About Majrooh Sultanpuri in Hindi: मजरूह सुल्तानपुरी एक सुप्रसिद्ध शायर और गीतकार थे, जो अपने विद्रोही तेवर के वजह से जाने जाते थे। एक बार उन्होंने एक ऐसी कविता पढ़ी थी, जिसके बाद उन्हें 2 साल की जेल हो गई थी। माफी मांगने पर रिहाई की शर्त को मानने से उन्होंने इंकार कर दिया था।
प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि
मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म 1 अक्टूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में हुआ था। उनका असली नाम असरार उल हसन खान था। मजरूह उनका पेन नेम था, जिसका अर्थ होता यही घायल और चोटिल, जबकि सुल्तानपुर का होने के कारण सुल्तानपुरी।
उनका परिवार मूलतः राजपूत था, जिसने बाद में इस्लाम धर्म तो अपना लिया था, लेकिन अपनी हिंदू सांस्कृतिक परंपराओं को नहीं छोड़ा था। उनका पालन-पोषण उसी परंपरावादी माहौल में हुआ, लेकिन उनकी सोच शुरू से ही विद्रोही थी।
शिक्षा और शायरी की शुरुआत
मजरूह के पिता पुलिस में से थे, इसके बाद भी वह अपने बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा नहीं दिलाना चाहते थे। इसीलिए मजरूह को भी पारंपरिक इस्लामी शिक्षा मिली और आगे यूनानी चिकित्सा में डिग्री प्राप्त कर हकीम बन गए। लेकिन उनका मन इलाज में कम, शायरी में ज्यादा लगता था। वे मुशायरों में हिस्सा लेने लगे और जल्द ही अपने तेज़-तर्रार और धारदार शेरों से पहचान बनाने लगे।
फिल्मी दुनिया में कदम
1944-1945 की बात थी जब मजरूह मुंबई में एक मुशायरे में गए थे। वहाँ फिल्मकार ए. आर. कारदार उनसे बेहद प्रभावित हुए और उनको गीत लिखने की पेशकश की। लेकिन मजरूह ने इंकार कर दिया। लेकिन अपने गुरु और मित्र जिगर मुरादाबादी के समझाने के बाद वह मान गए और कारदार ने उन्हें संगीतकार नौशाद से मिलवाया।
नौशाद ने युवा शायर का टेस्ट लेने के लिए उन्हें एक ट्यून देकर उस पर लिखने के लिए कहा। मजरूह ने तब लिखा “जब उसने गेसू बिखराए, बादल आए झूम के”। नौशाद को यह शायरी इतनी पसंद आई कि उन्होंने, उनसे फिल्म ‘शाहजहां’ (1946) के लिए पहला गीत लिखवाया- “जब उस ज़मीन पर तेरा नक्श-ए-क़दम रख दो…”। इसके बाद मजरूह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
सिनेमा और शायरी का संगम
उनकी शायरी में एक सरल सी गहराई थी। लेकिन बहुत ही तेज असरदार, भावुक और बगावती। मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी की शैली अद्वितीय थी। जिसमें अपने शब्दों के माध्यम से उन्होंने प्रेम, जीवन और समाज के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त किया।
मजरूह ने छह दशकों के लंबे करियर में कई सदाबहार गाने लिखे जो आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं।
- “चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे” (दाग़)
- “रात भी है कुछ भीगी भीगी” (मुझसे दोस्ती करोगे)
- “तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं” (गाइड)
- “ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ” (जाल)”
राजनीतिक दृष्टिकोण और विद्रोही तेवर
मजरूह सिर्फ गीतकार नहीं, बल्कि एक विचारशील और साहसी कवि भी थे। देश की आजादी के बाद मुंबई के मिल मजदूरों ने अपनी कुछ मांगों के साथ हड़ताल कर रखी थी। लेकिन सरकार थी कि मान नहीं रही थी। इसी बीच मजदूरों का समर्थन कर रहे मजरूह सुल्तानपुरी ने एक ऐसी कविता लिखी जिसमें उन्होंने पंडित नेहरू की नीतियों की जमकर आलोचना करते हुए, पंडित नेहरु को हिटलर का चेला और कामनवेल्थ का दास कहा था।
इस राजनीतिक तेवर के कारण उन्हें कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़ा मानते हुए जेल भेज दिया गया, उनके साथ सुप्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी को भी जेल भेजा गया था। मुंबई के तत्कालीन सरकार ने, माफी मांगने की शर्त पर उन्हें रिहा करने की बात की, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया। और लगभग 2 साल जेल में ही बंद रहे।
कौन सी थी कविता-
“मन में जहर डॉलर का बसा के,
फिरती है भारत की अहिंसा।
खादी की केंचुल को पहनकर,
ये केंचुल लहराने ना पाए।
ये भी है हिटलर का चेला,
मार लो साथी जाने ना पाए।
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरु,
मार लो साथी जाने ना पाए।”
सम्मान और पुरस्कार
- 1965 में उन्हें फिल्म दोस्ती के लिखे गाने “चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे” के लिए बेस्ट गीतकार का पहला और एकमात्र फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला।
- 1993 में उन्हें दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिसे भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च पुरस्कार माना जाता है। फ़िल्मफेयर पुरस्कार समेत उन्हें कई अन्य साहित्यिक और फिल्मी सम्मान भी मिले।
व्यक्तित्व और विरासत
मजरूह का व्यक्तित्व सादा लेकिन प्रभावशाली था। वे भीड़ से अलग चलने वालों में थे। उनके लिखे गीतों ने पीढ़ियों को छुआ और उनकी शायरी आज भी नई पीढ़ी को प्रेरणा देती है। उन्होंने के. एल. सहगल से लेकर सलमान खान तक के फिल्मों के लिए गीत लिखे।
निधन
फेफड़ों में हुई निमोनिया की वजह से ही 24 मई 2000 को 80 वर्ष की उम्र में, मजरूह सुल्तानपुरी का निधन हुआ। लेकिन उनके शब्द आज भी ग़ज़लों में, गीतों में और दिलों में जीवंत हैं।
“मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया”