यह जरूरी नहीं कि व्यक्ति की सोच उसकी समाज की भी सोच हो। जरूरी यह भी नहीं कि सामाजिक सोच व्यक्ति के निजी जीवन में भी कोई महत्त्व रखती हो, लेकिन कुछ सोच ऐसे तथ्य हैं जो समय, समाज और सभ्यता के सोच हैं। ऐसा ही एक सोच है” पर्यावरण”। इस सोच का रामकथा की सबसे ज्यादा लोकप्रिय पहचान को रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने पांच शब्दो मे उकेरा है.
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। उत्तरकांड की यह उक्ति “संत, विटप,सरिता, गिरि, धरिनी । परहित हेतु, सबिन्ह की करनी।।
अपने समय के पर्यावरण के पंच तत्वों को उजागर करती है। यदि हम रामायण का सही अर्थ समझते तो अपने प्राकृतिक संसाधनों को नहीं रौंदते, बल्कि हम उसके साथ संतुलन बनाए रखने को प्रतिबद्ध रहते, उसका आदर करते जैसा कि रामकथा के विभिन्न प्रसंगों में पाया जाता है। रामकथा के बालकांड में शिवजी पार्वती जी से कहते हैं कि “हे भवानी जब पृथ्वी पर असुरों का उपद्रव,अत्याचार,और पाप, बढ़ने लगे ,और उनके द्वारा धर्म की जड़े काटी गई,तब संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण व्याप्त हो गया था कि धर्म तो सुनने में भी नहीं आता था। इस प्रकार धर्म के प्रति लोगों की अतिशय ग्लानि, अरुचि और अनास्था देखकर पृथ्वी भयभीत एवं व्याकुल हो गई, वह सोचने लगी के पर्वतों ,नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना नहीं मालूम पड़ता जितना भारी मुझे एक परिद्रोही लगता है, पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है पर असुरों से इतनी भयभीत हुई है कि वह कुछ बोल नहीं सकी, अंत में वह गाय का रूप धारण कर देवताओं और मुनियों के पास गई और उनको अपना दुख सुनाया तब देवता मुनि और गंधर्व सब मिलकर सत्यलोक में ब्रह्मा के पास गए और उनको अपनी व्यथा सुनाई बाद की कथा सब को ज्ञात ही होगी।
एक अन्य प्रसंग में “कृषि सभ्यता “और “वन सभ्यता” के बीच की दूरी भी परिलक्षित हुई है. कैकई ने राजा दशरथ से राम को बनवास देने का वर मांगा था. दशरथ कैकई वार्तालाप में तुलसीदास राजा के मनोरथ को सुंदरबन मानते हैं. सुख सुंदर पक्षियों का समुदाय है, जिसमें भीलनी की तरह कैकई अपनी वचन रूपी भयंकर बाण छोड़ना चाहती है, जंगल एक भयानक चेहरा बन गया था जब सीता ने राम के साथ वन जाने का आग्रह किया तब कौशल्या ने वन का चित्रण करते हुए कहा कि हाथी, सिंह, राक्षस आदि अनेक दुष्ट जीव जंतु , बन में भी चलते रहते हैं रामकथा का उद्देश्य ही कृषि सभ्यता और वन सभ्यता के बीच टूटे हुए संबंधों को स्थापित करना था. इस पड़ाव की पहली कड़ी थी विश्वामित्र का राम लक्ष्मण को वन में ले जाना।
रामकथा के संदर्भ में एक अन्य प्रसंग में भरत, राम को मनाने उन्हें वापस अयोध्या ले जाने के लिए वन में जाते हैं. राह में ऋषि भारद्वाज के आश्रम में भी जाते जब ऋषि भारद्वाज ने भरत को सेना सहित भोजन के लिए आमंत्रित करते हुए पूछा कि भरत आप अपनी सेना को दूर छोड़ कर अकेले क्यों आए हैं? इस प्रश्न के उत्तर में भरत ने कहा कि मुनिवर इस भय से मैं सेना सहित यहां नहीं आया कि राजा अथवा राजपुत्र को तपस्वियों के आश्रम से दूर रहना चाहिए, उसके साथ चलने वाले मनुष्य, घोड़े एवं मतवाले हाथी, विशाल भूमि को घेर कर चलते हैं वे यहां आकर आश्रम के वृक्षों, जल, भूमि एवं कई जड़ी बूटियों, कुटियाओं को हानि ना पहुंचाएं इसलिए मैं अकेला यहां आया हूं। पंचतत्व की जड़ में धरती है। अहिल्या का अर्थ अहिल्या उद्धार “परती धरती” को फिर से हरा भरा बनाने की कथा है अहिल्या का अर्थ होता है वह भूमि जिस पर हम “हल चलाने में असमर्थ हों” अर्थात जहां हल चलाना मुश्किल हो या जिस पर हल ना चल सके.
