‘याद न जाये बीते दिनों की’ जयकिशन को याद करते हुए शंकर-जयकिशन की बातें

Shankar Jaikishan

जयकिशन की स्मृतियों को हम सब संजोये हुए हैं अपने दिल में, अनंत गहराइयों तक। पुण्य तिथि पर उन्हें याद करते-करते सोचता हूँ कि क्या लगता है कभी कि हमने उन लोगों को देखा ही नहीं कभी, कि हम उनसे मिले ही नहीं कभी भी, मेरे साथ तो ऐसा कभी नहीं लगता! लगता है जैसे मैं उनसे बात करता हूँ हर रोज़। वो बताते हैं कि गाना ऐसे बनता है, वो बताते हैं कि शब्द खेलते कैसे हैं, बोलते कैसे हैं, कैसे गाते हैं वो, किसी गाने में सुर कहाँ चलते चले जायेंगे, ताल कैसे मचलेगी। ऑर्केस्ट्रा का उन्वान क्या है, कैसे परवान चढ़ते हैं नग़मे, क्या होती है खूबसूरती, कोई कैसे इश्क़ में पड़ जाता है मौसिक़ी के. क्या है जो नहीं बताते मुझे शंकर जयकिशन?

मैं वाक़ई बात करता हूँ उनसे हर रोज़ ऐसे, जैसे- “मेरे तुम्हारे बीच में अब तो न पर्वत न सागर।” निस दिन ख़यालों में उजागर हैं वो। ये केमिकल लोचा कभी ठीक नहीं हो सकता और अकेले मेरे साथ ये लोचा नहीं है। जाने कितने हैं दुनिया में मेरे जैसे जिनके साथ ये घटता है रोज़। 

एक गाना है-

“देखा है तेरी आँखों में

प्यार ही प्यार बेशुमार”

इसकी कम्पोजीशन देखिए। मुखड़ा ऊपर के स्वरों में और अंतरा भी। लेकिन कितनी खूबसूरती से दोनों बिल्कुल अलग-अलग रंग में ढल कर आमद होते हैं। और साथ में मुखड़े में गिटार का इस्तेमाल ग़जब बैलेंस के साथ प्यार ही प्यार बेशुमार का मज़ा कई गुना बढ़ा देता है। गायकी में रफी साहब के क्या कहने। अन्तरे में तीसरी लाइन में ‘मेहरबां हुस्न हुआ’ का ‘हुआ’ सुनते ही धुन और गायकी का हुस्न खिल उठता है और मोहब्बत का नशा तारी होने लगता है। कुल मिलाकर शंकर-जयकिशनी फ्लेवर का कमाल। शंकर-जयकिशन को हम सबसे बेशुमार प्यार था जो उन्होंने अपने संगीत के जरिये हम पर लुटाया। 

नयी पीढ़ी में शायद उनके नाम का चर्चा न होता हो पर उनके कितने ही गाने मौजूदा दौर के रीमिक्स और तथाकथित रिक्रिएशन के नाम पर सुने जा रहे हैं। भारत से लेकर विश्व के अनेक देशों के म्यूजिक बैंड्स ने उनके गानों का इस्तेमाल किया है और अपनी प्रस्तुतियाँ दी हैं। 

शंकर-जयकिशन यानी अच्छी, बेहतर धुनें एवं उनके जीवंत और उत्कृष्ट वाद्यवृंद संयोजन 

यह कहना तो ग़लत होगा कि सिर्फ़ शंकर-जयकिशन की धुनें ही अच्छी या बेहतर थीं। उनके दौर में उनके समकालीन सारे कंपोजर्स ही एक से बढ़कर एक धुनें बनाने वाले थे. परन्तु औसतन यदि सफ़लता और पसंदगी के लिहाज से बात करें तो शंकर-जयकिशन के पास गानों का संख्या बल भी अधिक था और एक बेहद महत्वपूर्ण बात यह भी थी कि इतना काम होने के बाद भी सफल धुनों का औसत अन्य लोगों से बहुत बेहतर था। मैं यह बात फैन फॉलोइंग, मीडिया में उनके गानों की उपस्थिति और चर्चा में रहने की स्थिति को सफलता का मापदण्ड मानकर कह रहा हूँ। उनके समकालीन अधिकतर संगीत निर्देशक शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत में पारंगत थे या खासा दखल रखने वाले थे। उस परिप्रेक्ष्य में रागदारी को बरक़रार रखते हुये इतनी सरल और आसानी से पसंद आ जाने वाली धुनें बनाने में शंकर जयकिशन का औसत बहुत ऊपर माना जा सकता है।

