कढ़ी पकौड़ी के भोज के साथ होने लगी नागा साधुओं की विदाई

Akharas kadhi-pakauda bhoj: प्रयाग महाकुंभ अब धीरे-धीरे समापन की ओर बढ़ रहा है, वैसे तो औपचारिक रूप से महाकुंभ पर्व का समापन महाशिवरात्रि के स्नान बाद होता है, लेकिन अखाड़ों और उसे जुड़े साधु-सन्यासियों का कुंभ तो केवल बसंत तक ही होता है, कई संन्यासी तो बसंत के तुरंत बाद ही चले गए हैं, कई अभी जा रहें हैं, अखाड़ों का प्रस्थान माघी पूर्णिमा तक पूरी तरह से हो जाता है, लेकिन बिदाई के पहले अखाड़ों में एक बहुत ही दिलचस्प परंपरा होती है, कढ़ी पकौड़ी भोज की परंपरा, जो अखाड़ों के साधु संत मिल कर करते हैं।

अखाड़ों का कढ़ी पकौड़ा भोज

कुंभपर्व में मुख्यतः पाँच शाही स्नान होते हैं, इस महाकुंभ के प्रमुख तीन शाही स्नान हो चुके हैं और इसके साथ ही महाकुंभ से अखाड़ों और उनके संन्यासियों की अब चला-चली की बेला भी आ गई है। अखाड़े और उनके साधु केवल प्रारंभ के 3 शाही स्नान ही करते हैं, जिन्हें अमृत स्नान भी कहा जाता है, उनके लिए यही प्रारंभ के स्नान ही महत्वपूर्ण होते हैं, बाकि माघी पूर्णिमा और महाशिवरात्रि के दो शाही स्नान सामान्य लोगों के लिए होते हैं, साधु संतो और अखाड़ों के लिए नहीं। इसीलिए अखाड़े और साधु-सन्यासी अब धीरे-धीरे प्रस्थान करने लगे हैं। लेकिन कुंभस्थल से बिदाई से पहले अखाड़ों में ‘कढ़ी-पकौड़ी’ के भोज का आयोजन होता है, जिसमें कढ़ी-पकौड़ा और चावल का भोज सब सन्यासी मिलकर करते हैं, और फिर उसके बाद बिदाई होती है, इन साधुओं के बीच हंसी मज़ाक में कहा भी जाता है “कढ़ी पकौड़ी बेसन का, रास्ता पकड़ो स्टेशन का”, जहां कुंभपर्व में अखाड़ों की पेशवाई का आगाज दही, घी और खिचड़ी के भोज के साथ होता है, वहीं समापन कढ़ी-पकौड़ी भोज के आयोजन के साथ, यह क्षण अखाड़ों के साधु-सन्यासियों के लिए बहुत ही भावुक करने वाला होता है, क्योंकि यहाँ के बाद अब कब मिलेंगे, ये कुछ भी निश्चित नहीं होता है। इसके साथ ही अखाड़ों की धर्मध्वजा की डोर भी ढीली कर दी जाती है। हालांकि मेलास्थल पर उनकी धर्मध्वजा महाशिवरात्रि तक फहराती रहती है, और मेला का प्रभारी सन्यासी, उसके साथ रहता है।

परंपरा अनुसार सभी 13 अखाड़ों में कढ़ी-भात के कार्यक्रम का आयोजन बसंत के दूसरे दिन से ही प्रारंभ होने लगते हैं, जिसके बाद अखाड़ों के साधु-संन्यासी धीरे-धीरे कुंभ से प्रस्थान करने लगते हैं, माघी पूर्णिमा तक सभी अखाड़े वहाँ से प्रस्थान कर जाएंगे। लेकिन इसके बाद भी उनका पर्व अभी खत्म नहीं होता है।

शैव अखाड़ों का काशी प्रस्थान


दरसल कुंभ के बाद सभी सात शैव अखाड़ों के संन्यासी काशी के प्रवास पर चले जाते हैं, वहां वह महाशिवरात्रि तक रहते हैं, वहां भी नियमानुसार सभी अखाड़ों की पेशवाई निकलती है, यहाँ पेशवाई कुंभ से थोड़ी अलग तरीके से होती है, जूना सहित चार अखाड़ों के मुख्यालय भी यहाँ स्थित हैं, जबकि बाकी अखाड़ों के केंद्र हैं, जहाँ कुंभ में सभी अखाड़ों की पेशवाई आगे-पीछे एक साथ निकलती है, तो वहीं काशी में आवाहन और जूना अखाड़े की पेशवाई अलग-अलग निकलती है, आवाहन अखाड़े की पेशवाई जहाँ कबीर चौरा आश्रम से, तो वहीं जूना अखाड़े की पेशवाई कमच्छा स्थित जपेश्वर महादेव अखाड़े से निकलती है। पेशवाई में दही, घी और खिचड़ी का भोज होता है। अटल अखाड़ा की पेशवाई अलग से नहीं निकलती है, बल्कि ये महानिर्वाणी अखाड़े के साथ ही मिल जाते हैं। और इन दोनों अखाड़ों की पेशवाई महाशिवरात्रि से पहले ही निकल जाती है, जबकि आनंद और निरंजनी अखाड़े की पेशवाई काशी में नहीं निकलती है।

बाकी बचे तीन अखाड़ों आवाहन, अग्नि और जूना की पेशवाई परंपरा के अनुसार महाशिवरात्रि के अवसर पर निकलती है, हनुमानघाट से लेकर काशी विश्वनाथ मंदिर तक शैव नागा साधुओं की भस्म-अभिषेक यात्रा निकलती है, पेशवाई में घोड़े और रथों पर सवार आचार्यों, मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, थानापति इत्यादि पदानुसार नागा साधु भभूत, रुद्राक्ष इत्यादि धारण करके और अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर निकलते हैं, उसके बाद ये शैव दिगंबर नागा साधु काशी में सुप्रसिद्ध मसाने की होली खेलते हैं, गंगा स्नान करते हैं, भूतपति विश्वनाथ शिव से सनातन धर्म की उन्नति और देश कल्याण की कामना करते हैं और फिर इसके बाद ये अपने-अपने अखाड़ों और केंद्रों में वापस चले जाते हैं।

वैष्णव अखाड़ों का प्रस्थान

इसी तरह वैष्णव संप्रदाय के तीन अखाड़ों के बैरागी भी अयोध्या और मथुरा चले जाते हैं, फिर वहाँ वे लोग भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के साथ होली खेलते हैं, और फिर वहां से वे अपने-अपने स्थानों को वापस लौट जाते हैं। वैष्णव अखाड़ों में से दिगंबर अणि अखाड़ों के बहुत से साधु-संत त्रिजटा स्नान के बाद प्रस्थान करते हैं, त्रिजटा स्नान का शुभ मुहूर्त फाल्गुन मास की तृतीया को होता है।
इसी तरह बचे हुए तीन उदासीन संप्रदाय के अखाड़ों के साधु भी होली के उत्सव के लिए आनंदपुर साहिब चले जाते हैं, और वहां से फिर अपने केंद्रों और आश्रमों में वापस लौट जाते हैं। इसके साथ ही अखाड़ों और इनसे जुड़े सन्यासियों के कुंभपर्व का समापन हो जाता है।

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