यहीं से हजयात्रा भी होती थी, अपने जासूसों से शिवाजी महाराज को यह भी पता चला, यहाँ की सुरक्षा व्यवस्था भी लचर है, इसीलिए उन्होंने सूरत को अपना लक्ष्य बनाया, वह लगभग 4000 हजार की ट्रेंड सेना को लेकर सूरत की तरफ बढ़े, रायगढ़ से पुणे की दूरी लगभग दो सौ मील थी, शिवाजी पुर्तगलियों और सिद्दियों के विरुद्ध सैनिक अभियान का बहाना बनाकर छोटे-छोटे ग्रुप्स में कई दल अलग-अलग समय में भेजे, जिससे किसी को शक ना हो, शिवाजी खुद एक दल के साथ निकले, यह सभी दल सूरत से दक्षिण में 28 मील दूर गंडेवी में मिले, सूरत का गवर्नर उस समय इनायत खान था, वह नगर की सुरक्षा में खुद को असमर्थ पाकर, खुद अपने परिवार के साथ भाग गया, सूरत में उस समय बहुत से व्यापारियों की कोठियाँ थीं, युरोपियन कंपनियों के कारखाने थे, अर्थात इस नगर में अपार वैभव था, शिवाजी और उनकी सेना ने 5 जनवरी को सूरत पर आक्रमण किया, इनायत खान को धन अर्पित करने का संदेश दिया, इसके साथ ही उन्होंने बड़े व्यापारियों को भी धन अर्पण करने का संदेश दिया। लेकिन वाजिब जवाब ना पाकर शहर को लूटने का आदेश दे दिया, हालांकि उनकी सेना ने धनी व्यापारियों को तो लूटा, लेकिन किसी को मारा नहीं, यहाँ तक मिशनरीज केंद्रों को भी छोड़ दिया, इस लूट से शिवाजी महाराज को बहुत सारा सोना, चांदी, महंगे रत्न और बहुत सारे पैसे भी मिले, मुग़लों के सबसे बड़े व्यापरिक केंद्र को लूटना, यह एक बहुत बड़ा साहसिक कार्य था।

पुरंदर की संधि

शाइस्ता खान की दुर्दशा और सूरत की लूट से औरंगजेब की प्रतिष्ठा को बहुत धक्का लगा, इसीलिए उसने शिवाजी महाराज के विरुद्ध आमेर के राजा मिर्जा जय सिंह को भेजा, जयसिंह बहुत ही अनुभवी जनरल थे, उन्होंने भारत में दूर-दूर तक युद्ध किए थे, जहाँ एक तरफ मध्य-एशिया के बल्ख में, दक्कन में बीजापुर, पूर्व में मुंगेर और पश्चिम में कंधार तक में युद्ध किए थे, जय सिंह के साथ कई अन्य सरदार भी दक्कन अभियान में गए थे, जिनमें दिलेर खान अफ़गान प्रमुख था। जयसिंह ने शिवाजी के प्रमुख दुर्ग पुरंदर पर घेरा डाला, यह घेरा महीनों पड़ा रहा, एक लंबे संघर्ष के बाद शिवाजी इस घेरे को तोड़ने में असफल रहे, अंततः शिवाजी महाराज जयसिंह से संधि को तैयार हो गये, जिसके बाद जयसिंह और शिवाजी मे मध्य पुरंदर की संधि हुई, जिसके अनुसार शिवाजी महाराज ने अपने प्रमुख 23 किले मुग़लों को देने को तैयार हो गए, इसके अलावा उन्होंने 4 लाख हुन युद्ध हरजाने के रूप में भी देने को तैयार हुए, इसके अलावा दक्कन के मुग़ल अभियानों में सहयोग देने का वचन दिया, उनके बेटे संभाजी पंच हजारी मनसबदार भी बनाए गए। इस संधि के बाद शिवाजी महाराज ने जयसिंह के साथ बीजापुर अभियान में भी भाग लिया।

