कैसे माने गए मो.रफ़ी के उत्तराधिकारी मो.अज़ीज़ !

मोहम्मद अज़ीज़ कैसे बने मोहम्मद रफ़ी के उत्तराधिकारी – गायकी और सफ़र की कहानी

Death Anniversary Of Mohammad Aziz : फिल्म जगत में उस वक्त बड़ी मायूसी छा गई थी, जब मो.रफी साहब गुज़र गए, फिल्म निर्माता, निर्देशक परेशान थे, कि अब मो .रफ़ी जैसा गायक कहाँ से लाएँ जिसकी आवाज़ भी हर दिल अज़ीज़ लगे। ऐसे में हिंदी के अलावा कुछ क्षेत्रीय बोलियों में यहाँ तक कि भगवान जगन्नाथ के भजनों में भी एक बड़ी दिलकश आवाज़ सुनाई दी, जिसके पीछे जाने पर मालूम हुआ कि ये मो. अज़ीज़ हैं, जो इन फिल्मों के अलावा ज़्यादातर रेस्तरां में गाते हैं और बचपन से ही संगीत से जुड़े हैं ,ये जानकार संगीत निर्देशक सपन-जगमोहन उन्हें हिंदी फिल्मों में गाने के लिए ढूंढ कर ले आए और उनसे गवाए 1984 की बॉलीवुड फिल्म ‘अंबर’ के गाने। फिर ,मोहम्मद मोहसिन द्वारा निर्देशित 1985 की ‘जगा हटारे पघा’ नाम की ओडिया फिल्म में, ‘रूपा सस्ती रे सुना कनिया’ गीत की गूँज सुनाई दी, जिसने हर संगीत प्रेमी को ये सोचने पे मजबूर कर दिया, कि ये दमदार आवाज़ किसकी है।

रीजनल सिनेमा से की शुरुआत :-

मोहम्मद अज़ीज़ ने कोलकाता में थोड़ा बहोत गाना सीखा था और बचपन से ही सबके बीच गाना सुनाने के भी शौकीन थे तो ऐसे ही शौकिया रेस्टोरेंट में भी गाना गाने लगे ,यहाँ मोहम्मद रफी के गाने गाकर वो सबका दिल बहलाते और अपने सुरों को मो . रफ़ी जैसा पक्का करने की कोशिश करते। रेस्टोरेंट ‘ग़ालिब ’ में उन्हें गाते हुए निर्माता असीस रे ने भी सुना और 1988 की बंगाली फिल्म ‘ज्योति ‘में गाने का मौका दिया। ‘मोहम्मद अज़ीज़ ने ओडिया संगीतकार राधा कृष्ण भांजा की ‘मानिनी’ नाम की ओडिया फिल्म में गीत गाए तो वहीं ओलिवुड अभिनेता सिद्धांत महापात्रा के लिए सबसे ज़्यादा गाने गाए हैं। बंगाली फिल्मों से नाता बरक़रार था तो 1986 की बंगाली फिल्म ‘बौमा’ में भी आपने गीत गाया लेकिन जब हिंदी फिल्मीं गीतों में उनकी आवाज़ सुनाई दी तो इतनी पसंद की गई कि उन्हें मोहम्मद रफी की गायिकी का उत्तराधिकारी माना गया।

