चुनाव/जयराम शुक्ल: ‘मोदी की गारंटी’ पर भले ही किन्तु -परन्तु लगा लें लेकिन अभय मिश्रा की ‘टिकट की गारंटी’ सौ टंच ही निकलती है। उधर दिल्ली में आलाकमान उम्मीदवारों की सूची को लेकर माथापच्ची कर रहा था इधर पंद्रह दिन पहले ही घोषित हो गया कि रीवा लोकसभा से कांग्रेस की उम्मीदवार नीलम अभय मिश्रा होंगी। अभय आज की राजनीति के सबसे मुफीद और पैंतरेबाज़ रोल-मॉडल हैं। जब जहां चाहते हैं गुल खिला देते हैं। सेमरिया की टिकट को लेकर छह महीने के भीतर इस पाले से उस पाले, उस पाले से इस पाले जंप मारते हुए अंततः टिकट ले आए और जीते भी। ठीकेदार से नेता बने अभय का यह अंदाज रीवा के लोग 2008 से देखते चल रहे हैं।
सेमरिया से विधायक रह चुकीं नीलम मिश्रा का लोकसभा चुनाव में पाला पड़ा है भाजपा के सांसद जनार्दन मिश्र से। मिश्र तीसरी बार चुनाव मैदान में हैं लेकिन नीलम से उनका मुकाबला नया नहीं। नीलम जब विधायक थीं और मिश्रा जी सांसद तब रीवा -सेमरिया में सड़क के कामों की ठीकेदारी को लेकर सड़क पर ही तू-तड़ाक हो चुकी है। इस तू तड़ाक की आवाज भोपाल तक गूंजी और आखिरकार अभय मिश्रा सपत्नीक अपने पुराने घर यानी कि कांग्रेस लौट आए। इस बार कांग्रेस की टिकट मिलने के चार दिन पहले तक वे भाजपा में थे..और उससे एक महीने पहले तक कांग्रेस में। यानी कि रजिस्टर में यह लेखा रखने लायक है कि कब कहां किस दल में रहें और अब आगे कब किस दल में रहेंगे। बहरहाल रीवा का यह मुकाबला है सड़क पर गालियों और तल्खियों के चलते चर्चाओं में रहने वाला है। यहां 26 अप्रैल को वोट पड़ने हैं।
कभी दिल्ली तक गूंजती थी रीवा की राजनीति की धमक
चुनाव के लिहाज से रीवा कोई साधारण सीट नहीं है। वजह यह एक अच्छे खासे प्रदेश की राजधानी रहा। यहां से पंडित नेहरू के बावर्ची शिवदत्त उपाध्याय (57,62) लड़े और जीते तो डा.राममनोहर लोहिया की महिला दोस्त प्रो. रोमा मित्रा(1957 में) सोशलिस्ट पार्टी से लड़ी। विन्ध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पं.शंभूनाथ शुक्ल भी यहां से 1967 में सांसद रहे। लेकिन रीवा लोकसभा सीट ने सुर्खियां तब बटोरी जब 1977 में यमुना शास्त्री ने महाराज मार्तण्ड सिंह को हरा दिया। यह लड़ाई रंक और राजा के बीच वर्णित की गई। विश्लेषकों ने इसे समाजवाद की साम्राज्यवाद पर प्रतीकात्मक विजय लिखा तो शास्त्री जी का नेत्रहीन होना भी खबरों की सुर्खियों में रहा। यद्यपि मार्तण्ड सिंह 71 के चुनाव में रिकॉर्ड तोड़ मतों से जीते थे और 80 व 84 में भी यहां का प्रतिनिधित्व किया।
राजनीति की प्रयोगशाला भी रही लोकसभा की यह सीट..