शिवाजी महाराज की आगरा यात्रा

जयसिंह का बीजापुर अभियान असफल रहा, बादशाह के कान कुछ लोगों ने भरे कि बीजापुर अभियान शिवाजी के कारण असफल रहा, इसीलिए औरंगजेब ने उन्हें तब की मुग़ल राजधानी आगरा आमंत्रित किया, साथ ही कुछ धन भी भिजवाया और आश्वता के साथ आगरा आने के लिए कहा, जयसिंह ने भी उन्हें वचन दिया, आपके साथ कुछ भी गलत नहीं होगा, मेरा बेटा रामसिंह आपके साथ रहेगा। 11 मई 1666 को शिवाजी महाराज अपने दल के साथ आगरा पहुंचे, जहाँ कुँवर रामसिंह ने उनका स्वागत किया। लेकिन वहाँ दरबार में औरंगजेब ने उनके साथ उचित व्यवहार नहीं किया, और उन्हें दरबार में पीछे की लाइन में खड़ा किया गया, जो पंचहजारी मनसबदारों के लिए नियत थी, जबकि पंच हजारी मनसब उनके बेटे और उनके एक सामंत का था, वह आहत हो गए और नाराज होकर दरबार से चले गए, कुँवर रामसिंह ने उन्हे मनाने की भी कोशिश की लेकिन वह माने, औरंगजेब के आदेश पर उन्हें जयपुर सराय जहाँ वहाँ रुके हुए थे, वहीं नजरबंद कर दिया गया, दिन रात उन पर सख्त पहरा बैठा दिया गया, उनके साथ क्या व्यवहार किया जाए, इसका विचार-विमर्श दरबार में हो ही रहा था, बादशाह की बहन जिसके मातहत सूरत था और शाइस्ता खान का परिवार का उनके विरुद्ध सख्त कार्यवाई के पक्ष में था, लेकिन कुँवर राम सिंह अपने पिता के वचन की दुहाई देकर उन्हें बचाने का प्रयास कर रहे थे, उस समय मुग़ल वजीर ने भी रामसिंह का साथ दिया, हालांकि शिवाजी महाराज के साथ क्या होगा, यह तय नहीं था, कुछ सोर्स उनकी हत्या और कुछ सोर्स उन्हें काबुल में अफगानों के विरुद्ध भेजेने की योजना का जिक्र करते हैं। लेकिन शिवाजी वहाँ से जल्द से जल्द निकलना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने योजनानुसार बीमारी का बहाना बनाया, जिसके कारण वह दिनभर बिस्तर पर पड़े हुए कराहते रहते थे, उसके बाद वह गरीबों और फकीरों को फल और मिठाइयां बटवाने लगे, जिसके बड़े-बड़े टोकरे होते थे, कुछ दिन तो पहरेदारों ने टोकरों की जांच-पड़ताल की, लेकिन आगे लापरवाह हो गए, इधर शिवाजी महाराज ने औरंगजेब को एक खत लिखकर आगरे की मौसम की तारीफ की और अपनी पत्नी और माँ को भी आगरा बुलाने की इच्छा जाहिर की, कुल मिलाकर सबको यही लग रहा था, शिवाजी बहुत खुश हैं। इधर शिवाजी महाराज ने अपनी जगह अपने सौतेले भाई को हाथ में अपना कड़ा पहनाकर, अपने बिस्तर पर लिटा दिया, और स्वयं टोकरी उठाने वाले की भेसभूषा धारण की, अपने बालक संभा जी को फलों की टोकरी में लिटाकर बाहर निकल गए, मथुरा जाकर अपने पुत्र को एक विश्वासपात्र व्यक्ति के यहाँ छोड़कर, स्वयं महात्मा का वेश बनाकर प्रयाग, बनारस और अमरकंटक के रास्ते रायगढ़ चले गए।

छत्रपति की पदवी

आगरा से निकलने के बाद, वह कुछ वर्षों तक शांत रहे, मारवाड़ के राजा जसवंत सिंह की मध्यस्थता के कारण, मुग़ल मराठा संधि हो गई, जिसके बाद औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की उपाधि, दक्कन में कुछ परगने भी दिए, शिवाजी महाराज अपने बेटे संभाजी को मुग़ल अभियानों में भी भेजा। इसके बाद उन्होंने हिंदू रीति-रिवाजों से अपना राज्याभिषेक करवाया, मेवाड़ के सीसोदिया क्षत्रिय होने का दावा किया और छत्रपति की उपाधि धारण की, इसके लिए काशी से गागा भट्ट नाम के विद्वान ब्राम्हण को बुलाया, जिसने यह संस्कार सम्पन्न करवाया, इस उत्सव में उन्होंने बहुत सा धन खर्च कर दिया था, और उन्हें अब और धन की जरूरत थी। इसके बाद भी उनका मुग़लों के विरुद्ध संघर्ष जारी ही रहा, मुग़लों के अतिरिक्त दक्किनी सल्तनतों के साथ भी उनका टकराव जारी ही रहा।

पारिवारिक टकराव और मृत्यु

शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य की नींव रखी, स्वराज का नारा दिया, मराठों को एकीकरण करने का भी प्रयास किया, लेकिन दुर्भाग्य वश, उनके परिवार में उनकी दूसरी पत्नी सोयराबाई और पुत्र संभाजी के मध्य टकराव हो रहा था, उनके पुत्र बागी होकर कुछ समय तक मुग़ल पक्ष में भी चले गए थे, इसके अलावा उनके आचरणों की वजह से शिवाजी महाराज ने उन्हें पन्हाला दुर्ग में नजरबंद भी कर रखा था, शिवाजी महाराज चाह कर भी अपने पारिवारिक मतभेदों को नहीं मिटा सके, 3 अप्रैल 1680 को रायगढ़ में एक बीमारी की वजह से, शिवाजी महाराज की मृत्य हो गई, स्वराज का आकाश का इक तारा अस्त हो गया, लेकिन उनकी प्रकाश और ऊर्जा से भारत के आकाश अभी प्रकाशित है।

मूल्यांकन

देवगिरि के पतन के बाद दक्कन में, हिंदू शक्तियां बची नहीं थीं, शिवाजी महाराज के समय में एक जनजागरण आया और मराठा शक्ति का उदय हुआ, जो 18 वीं शताब्दी में भारत की सबसे बड़ी शक्ति बनकर उभरी, मराठा साम्राज्य की नींव शिवाजी ने ही रखी, वह कुशल दुस्साहसी योद्धा और चतुर रणनीतिकार भी थे, उनके द्वारा किए गए कार्य चकित करते हैं, उन्होंने युद्ध में साम-दाम-दंड-भेद किसी भी तरह से हो कार्य किया, मलिक अम्बर की छापामार प्रणाली को अपनाकर उन्होंने अपने अभियानों की शुरुआत की, उन्हें स्वराज की प्रेरणा उनकी माँ जीजाबाई से मिली थी।

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