शास्त्र के अनुसार धुन बनानी हो या सुगम। दोनों में ही शंकर-जयकिशन का काम लाजबाव है। इसके लिये अनेक उदाहरणों के बीच में से एक धुन है- “बदन पे सितारे लपेटे हुये” यूँ देखें तो इसके आरोह-अवरोह के स्वर राग जीला और धानी के आस-पास ही हैं, पर कंपोजीशन सुनने में आपको ऐसा लगेगा ही नहीं कि यह गाना किसी राग पर आधारित हो सकता है।

स्वरों पर काम करते वक़्त उनका स्वरूप परिवर्तन इतना तगड़ा होता है कि आप भौंचक्के रह जायें। इस एडाॅप्टेशन की प्रक्रिया के कुछ अच्छे उदाहरण वह भी हैं जहाँ उन्होंने दुनिया के बड़े समकालीन कंपोजर्स की धुनों से इंस्पिरेशन लिया है। इनमें कई तो पायोनियर इंस्पिरेशन कहे जा सकते हैं। फ़िल्म ‘दिल एक मंदिर’ का गीत ‘याद न जाये बीते दिनों की’ ऐसा ही ज्वलंत उदाहरण है। ऐसा कहा जाता है कि यह गीत मैक्सिकन सिंगर ‘पेड्रो इनफेन्ट’ के गीत ‘बीसेम मूचो’ से इंस्पायर है। मैंने इसकी पड़ताल करने की छोटी सी कोशिश की।

मेरे कान मुझे जितना सामर्थ्य देते हैं, एक कंपोजर होने के नाते मैंने पेड्रो इन्फैंटे की गाई कम्पोजीशन को समझने की कोशिश की, बल्कि कहा जाए तो मैंने उसे अनेक बार सुना, हार्मोनिक मूवमेंट्स या चलन ‘याद न जाए’ के करीब हैं परन्तु मूल स्तर पर यह हार्मोनिक प्रेरणा ही लगती है, अन्यथा इसकी आत्मा और रचना अपने आप में बिल्कुल ही मूल किस्म की है और पूरी हिंदुस्तानी आत्मा के साथ एक ख़ास शंकर-जयकिशनी फ्लेवर की है। ‘याद न जाए’ और ‘बेसमे म्यूचो’ के पीछे की हार्मोनिक आमद लगभग एक ही किस्म की चलन वाली ध्वनियों की और रूप की हैं।

इस गीत में प्रेरणा (इंस्पिरेशन) और इंप्रोवाइजेशन बहुत महीन और गूढ़ है। केवल स्वरों के मिलान जैसा काम नहीं है इसमें। इसमें कंपोजर का पूरा सौन्दर्यबोध काम करता है। ‘बीसेम मूचो’ के और भी कई वर्जन हैं और कई वर्जन सुनकर भी ‘याद ना जाये’ से उनका ख़ास संबंध यही स्थापित हो पाता है कि हार्मोनिक लाइनें कुछ समानता रखती हैं और कुछ हद तक एक टुकड़ा ‘उन्हें दिल क्यों भुलाये’ और पहला इंटरल्यूड काफी नज़दीक सुनाई देता है। पर फिर भी गीत की आत्मा बिल्कुल पवित्र है।

मुझे ऐसा लगता है कि शंकर-जयकिशन ने अपने समय के आसपास के अंतर्राष्ट्रीय संगीत के कुछ खास संगीतकारों के काम से एक तारतम्य स्थापित किया। यह तारतम्य, संगीत की रचना और उसके स्थायित्व से सीधे शंकर जयकिशन की संगीतमय संरचनाओं में दिखाई पड़ता है। इन संगीतकारों में केटलबरी, रोन गुडविन, इवानोविकी, बीटल्स, एल्विस प्रिस्ले, डोमेनिको मोडुंगो जैसे नाम शामिल हैं।