मर्फी का मुन्ना लगते थे गाना सुनते वक़्त :-

2 जुलाई 1954 को कलकत्ता, पश्चिम बंगाल के गुमा में पैदा हुए सईद मोहम्मद अज़ीज़-उन-नबी, जब छोटे थे तबसे रेडियो पर गाने सुना करते थे, ख़ासकर मो .रफ़ी को तो वो ऐसा सुना करते थे कि उन्हें देखकर लगता कि मर्फी रेडियो के ऐड में दिखने वाला गुड्डा या बच्चा बैठा हो और ये तल्लीनता उनमें जब ही दिखती जब रेडिओ पर मो .रफ़ी का कोई गाना बजता था। उन दिनों मर्फी रेडियो बड़ा मशहूर था इसलिए उन्हें ऐसा बैठा देखकर सब प्यार से उन्हें मुन्ना कहकर बुलाने लगे। यहाँ तक कि जब वो फिल्मों में गाने लगे तो कुछ गानों के क्रेडिट में उनका नाम मुन्ना अज़ीज़ भी लिखा गया। धीरे -धीरे वो सबके चहीते गायक बनते हुए वो मोहम्मद अज़ीज़ हुए और उनका गीत ‘मर्द टांगे वाला ‘ लोगों के दिलों में बस गया। मो. अज़ीज़ बहुभाषी पार्श्व गायक थे, जिन्होंने बॉलीवुड, ओडिया फिल्मों, बंगाली फिल्मों के लिए तो गाने गाए ही। इसके अलावा दस से अधिक विभिन्न भारतीय भाषाओं में भजन, सूफी भक्ति गीत सहित लगभग बीस हज़ार गीत गाए।

अनु मालिक के गाने से चमकी क़िस्मत :-

हिंदी फिल्म ‘अम्बर’ में गाने के बाद मोहम्मद अज़ीज़ की मुलाकात संगीतकार अनु मलिक से हुई, जो खुद भी उस वक़्त नये थे फिल्म उद्योग में पर उन्होंने मो.अज़ीज़ की आवाज़ को परख लिया और 1985 की अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘मर्द’ में “मर्द तांगेवाला…” गाना गाने को दिया और इस गाने के सुपरहिट होने से आपको कई हिट गाने मिले जिनमें’ जान की बाज़ी ‘ गीत आज भी एक अलग पहचान रखता है। इस गाने के बाद से तो उनका नाम पूरे हिंदी सिनेमा में फैल गया और फिर उन्होंने गोविंदा, ऋषि कपूर,  सनी देओल, और अनिल कपूर जैसे कई बड़े अभिनेताओं को अपनी आवाज़ दी तो वहीं लता मंगेशकर, आशा भोंसले और अनुराधा पौडवाल जैसी बेहतरीन गायिकाओं के साथ युगल गीत गाए।  

लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने पहचानी ख़ूबी :-

यूँ तो मो .अज़ीज़ ने उस वक़्त के क़रीब-क़रीब सभी संगीतकारों के निर्देशन में गीत गाए पर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए शायद 250 से भी ज़्यादा गाने गाए और उन्होंने ही अज़ीज़ साहब की इस ख़ूबी को पहचाना कि उनका रेंज बहोत ज़्यादा है जिससे वो ‘सातवें सुर’ में भी गा सकते हैं फिर एस. चंद्रशेखर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘आज़ाद देश के ग़ुलाम ‘ में गीत ‘सारे शिकवे गिले भुला के कहो’ सातवें सुर में गवाया और गीत सुपरहिट हो गया जिसके बाद उनके फ़िल्मी सफर में ‘खुदा गवाह’, ‘राम लखन’, ‘नगीना’, ‘स्वर्ग’, ‘अमृत’ जैसी हिट फिल्मों के एक से बढ़कर एक हिट गीत शामिल हुए।

