अब चड्ढी पहन के फूल नहीं खिलते!
सांची कहै ता/जयराम शुक्ल
..जंगल जंगल बात चली है पता चला है,
अरे चड्ढी पहनके फूल खिला है
फूल खिला है। •गुलजार
लेख: जयराम शुक्ल | हम लोग के जमाने का बचपन क्या मस्त था। न पीठ पर बस्ते का बोझा, न सबक का टेंशन, न ट्यूशन की भागमभाग। माँ-बाप सबकुछ भगवान और स्कूल के मास्साब पर छोड़़ देते थे। वास्तव में भगवान् तो मास्साब ही हुआ करते थे। चाहे बचा दें, चाहे सजा दे। आखिरी फैसला उन्हीं का। कुछ गलती की तो घर में आकर भी पीट जाया करते थे।
अब तो मास्साबों को पढाने के साथ कानून की किताबें भी पढनी पड़ती हैं कि बच्चों के जरिये वे किस-किस आयोग में फँसाए जा सकते हैं। सच पूछिये तो न वे मास्साब रहे न वे बच्चे। मास्साब अब सर्विस प्रोवाइडर हैं और बच्चे विद्यार्थी नहीं, क्लाइंट। अभिभावकों को को हर हाल में रिजल्ट चाहिए, हंड्रेड में हंड्रेड। इससे नीचे नहीं। बच्चे इसी हंड्रेड के चक्कर में रोबट बन गए।
मौज,मस्ती,खेलकूद,शैतानी सब गायब। पैदा होते ही सीधे सयानों सा चैलेंज।
हम लोगों को जमकर छुट्टियाँ मिला करती थी। दो महीने की गरमी की एक महीने की फसली छुट्टी। ये छुट्टियां बड़े काम की हुआ करती थी। जो सबक हम स्कूलों में नहीं सीख पाते थे वे इन छुट्टियों में सीखते थे। गर्मी की छुट्टी के क्या कहने। हम शहर के भीड़भाड़, मोहल्ले की चखचख से दूर अपने गाँव पहुँचते थे। खूब न्योता-बरात और उससे फुरसत हुए तो आम के बगीचे में मस्ती की पाठशाला।
न्योता, बारात हमें रिश्तों से परिचय कराते थे। कौन क्या?भैय्या, भौजी, काकी, कक्कू, ताई, ताऊ, फूफा, मामा, से लेकर जितने भी हो सकते हैं। ये रिश्ते सिर्फ सग्गों तक ही सीमित नहीं था। जो खेत में काम करते थे, बनिहार, हरवाह और भी सभी मजदूर,सभी के सब रिश्तेदार। मजाल क्या कभी भूल से कोई बच्चा किसी का नाम ले ले। इस गलती पर कितनों की चर्सियाँ घर में नहीं खैंची जाती थीं। अब तो मामा, फूफा, चाचा सभी अंकल हैं। रिश्तों की यह अंकल-अंटी की आंग्ल संस्कृति है जो हम इलीट क्लास वालों ने अपने बच्चों को ओढा दी है।
आम के बगीचों में लगने वाली मस्ती की पाठशाला में हम लोग वो सब दुनियादारी सीखते थे ज़ो स्कूलों में नहीं सिखाई जाती। अच्छी भी, बुरी भी लेकिन चेक और बैलेंस बनाए रखने के लिए कोई न कोई बड़ा भाई भी हुआ करता था। जो यह ताके बैठा रहता था कि कोई गलती करे और उसकी पनही चले। एक बार हमलोग बीडी पीते पकड़े गए। जमके पिटाई हुई.. मामला बगीचे में दफन हो गया, घर तक नहीं पहुंचा। तब कोई दूसरी तीसरी कक्षा में पढते थे..चूंकि गांव में रिश्ते के कक्कू बीड़ी पीते थे और नाक से धुआं निकालने का करतब दिखाते थे। हम लोगों ने चुपके से उनकी कट्टी से निकाला फिर ट्राई मारने लगे। पिटाई के बाद पता चला कि ये बुरी बात है। बच्चों को ये नहीं करना चाहिए।
बच्चों को क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए ये सब इन्हीं दिनों सीखते थे, बगीचे की मस्ती की पाठशाला में। तरह तरह के खेलकूद, पैतरे सबकुछ बिना किसी कोच के सीखते थे। दूसरे बगीचे के बच्चों से अदावत भी रहती थी उनसे कैसे निपटना है इसका भी हुनर सीख लेते थे।