इटालियन, अरेबियन संगीत का बहुत प्रभाव उनकी धुनों पर दिखाई पड़ता है और इसी कारण उस समय भारतीय प्ररिप्रेक्ष्य में उनकी धुनें अलग-अलग किस्म की संरचनाओं के साथ उपस्थित होती हैं। विभिन्न चालों और कटावों वाली अनेक धुनें हैं जो आमतौर पर तब तक के भारतीय फ़िल्म संगीत में नहीं दिखाई पड़ती थी। वैसे भी शंकर जयकिशन का दौर भारतीय फ़िल्म संगीत के स्थायित्व और उसके समृद्ध होने का सबसे स्वर्णिम दौर रहा। जितना विकास उस कालखंड में फ़िल्म संगीत और पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री में हुआ वह ‘न भूतो न भविष्यति’ था। उनकी यह उन्मुक्तता, प्रयोगधर्मिता के लिये भी आवश्यक थी और फ़िल्म संगीत के विकास के लिये भी। एकदम सरल सुगम धुनों से अलग हिंदुस्तानी शास्त्रीय किस्म की बात करें तो वहाँ शास्त्रोक्त रूप की आमद ही होती है।

सुगम से विलग विशुद्ध रागदारी का काम ऐसी धुनों में मिलता है। ‘भय भंजना वंदना सुन हमारी’ गीत यदि सुनें तो इस शास्त्रीय रूप की आमद की पुष्टि हो जाती है। फ़िल्म ‘बसंत बहार’ का यह गीत ‘दस मात्रा की ताल’ और राग ‘मियाँ की मल्हार’ पर आधारित है। फ़िल्म ‘आम्रपाली’ का राग हमीर पर आधारित गीत ‘जाओ रे जोगी तुम जाओ रे’ भी शुद्ध रागदारी की बात ही इंगित करता है। राग ‘जय जयवंती’ का आनंद लेना है तो शंकर-जयकिशन की फ़िल्म ‘सीमा’ का गीत सुनिये ‘मनमोहना बड़े झूठे’, यकीन कीजिये आत्मा तृप्त हो जाती है। तात्पर्य यह है कि शास्त्रीय रागों पर शास्त्रीय शैली में काम करना हो या सुगम शैली में, शंकर जयकिशन हर जगह अपना एक अलग ही रंग छोड़ते हैं।

शास्त्रीय संगीत से गहरा संबंध वैसे तो हमेशा ही फ़िल्म संगीत से रहा है। कितने ही शास्त्रीय संगीत के कलाकारों का इसमें अभूतपूर्व योगदान इस बात की पुष्टि भी करता है कि कलाओं में निहित अंतरसंबंध वस्तुतः हर कला रूप की बेहतरी में मददगार तो हैं ही, इससे आगे कहा जाए तो इन संबंधों की दरकार इसलिए भी होती है कि किसी नए आयाम को खोजने और विकसित करने के लिए ये काफी हद तक जिम्मेदार भी हैं।

शास्त्रीय संगीत और रागों की बात से थोड़ा दूर चलकर वापस फिल्म संगीत की ओर रुख़ करें तो शंकर जयकिशन की फ़िल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के एक गीत का जिक्र किये बिना बात ज़रा अधूरी सी रहेगी। मुखड़ा है- 

“हो मैंने प्यार किया

ओय-होय क्या जुरम किया

इन आँखों का रंग हो गया गुलाबी-गुलाबी

हाय-हाय-हाय-हाय दिल की हालत शराबी-शराबी

फ़िल्म देखते वक़्त महसूस होता है कि गीत फ़िल्माया पहले गाया गया और रिकॉर्ड बाद में किया गया। एक-एक लाइन, एक-एक शब्द, गुनगुना रहा हो जैसे, क्या अभिव्यक्ति है! अकल्पनीय, अतुलनीय। फ़िल्म निर्माण में ऐसे अद्भुत बिरले गीत मुझे मुश्किल से मिलते हैं जिसमें ऐसा लगता है कि निर्देशक, संगीतकार, गीतकार, सिनेमेटोग्राफर, सेट डिज़ाइनर, अभिनेता, गायक, सहकलाकार, तकनीक सब एकाकार हो गए हों। ऐसा है नहीं पर महसूस यूँ होता है जैसे सब एक ही समय पर घट गया फिल्माए जाने के दौरान। कुछ भी पहले से नहीं था। सब एक रवानी में होता गया है बस।