रीवा अपनी चैतन्य दृष्टि व राजनीतिक समझ की वजह से विभिन्न विचारों की प्रयोग भूमि भी रहा। जेपी, लोहिया, नरेंद्र देव , अशोक मेहता और कृपलानी ने समाजवादी आंदोलन की अगुवाई करके इसे वैश्विक चर्चाओं में रखा। जगदीश चन्द्र जोशी के अमेरिकी राजनायिक मित्र हैरिस बोफोर्ट यहां की समाजवादी चेतना से अत्यंत प्रभावित रहे। 89 तक समाजवादी विन्ध्य की दूसरी बड़ी ताकत रहे। यहां की राजनीतिक उर्वरता को कांशीराम ने गहरे से भांपा और बहुजन समाज की हुंकार भरी। परिणाम यह कि 91के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के पहले सांसद भीम सिंह लोकसभा पहुंचे। इसके बाद भाजपा के उदय के पूर्व तक बसपा यहां निर्णायक बनी रही। बसपा ने यहां से दो और सांसद दिए।
सुंदरलाल तिवारी कांग्रेस के आखिरी सांसद बने जो यहां से 1998 में जीते। चन्द्रमणि त्रिपाठी ने भाजपा का खाता खोला और अब जनार्दन मिश्र लगातार प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
कांग्रेस की पतझड़ और भाजपा का भगवा रथ…
जनार्दन मिश्र ने मुख्यमंत्री मोहन यादव और उपमुख्यमंत्री राजेन्द्र शुक्ल के साथ भाजपा कार्यकर्ताओं की रहनुमाई में भगवा रथ पर सवार होकर जहां पर्चा दाखिल किया वहीं नीलम अभय मिश्रा की पर्चा दाखिली के समानांतर कांग्रेस में पतझड़ सी मची रही। नामांकन कार्यक्रम से रीवा महापौर अजय बाबा नदारद रहे तो। कांग्रेस के दो पूर्व जिलाध्यक्ष त्रियुगीनारायण भगत ने साथियों समेत कांग्रेस छोड़ दी और डा.मुजीब खान ने सैकड़ों के साथ भाजपा ज्वाइन कर ली। नामांकन के इंतजामी जिला कांग्रेस अध्यक्ष राजेंद्र शर्मा रहे। इन्हीं राजेन्द्र शर्मा को लेकर 2018 में अभय मिश्रा ने भितरघात की शिकायत की थी जो संभवतः अब भी कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष की दराज में कहीं न कहीं होगी।
यहां नामांकन भरवाने दिल्ली से भंवर जीतेन्द्र सिंह, चंबल से गोविंद सिंह और चोरहट से अजय सिंह तो रहे ही भोपाल से प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी भी पहुंचे। महापौर अजय मिश्रा बाबा के एक अखबार में छपे इन्टरव्यू की मानें तो रीवा की टिकट पटवारी ने फायनल की। बाबा टिकट से नाराज़ हैं और शायद इसीलिए नामांकन में उनके साथी कांग्रेसी पार्षदों ने भी परहेज़ रखा।
पर एक खास बात और.. जहां सतना में अजय सिंह राहुल समर्थकों ने कांग्रेस से टूटने में झड़ी लगा दी वहीं रीवा में वे सब समर्थक राहुल और अभय मिश्रा के साथ डटे हैं, क्या यह अप्रत्याशित नहीं है?
तिवारी घराने और उनके समर्थकों ने की थी बगावत की शुरुआत!