गुरु को श्रद्धांजलि देने का मौका भी आया :-

मो.अज़ीज़ के इन नग़्मों के दिलनशीं कारवाँ के बीच एक वक्त, वो भी आया जब उन्होंने अपने गुरु ,मो. रफ़ी जी को श्रद्धांजलि दी ,जी हाँ वो मो . रफ़ी साहब को अपना गुरु मानते थे और उनसे बिना मिले भी उनके गीत सुनकर गायिकी के गुर सीखते थे। एक दिन मो. रफ़ी साहब के लिए आनन्द बख्शी ने 1990 की फिल्म ‘क्रोध’ में श्रद्धांजलि स्वरूप गीत लिखा। “न फनकार तुझसा, तेरे बाद आया, मो. रफ़ी “तू बहोत याद आया”, और मो. अज़ीज़ साहब को गाने के लिए दिया, जिसे मो .अज़ीज़ ने इस तरह गाया कि ये गीत संगीत प्रेमियों के दिलों के आज भी क़रीब है। उनके अलग अंदाज़ में कुछ युगल गीत भी आज भी हमारे ज़हेन-ओ-जिया पे सवार हैं। जैसे:- “बहुत जताते हो प्यार हमसे … “अलका याग्निक के साथ, “तू मुझे क़ुबूल…”, “कविता कृष्णमूर्ति के साथ…”, ” मय से मीना से न साक़ी से दिल बहलता है मेरा आपके आ जाने से…”, साधना सरगम के साथ-“लाल दुपट्टा मलमल का”, “ये जीवन जितनी बार मिले…”, अलका याग्निक के साथ, “मैने दिल का हुकम सुन लिया..” अलका याग्निक और कविता जी के साथ।

कितने प्रतिशत गायकी बेस्ट सिंगर बना सकती है :-

यूँ तो मोहम्मद रफी साहब हम सबके चहीते गायक थे जिन्हें क़रीब-क़रीब हर सिंगर फॉलो भी करता है लेकिन उनकी गायकी को बड़ी शिद्दत से दिल में उतार कर उन्हीं के नक़्श-ए-क़दम पर चलने वाले मोहम्मद अज़ीज़ ने इतना हूबहू गाने की कोशिश करने के बाद भी एक मापदंड तैयार किया था वो कहते थे कि “मुझे लगता है कि अगर कोई मोहम्मद रफी जैसा पांच प्रतिशत भी गाने के लायक़ हो जाता है तो मै उसे देश का बेस्ट सिंगर मान लेता। मै आज जो भी बन पाया हूँ वो मेरे गुरु मोहम्मद रफी साहब की वजह से ही बन पाया हूँ। ”

किस दशक में चला आपका जादू :-

मोहम्मद अज़ीज़ जी ने क़रीब 20 हजार से भी ज्यादा गाने गाए। 80 और 90 के दशक में उनकी आवाज़ का माद्दा और मुख्तलिफ़ गायकी का अंदाज़ आज भी उतना ही पुर कशिश है जितना कल था। उनकी आखिरी फिल्म ‘काफिला’ थी। इससे पहले, उन्होंने फिल्म ‘करण-अर्जुन’ के लिए गाया था। मो. अज़ीज़ ने, ‘आप के आ जा ने से. ..’, ‘इमली का बूटा बेरी का पेड़…’, ‘काग़ज़ क़लम दवात ला…’, ‘दिल दिया है जां भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए. …’, ‘मेरे दो अनमोल रतन…’, ‘माई नेम इज़ लखन. ..’,  और ‘तुझे रब ने बनाया होगा…,’ जैसे कई कालजयी गीत गाए हैं ।

गुरु की राह पर ही चलते रहे :-

आपने 1997 के टीवी धारावाहिक, जय हनुमान में भी गीत गए इसके अलावा, भारत और अन्य देशों में स्टेज शो भी करते रहे, इसी तरह अपना सफर तय करते हुए, मो.अज़ीज़ अपनी मंज़िल ए मक़सूद की आग़ोश में, 27 नवंबर 2018 को 64 वर्ष की उम्र में हृदय गति रुक जाने के बहाने से, यूं तो खुदा के पास चले गए, पर हमारे लिए उन्हें भूल पाना आसान नहीं है। वो अपनी दिलनशीं आवाज़ में पिरोए नग़्मों के ज़रिए हमेशा जावेदांँ रहेंगे। उन्होंने अपने गुरु की तरह ही बड़ी सादगी से ज़िंदगी गुज़ारी, दुनिया से जाने का भी एक ही बहाना भी था दोनों के पास, डायबिटीज और दिल का दौरा।

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