शब्दों को साँस लेना सिखाना, बोलना-मुस्कुराना, गुनगुनाना सिखाना शंकर-जयकिशन के संगीत में अप्रतिम है। इस गीत में एक साथ कितनी चीज़ें जीवंत हैं- नायिका जीवंत, उसका रोमांस जीवंत, प्यार का नशा जीवंत, धुन का पूरा ताना-बाना जीवंत, गायकी जीवंत, ताल में पहाड़ जीवंत, स्ट्रिंग्स पर हार्मोनिक इमोशन जीवंत, बाँसुरी और मेंडोलिन से जवानी की रवानी जीवंत। गीत से मन में छुपी बात कोरस के साथ से जीवंत।

उनकी रचनात्मक क्षमता के उन्वान का ऐसा ही एक और गीत है फ़िल्म ‘आवारा’ का-

एक दो तीन

आजा मौसम है रंगीन

रात को छुप-छुप के मिलना

दुनिया समझे पाप रे…”

आज दुनिया जिसे आइटम सॉन्ग कहती है, कैबरे या कुछ और, हिन्दुस्तानी फ़िल्म संगीत में उसकी शुरुआत संभवतः शंकर-जयकिशन से ही होती है। इस गीत की चाल देखिये, कमाल देखिये, धमाल देखिये। ब्रास सेक्शन पर पहले ही सुर से गीत का प्रील्यूड जो हुक लेकर खड़ा होता है, वह पूरे गीत को अंतिम तक उसी आसमानी धमाल का बायस बनाये रखता है। पूरे गीत के दौरान स्ट्रिंग सेक्शन पर निरंतर रन चलती हैं और चलती हैं हिंदुस्तानी सिनेमाई संगीत के उस ज़माने की नायाब और अद्भुत हार्मोनिक लाइनें। वो सब मिलकर इस धमाल को पारलौकिक किस्म का बना देते हैं। 

इंटरल्यूड्स एक तिलिस्मी वातावरण रचते हैं। पहले इंटरल्यूड को कुल जमा 12 रिदम बार में बनाया गया है। लेकिन इसमें नृत्य के लिए और तिलस्म रचने के लिए हार्मोनिक और रिदमिक चाल कहीं भी ठाह नहीं लेती। लगभग हर दूसरे रिदम बार पर नई चाल आ जाती है। आठवें रिदम बार से जो चाल बनाई गई है यूँ तो वो अब बहुधा इस्तेमाल होती है पर उस समय यह अभिनव रहा होगा।

कोरियोग्राफर और नर्तकी ने यहाँ 10 चक्कर लगाकर आमद दी है। गाने की समाप्ति के समय समृद्ध ध्वनि प्रभाव (Rich sound effect) के साथ प्रोग्रेशन और अंतिम टुटीकाॅर्ड (Tutti chord) गाने को उसी हुक के प्रभाव पर समाप्त करते हैं, जहाँ से गाना शुरू हुआ था। ऑनलाइन साउंड मिक्सिंग के द्वारा कोलाहल का समावेश गाने के तिलिस्म को अत्यंत गहरा बनाता जाता है। संभवतः यह कोलाहल गीत रिकॉर्ड होने के बाद टेप के ऊपर फिर से रिकॉर्ड हुआ हो क्योंकि कुछ रिकॉर्डिंग बिना कोलाहल के भी मिल जाती हैं इस गीत की। बावजूद इसके पूरे गीत को सुनने से सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि शंकर-जयकिशन की विचार प्रक्रिया (थाॅट प्रोसेस) किसी भी गीत के लिये कितनी गहरी और मजबूत होती थी।

इस आर्टिकल को लिखा है लेखक, गीतकार और संगीतकार अभिषेक त्रिपाठी ने. अभिषेक ने फिल्म संगीत पर कई किताबें लिखीं हैं जैसे "इंडियन फिल्म म्यूजिक एंड द एस्थेटिक्स ऑफ़ कॉर्ड्स". अभिषेक ने बॉलीवुड फिल्म "चिंटूजी", उड़िया मेंम्यूसिक एल्बम, दूरदर्शन के लिए "चाय के बहाने" और "बंटी बबली की मम्मी" जैसे टीवी धारावाहिकों के लिए गाने गए हैं. साथ ही एक रंगमंचीय शख़्सियत के तौर पर 50 से अधिक नाटकों के लिए संगीत निर्देशन और संयोजन किया है. अभिषेक त्रिपाठी संगीत और रंगमंच की पत्रिका नादरंग में सहायक संपादक हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *