पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में आज हम आपके लिए लेकर आए हैं , कृषि आश्रित समाज में उपयोग वाले धातु के बर्तन।(64वी किस्त)
कल हमने पीतल के लोटा,गंजा एवं डोलची आदि धातु शिल्पियों के बनाए बर्तनों की जानकारी दी थी । आज उसी श्रंखला में अन्य बर्तनों की जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं।
कोपरी
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खेती किसानी से जुड़े कृषि आश्रित समाज में धातु शल्पियों के बनाए कई तरह के बर्तन उपयोग में लाये जाते थे जिनमें एक बर्तन यह पीतल की कोपरी भी थी। इसकी बनावट परांत की तरह ही होती है पर आकार में उससे काफी छोटी रहती है। प्राचीन समय में इसका प्रमुख उपयोग आटा माड़ने में था ही चावल का धोमन धोने ,माड़ पसाने, सब्जी को काटकर रखने में तो था ही ,यहां तक कि रिस्तेदारों के आने पर उनके पैर धोने तक में यह काम आती थी।
यद्दपि उपयोग तो अब भी है लेकिन बहुत कमी आ गई है। इसलिए वह दिन दूर नही जब यह पूर्णतः पुरावस्तु का रूप ग्रहण करले। क्योकि स्टील के यूज एण्ड थ्रो बर्तन इसका स्थान भी लेते जा रहे हैं।
पीतल की बड़ी डोलची (डोंगा )
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यह पीतल का डोंगा है जिसमें बारात आदि में भुजंगी से निकाल कर दाल परोसी जाती थी। इसमें बाल्टी जैसा ही कड़ा भी लगा रहता था अस्तु यह उस समय बारात के भोजन परोसने का महत्वपूर्ण बर्तन माना जाता था। बस इसमें दाल भर कर बांए हाथ से इसे उठा लिया जाता और दांए हाथ से भुजंगी से उसे निकाल- पत्तल में पड़े चावल के ऊपर डालते जाते।
वह ऐसा जमाना था जब टेंट हाउस आदि नही होते थे जहां से किराए पर सामान मिल सके। अस्तु हर एक गाँव में ही कुछ ऐसे सम्पन्न किसान होते जो जन सेवा की भावना से हांडा ,बटुआ, कड़ाहा और यह डोंगा आदि रखते एवं गाँव के छोटे किसानों य अन्य लोगों को बगैर किराया लिए उपलब्ध कराना एक पुण्य का काम समझते।
उन दिनों तमाम उपयोगी वस्तुओं का रखना और जरूरत मन्द लोगों को उपलब्ध कराना उनके गरिमा एवं सम्मान से जुड़ा था। पर समय ने ऐसा चक्र चलाया कि आज यह सब चलन से बाहर हैं और अन्य वर्तनों के साथ यह भी पुरावशेष बन गए ।
बटुइया (बटलोही )
बटलोही को हमारे बघेली में (बटुइया) भी कहा जाता है। क्यो कि यह बटुआ से बहुत छोटी होती है। हजारों वर्षों से जो हमारा पित्र सत्तात्मक समाज चला आ रहा है उसमें हर बड़ी वस्तु को पुरुष बाचक और छोटी वस्तु को स्त्री बाचक नजरिये से ही देखा जाता है तो यह (बटुआ बटुइया ) ही उससे भला कैसे बच सकते थे?
बटुआ जहां चावल रांधने के काम आता था वहीं बटलोही दाल रांधने के। हां परिवार अगर दो- सदस्यीय पति पत्नी का हुआ तो बटलोही में ही चावल भी पक जाता था एवं दाल के लिए तब उससे और छोटी एक पलीती भी काम में आ जाती थी जिसे बघेली में तबेलिया कहा जाता है।
यह दोनों 100 एवं 60 वाले काँसे के एक अलग बटलोही के धातु से ही बनते थे जिसमें 60 और 50 के अनुपात से ताँबा और जत्सा मिलाए जाते थे।उक्त बटलोही के स्थान पर अब हर जगह स्टील का ही उपयोग है। अस्तु बटुआ बटलोही सभी पुरातत्व की वस्तु बन गए हैं।
पीतल का खोरबा
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जिस तरह कांसे के खोरबा (कटोरा) बनते थे तो कुछ पीतल वाले धातु के भी बनाए जाते थे। अन्तर यह था कि कांसे का अनुपात तांबा और जत्सा का 100 और 60 का रहता था पर पीतल में वहीं 100 और40 का हो जाता था।
पीतल के कटोरे का भी उपयोग वही दूध और सब्जी आदि रख कर खाने के काम में था पर इसमें मठ्ठा नही रखा जाता था। क्योकि मठ्ठा दही रखने से वह शीघ्र ही कषैला हो जाता था।
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आज के लिए बस इतना ही कल फिर मिलेंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी में।