हममें से कोई लीडर भी निकल आता था। खेलकूद में जब कभी चोंट चपेट लग जाए तो फर्स्ट एड होता था..कोई उस चोट में शू शू कर दे। वहीं कोई घमिरा की पत्तियां पीस के लगा देता, कोई पट्टी बाँध देता। नब्बे फीसदी मामले हम लोग वहीं निपटा लेते थे। इन छोटे छोटे कामों से जो साहस व आत्मनिर्भरता आती है वह न तो घर में न ही स्कूल में सिखाई जा सकती।
हम बच्चों के उड़ने के लिए सारा आकाश था और दौड़ने के लिए समूची धरती। आप विश्वास नहीं करेंगे हम लोगों ने गांव के नालों में तैरना सीखा। बडे़.. सुओमोटो ..ही छोटों को वो सब सिखा दिया करते थे जो वे सीख चुके होते थे। हमारे गाँव के नाले से तैराकी शुरू करने वाले कई तो राष्ट्रीय खिलाड़ी हुए। एक तो तैराकी के अर्जुन अवार्ड तक पहुंचे। कौन किस खेल के लायक है यह वहीं तय होता था। इसी मस्ती की पाठशाला से निकलकर एक कबड्डी की व एक वाँलीवाल की राष्ट्रीय टीम तक जा पहुंचे।
एक दूसरी भी पाठशाला हुआ करती थी। घर में दादी की और ननिहाल में नानी की। कई व्यवहारिक ज्ञान, शिक्षाप्रद किस्से, गीत कहावतें, धरम-करम, पाप-पुण्य की बातें यहां सीखने को मिलती थीं। यह ज्ञान की वाचिक परंपरा सदियों से चलती चली आ रही है।
यह किस्से में ही सुना था कि फलाँ नदी का पुल नहीं बन रहा था तो वहां एक मनुष्य की बलि दी गई तब काम आगे बढा। ये किस्सागोई की बात हो सकती है। हकीकत यही है कि विकास मनुष्यों की बलि चाहता है। हर विकास की इमारत शोषण की बुनियाद पर ही खड़ी होती है। सल्तनतें गरीबों की लूटी हुई दौलत से बनती हैं। जहां ज्यादा अमीरी हो समझिए कहीँ न कहीं उसी अनुपात में गरीबी होगी।
देश की भौतिक तरक्की ने हमारे बचपन की बलि ली है। एक एक करके हमने बचपन की चंचलता और चपलता को लिजलिजे स्वरूप में बदल दिया। बच्चों की चिंता करने वाले विकास संवाद के सचिन जैन से मैंने पूछा…बताएं हमने बचपन से क्या क्या छीना है..वे पलटकर बोले ये पूछिए कि हमने क्या नहीं छीना..। हमने उनसे आँगन छीन लिया जो उनका पहला कुरुक्षेत्र हुआ करता था। संयुक्त परिवार बिखरे कि आँगन मर गया। हम विकास की भागदौड़ में एकाकी हो गए।
हमने बचपन से चाची, ताई, बुआ की लोरी छीन ली, दादी माँ के किस्से छीन लिए, नानी के नुस्खे हडप लिए। हमने गरमी-फसली छुट्टी की वो आब ओ हवा छीन ली। पारंपरिक खेल गायब किए,उस कौशल का गला घोट दिया जो उनके डीएनए में था। हमने समाज की साझी संस्कृति का सत्यानाश कर दिया जहां एक निर्बल भी इज्जत से जी सकता था। हमने उनसे बचपन का साहित्य और चपलता की लय को छीन लिया।
विकास, विकास और विकास की गलाकाट दौड़ में बचपन को भी दौड़ा दिया…कि हंन्ड्रेड परसेंट के नीचे क्षम्य नहीं। बचपन के पीठ में बौझा लाद दिया..फिर सीटी मारी कि दौड़ो अब। बचपन को आकाश में उड़ने से पहले उसके पंख काट दिए। गुड्डे गुड़िया छीनकर थमा दी प्लास्टिक की मशीन गन। एंड्रॉयड फोन थमाकर दुनिया की नंगी सँडाध का दरवाजा खोल दिया।
टीवी चौनलों की चीखपुकार धमकी भभकी के बीच उसके कोरे स्लेट से दिमाग को खोल के रख दिया। ग्रोथरेट सिर्फ़ तरक्की भर की ही नहीं होती,विनाश और विकृति की भी होती है। इसके भी नापने का मीटर बनाइए। सबकुछ मुट्ठी से रेत की तरह फिसलता जा रहा है।
वक्त की फिसलपट्टी से कोई एक बार फिसला कि गया। वह उठने लायक नहीं बचता। हम रफ्तार के साथ भाग रहे हैं। शर्त थी कि सबकुछ साथ रहेगा। इस आपाधापी में क्या क्या नहीं छोड़के भागे जा रहे हम..उस बचपन को भी जो कभी चड्ढी पहनकर फूल की तरह खिला करता था।