इंद्र वर्षा के देवता हैं. बिना मौसम बरसात भी उनकी एक आदत है जिसके कारण धरती बर्बाद होती है इन प्रतीकों के संदर्भ में ही इंद्र को श्राप और अहिल्या उद्धार समझा जाना चाहिए। जब इंद्र गौतम पत्नी “अहिल्या “के पास जाते हैं तो कहते हैं कि “हे सुंदरी रति के इच्छुक जन रीतिकाल की प्रतीक्षा नहीं करते” रितु काल के बिना बरसात धरती की दुर्गति ही करती है। प्रतीकात्मक रूप में तुलसी की राम कथा का सारा ताना-बाना पर्यावरण को बचाने के लिए ही रचा गया है। तुलसीदास के पंच तत्व “क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा” ही इस ताने-बाने के आधार हैं। क्षि-ती यानी “पृथ्वी”. सीता का शाब्दिक अर्थ है, हल की लकीर से जन्मी। हल की लकीर से “अनाज “जन्मता है कृषि सभ्यता के प्रतिनिधि रूप में राम ने सीता का वरण किया।
दूसरी ओर अनाज पर निर्भरता के लिए रावण को खेती लायक जमीन की जरूरत थी, बाली से दोस्ती कर पहले ही रावण ने वनोपज का इंतजाम कर रखा था। जंगल की जमीन को कृषि भूमि में बदलना चाहता था इसलिए वह उन सभी को लगातार परेशान कर रहा था जो जंगल में रहकर वन सभ्यता को बनाए और बचाए रखने की कोशिश कर रहे थे। औद्योगिक सभ्यता का प्रतीक महापुरुष रावण भी तो सीता स्वयंवर में उपस्थित था क्योंकि वह जानता था कि औद्योगिक संस्कृति के लिए हल की लकीर से जन्मी “अन्न रूपी सीता” की आवश्यकता है। रामायण कालीन समाज की पहली आवश्यकता हो गई थी कृषि और वन सभ्यता की एकता और इसलिए रचा गया राम वन वास का प्रसंग जहां कौशल्या ने राम को आशीर्वाद देते हुए कामना की थी कि, “पितु वन देव मातु वन देवी”। गोस्वामी तुलसीदास ने पर्यावरणीय परिवार को कितना महत्व दिया था यह सीता के उन वचनों से मिलता जब वे राम के साथ वन जाने के लिए वनों के सुखों का बखान करती हैं। गोस्वामी तुलसीदास प्रकृति के असमान्य व्यवहार से भी मनुष्य के विकृत व्यवहार से तुलना करने में भी नहीं चूकते।
किष्किंधा कांड में वर्षा ऋतु के वर्णन में जहां एक और बादल पृथ्वी के समीप आकर बरस रहे हैं जैसे विद्या पाकर विद्वान नम्र हो जाते हैं ,वहीं दूसरी ओर बूंदों की चोट पर पर्वत कैसे सहते हैं: “बूंद आघात सहहि गिरी कैसे ,खल के बचन संत सह जैसे”. वे सामाजिक विकृतियों को भी उद्घ्रत करते हैं। कृषि सभ्यता और वन सभ्यता की एकता के सामने लोभ लिप्सा से ओतप्रोत औद्योगिक सभ्यता को पराजित होना ही था। सीता को रावण ने अशोक वाटिका में रखा, सोने की लंका में यहीं एक हरियाली थी जिसे रावण के महलों में कैद नहीं किया जा सकता था। “वन सभ्यता के लोग हरियाली नष्ट नहीं करते “इसलिए हनुमान ने अशोक वाटिका को छोड़कर लंका जला डाली। सुषेण वैद्य ने लक्ष्मण को नाक से सुनने योग्य महान औषधि जिसे संजीवनी बूटी कहा गया जिसकी गंध सूंघकर मूर्छित लक्ष्मण फिर सेअच्छे हो गए थे तुलसीदास ने उसे संजीवनी बूटी का नाम दिया ,हनुमानजी अति विनीत भाव से औषधि संजीवनी बूटी से प्रार्थना कर के पर्वत सहित उठा कर लाए थे जिसे उपयोग के बाद यथास्थान पर पहुंचा भी आए थे यही कृषि और ऋषि परम थी।