रीवा में कांग्रेस के दिन उसी समय से लदने शुरू हो गए थे जब श्रीनिवास तिवारी के पौत्र सिद्धार्थ तिवारी ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा ज्वाइन कर ली। सिद्धार्थ अब भी कहते हैं कि उनके पिता सुंदरलाल और पितामह श्री निवास तिवारी की आत्माओं के साथ कांग्रेस खासतौर पर दिग्विजय सिंह ने विश्वासघात किया। सिद्धार्थ के साथ प्रायः तिवारी समर्थक विधानसभा चुनाव में चले गए थे जो बचे वे अब निकल लिए।
डा.मुजीब खान दिग्विजय सिंह और श्रीनिवास तिवारी दोनों के विश्वासपात्र रहे। पार्टी छोड़ने के सवाल पर कहते हैं- कांग्रेस ने जिस व्यक्ति के हाथों टिकट सौंप दी उसका क्या भरोसा..संभव है उसने भाजपा में प्रवेश की अर्जी पहले से लगा रखी हो। जो एक महीने में तीन बार पलट सकता है वह चलते चुनाव में भी पलट सकता है। जाहिर है मुजीब अभय मिश्रा को लेकर यह तंज कसा रहे हैं।
अब भाजपा में शामिल सुरेश पचौरी के नजदीकी रहे प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री ब्रजभूषण शुक्ल पार्टी से दुखी जरूर हैं पर छोड़ना नहीं चाहते। वे कहते है- भाजपा में कांग्रेसियों के लिए सूखे और गीले कचरे के डिब्बे रखें हैं, जिसे वहां जाकर गिरना हो गिरे। अलबत्ता संगठन के इतने बड़े दायित्व निर्वाह करने वाले ब्रजभूषण रीवा में रहकर भी कांग्रेस प्रत्याशी के नामांकन में नहीं गए। फिर भी लोगों का मानना है कि अभय मिश्रा माहौल गर्म करना जानते हैं और इस चुनाव में भी वे ईंट से ईंट बजाएंगे।
भाजपा के जनार्दन में ऐसा क्या कि तीसरी बार भी वही…
रीवा के लोग डूबकर राजनीति जीते हैं। उनके पास यह लेखा है कि यहां से लगातार तीसरी बार कोई भी नहीं चुना गया, रीवा महाराजा भी नहीं। जनार्दन मिश्र को राजेन्द्र शुक्ल की पसंद का उम्मीदवार कहते हैं और वह इसलिए ताकि उनके सामने कोई कंटक न बचे। राजेन्द्र शुक्ल सभाओं में रीवा में हवाई अड्डा और रेल्वे के विस्तार का श्रेय जनार्दन मिश्र को देते हैं। जनार्दन विनीत हैं, सहज हैं, दस बरस से सांसद रहने के बावजूद भी रीवा में उनका अपना घर नहीं। आलोचक उनकी सहजता और सादगी को उनकी कमजोरी मानते हैं।
यहां के लोकप्रिय साहित्यकार चंद्रिका प्रसाद चंन्द्र कहते हैं- जनार्दन में आप नब्बे फीसदी रिमहों की छवि देख सकते हैं। एक प्रतिनिधि को ऐसा ही होना चाहिए जिसमें हम स्वयं के अक्श को देख सकें। वे जनार्दन को परफेक्ट उम्मीदवार करार देते हैं। लेकिन जनार्दन की उस क्रांतिकारी छवि से कम लोग ही परिचित हैं कि वे सोलह वर्ष की उम्र में इमरजेंसी के कैदी रहे। झगड़ाखांड़ (हसदेव बांगो) के कोयला श्रमिकों के लिए लड़ते हुए एक बार दिल्ली में शहडोल सांसद दलबीर सिंह को उन्हीं के बंगले में नजरबंद कर लिया था। जनार्दन आज भी खुद को यमुना शास्त्री का चेला कहते हैं और भाजपा में मोदी का भक्त।
और अंत में
चोर चौतरा नाचै, साहु का फांसी होय, अपने इलाके में यह कहावत बहुत कहीं जाती है। उधर मोदी मंचों से दहाड़ते हैं एक भी चोर नहीं बचेंगे। आज के दौर में चोर और साहु में ऐसी गड्ड-मड्ड है कि उसे ‘मी लार्ड’ के सामने एक लाइन से खड़े हैं क्योंकि सबूतों के आधार पर वही तय कर सकते हैं।
बहरहाल कोई भाजपा चाहे या भले ही कोई कांग्रेस को, पर मोदी सबकी जुबां पर हैं और सभी की साध में बसा है राममंदिर व उसमें बिराजे रामलला। इन दिनों गांव और मोहल्लों में कथाएं खूब चल रही हैं! और साथ ही हरिओम शरण का भजन भी- “तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार उदासी मनवा काहे को करे”।