रीवा में महाराजा विश्वनाथ सिंह ने 200 साल पहले शुरू की थी न्याय व्यवस्था, ऐसी थी अदालत

रीवा। रीवा में भव्य एवं आधुनिक जिला न्यायायल भवन बनकर तैयार हो गया है। नया न्यायालय भवन प्रदेश का हाईटेक कोर्ट भवनों मेें सुमार है, लेकिन इससे पुरानी कचहरी का ऐतिहासिक महत्त्व कंम नही होगा। राजशाही के वक़्त से लेकर वर्तमान में जिले की न्याय व्यवस्था कोठी कम्पाउंड में बने पुराने भवन में संचालित होती आ रही है। अब नए कोर्ट भवन में रीवा की अदालत लगेगी और न्याय के इस मंदिर में न्याय मिलेगा। लेकिन इसकी जड़ें हमेशा रीवा रियासत के महाराज विश्वनाथ प्रताप सिंह के द्वारा स्थापित की गई मिताक्षरा न्यायालय व धर्मसभा और रीवा के पुराने हाईकोर्ट से जुडी रहेगीं।

1827 में बना था मिताक्षरा न्यायालय व धर्मसभा

राजशाही के दौर में न्याय, राजदरबार में होता था, लेकिन रीवा में पृथक न्यायिक व्यवस्था, रीवा के महाराजा विश्वनाथ प्रताप सिंह ने शुरू की थी। उन्होंने सन 1827 में मिताक्षरा न्यायालय व धर्मसभा स्थापित की थी। पं कृष्णाचारी, गोबिन्दराम शुक्ला और गोकुल नाथ महापात्र की व्यवस्था पर दीवानी और फौजदारी फैसले होते थे। जबकि धर्मसभा के हाकिम, रामनाथ गड़रिहा नियुक्त हुए और कुछ दिन बाद जग्रन्नाथ शास्त्री भी धर्मसभा में शामिल किये गये।

महाराजा को खुद जाना पड़ा था कचहरी

जो उल्लेख मिलते है उसके अनुसार रीवा रियासत की पृथक न्यायिक व्यवस्था इतनी मजबूत बनाई गई थी कि इसकी नीव रखने वाले रीवा के महाराजा विश्वनाथ प्रताप सिंह को खुद भी एक मामले के चलते कचहरी में खड़ा होना पड़ा था। ऐसी जानकारी मिलती है कि रीवा रियासत की पृथक न्याय व्यवस्था के तहत जगन्नाथ शास्त्री की अदालत में रीवा रियासत के युवराज विश्वनाथ प्रताप सिंह के उपर एक प्रजा के ही व्यक्ति ने मामला दायर किया, तात्कालिक युवराज को बाकायदा पक्षकार के रूप में सम्मन जारी किया गया, जिसके बाद कचहरी में विश्वनाथ सिंह हाजिर हुए। शास्त्री जी ने बाकायदा वर्तमान आदेश पत्रिका, जिसे उस वक़्त इजहार कहा जाता था, उसे लिखकर रूकसत किया।

बनाए गए थें ये कानून

रीवा राजशाही में जो लिखित कानून बनाए गए थे, उसमें प्रमुख कानून रीवा राज माल कानून 1935 बना था। 1935 में ही त्यौथर, मउगंज और सिरमौर तहसील में न्यायालय का गठन हुआ साथ ही 1935 में ही रीवा में विधिवत कचहरी की स्थापना की गई थी। जिसके तहत रीवा राज्य में न्याय व्यवस्था शुरू हुई। समय के साथ एक बार फिर रीवा राज्य की न्याय व्यवस्था में बदलाव हुआ यहां हाईकोर्ट स्थापित किया गया।

1948 में बना हाईकोर्ट

देश की आजादी के बाद विंध्य प्रदेश का गठन होने के साथ ही यहां हाईकोर्ट ज्युडिकेटर विंध्य प्रदेश का उद्घाटन 01 सिंतबर 1948 को दोपहर पौनें चार बजे तत्कालीन मुख्य न्यायाधिपति रायबहादुर पी.सी. मोघा ने किया। उस समय न्यायधिपति के रूप में पंचोली चतुर सिंह, दुर्गाप्रसाद, लाल प्रद्युम्न सिंह रहे। 8 साल तक यह न्याय व्यवस्था रीवा राज्य में सुचारू रही, लेकिन फिर यहां की न्याय व्यवस्था में बदलाव आया. सन् 1956 में मध्यप्रदेश के गठन के बाद ही उक्त ज्युडिशियल कमिश्नर का विलय मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में हो गया।

बनाया गया था संघ

रीवा राज्य एवं विंध्य प्रदेश के समय से ही यहां पृथक अधिवक्ता संघ का गठन हुआ था। जो उल्लेख मिलते है उनके तहत बाबू राम मनोहर लाल ने रीवा राज में पृथक अधिवक्ता संघ का गठन किया था. जिसके प्रथम अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने रीवा राज-माल कानून बनाया था। तब न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा एवं न्यायमूर्ति गुरु प्रसन्न सिंह रीवा न्यायिक आयुक्त न्यायालय एवं रीवा अधिवक्ता संघ के सदस्य थे।

रीवा हाईकोर्ट के पहले न्यायाधीश हुए थें लाल शंकर सिंह

रीवा हाईकोर्ट के पहले न्यायाधीश लाल शंकर सिंह थे, लाल यादवेन्द्र सिंह संविधान सभा में सदस्य थे, हरिगोविंद सिंह तब रीवा हाईकोर्ट के जाने माने वकील थे. इस दौरान जस्टिस जीपी सिंह भी जबलपुर हाईकोर्ट में बतौर जज अपनी सेवाएं दे रहे थे जिनके बेटे जस्टिस अजीत सिंह असम हाईकोर्ट में न्यायाधीश रहे है। जस्टिस जेएस वर्मा, जस्टिस जीपी सिंह के जूनियर थे जो बाद में चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया बने. देश विदेश में ख्याति प्राप्त करने वाले रीवा हाईकोर्ट के जजों में जस्टिस जीपी सिंह और पूर्व सीजेआई जेएस वर्मा को आज भी उनकी न्यायप्रियता और विधिक ज्ञान के लिए याद किया जाता है। न्याय विद्रों के द्वारा लिखी गई कई किताबें दुनिया के कई लॉ यूनिवर्सिटीज में पढाई जाती हैं।

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