आज की उपभोक्ता संस्कृति प्रकृति का क्रूरतम ढंग से विदोहन करती है। रावण ने प्रकृति के पंच तत्वों को कैद कर रखा था उनकी मुक्ति के लिए किसी राम की आवश्यकता थी जो “कृषि सभ्यता” और “वन सभ्यता” की एकता को मजबूत करते हुए पूंजीवादी तत्वों से धरती की बेटी “सीता “के समेत अन्य पर्यावरणीय तत्वों को मुक्ति दिला सके। प्रकृति द्वारा स्वतः एवं स्वाभाविक रूप से प्रदर्शित उपहारों का प्रकृति के प्रति आत्मीयता या कृतज्ञता रखते हुए उपभोग करना ही रामराज्य का आदर्श है। रामराज्य में प्रकृति से मानव का अद्भुत सामंजस्य था देखिए:
सरिता सकल बहही बर बारी, शीतल अमल स्वाद सुखकारी। फूलहि फलहि सदा तरु कानन , रहहि एक संग जग पंचानन। खग, मृग सहज बयरू बिसराई ,सबही परस्पर प्रीति बढ़ाई। कूजहि खग मृग नाना वृंदा, अभय चरहि, वन करही अनंदा। शीतल सुरभि पवन बह मंदा, गुंजत अलि ले चली मकरंदा। लता विटप मांगे मधु चवही, मनभावतो धनु पय स्त्रवही। बिधु महि पूर मयुखनहीं ।रवि जप जेतन्ही काज. मांगे बारिद देही जल रामचंद्र के राज।।
वृक्ष धरती के सिंगार कहलाते हैं देखिए किस तरह अयोध्या नगरी और जनकपुरी में वृक्ष थे.
पुर शोभा कछु बरनी न जाई, बाहर नगर परम रुचि राई। देखत पुरी अखिल अघ भागा, वन उपवन वाटिका तड़ागा। सुमन वाटिका सबही लगाई,विविध भांति कर जतन बनाई। लता ललित बहु जाति सुहाई , फूलहि सदा बसंत की नाई। सफल रसाल पूग फल केरा, रोपहु वीथिन्ह पुर चहु ओरा ।तुलसी तरुवर विविध सुहाए, कहूं कहूं सिय, कहूं लखन लगाए। सफल, पूग फल कदलि रसाला, रोपे बकुल कदंब तमाला।
समावेशी विकास में प्रकृति को बगैर क्षति पहुंचाए प्रकृति के उपभोग की बात कही गई है, देखिए तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में कितने सुंदर ढंग से वृक्ष के फल खाने को कहा लेकिन वृक्ष काटने को अपराध कहा है:
रीझि खीझी गुरुदेव सिख,सखा सुसाहित साधु। तोरी खाहु फल होह भलू,तरु काटे अपराध।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम प्रकृति और पर्यावरण के कितने बड़े संरक्षक हैं पुस्प वाटिका प्रसंग में बगैर माली गणों के अनुमति के पुष्प तक नही तोड़ते : बागु तडाकू विलोकि प्रभु हर्षे बंधु समेत । परमु रम्य आरामु यहु जो रामही सुख देत।। चहु दिसि चितई पूंछी मालिगन ।लगे लेन दल फूल मुदित मन।
आज उदारीकरण, वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में विकाश से मुंह भी नही मोड़ा जा सकता है. जिससे पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है. तब एक आम जन का क्या कर्तव्य बनता है, आज विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर राम और रामराज्य को आदर्श मानने वाले सब महात्मा गण वृक्षारोपण की सौगंध लें क्योंकि अमृत दान कर खुद विषपान, वृक्ष स्वयं शंकर भगवान। वृक्षारोपण के कार्य महान।एक वृक्ष दस पुत्र समान।।