Author: जयराम शुक्ल | लोकसभा चुनाव, मध्यप्रदेश में पहले चरण के महासमर में मौसमी लू-लपट के साथ वोटों की छीन-झपट का जोर चरम पर पहुंच रहा है। पेंच, कान्हा, बांधवगढ़, संजय टाईगर रिजर्व में सियारों की हुआ-हुआ, चिड़ियों की चहचहाहट और बाघों की दहाड़ पर मैदानी इलाकों में पार्टी कार्यकर्ताओं की तू-तू मैं-मैं और नेताओं की हुंकार भारी पड़ रही है।
विन्ध्य की दो सीटों सीधी, शहडोल और महाकोशल की चार सीटों मंडला, जबलपुर, छिन्दवाड़ा, बालाघाट लोकसभा सीटों के लिए 19 अप्रैल को मतदान होना है। यह इलाका कभी ग्रेट गोड़वाना का हिस्सा रहा। मुगलों से भिड़ने वाली वीरांगना रानी दुर्गावती से लेकर अंग्रेजों से मोर्चा लेने वाले संग्राम शाह- रघुनाथ शाह के पराक्रम की गाथाएं अभी भी लोगों की जुबान पर हैं। एक तरह से चुनाव के इस पहले चरण का नियंता विशाल वनवासी वर्ग है जिसे रिझाने के लिए भाजपा के पास मोटे पैकेज हैं तो कांग्रेस के पास भावनात्मक और सामाजिक मुद्दे।
छिन्दवाड़ा में छीना-झपटी..!
इस चरण में जिन सीटों पर मतदान होना है उसमें छिंदवाड़ा पर देश की निगाहें टिकी हैं। कमलनाथ का सबकुछ दांव लगा है। बेटे नकुल नाथ चुनाव मैदान में हैं। बड़ा सवाल यह है कि छिंदवाड़ा कमलनाथ का पर्याय बना रहेगा यह इस बार निजाम बदलेगा। भाजपा ने विवेक साहू बंटी पर दांव खेला है। केन्द्रीय नेतृत्व और रणनीतिकार हर कदम पर इनका मार्गदर्शन कर रहे हैं। इस बार न इन्हें संसाधन की कोई कमी और मनोबल तो जामसांवली के मंदिर के शिखर तक। पर चर्चा के केन्द्र में सिर्फ और सिर्फ कमलनाथ हैं, न नकुलनाथ और न बंटी।
बाघ जब बूढ़ा हो जाता है तो जंगल के वन्यजीव उसकी अवहेलना करने लगते हैं। न उसकी गुर्राहट काम आती और जंगल के राजा होने का रसूख। कमलनाथ के साथ कुछ ऐसा ही ही। एक एक करके सभी विश्वसनीय साथ छोड़ते जा रहे हैं। सबसे बड़ी चोट अमरवाड़ा के विधायक कमलेश शाह ने दी। कांग्रेस की टिकट पर पच्चीस हाजार मतों से जीतने वाले कमलेश गोड़वाना के शाही वंशज हैं। उनका टूटना दांए हाथ के कट जाने जैसा है। नकुलनाथ के पिछले चुनाव में अमरवाड़ा ने 22 हजार की लीड न दी होती तो जीतना ही बड़ा मुश्किल था। छिन्दवाड़ा शहर में भी विपरीत हवा है। सबसे पुराने साथी दीपक सक्सेना और महापौर विक्रम अहाके ने बगावत करके छिन्दवाड़ा की मांद को भाजपा के लिए सुभेद्य बना दिया है।
विधानसभा में जिस छिन्दवाड़ा जिले की सभी सीटें कांग्रेस ने जीती हों उसके हर विधानसभा में नेताओं कार्यकर्ताओं की पतझड़ है। यहां वनवासी वोटों का प्रतिशत 35 से ऊपर है। तामिया के भारिया वनवासी हैं तो मैदानी इलाके में गोंड। अबतक कांग्रेस का साथ देते आ रहे थे इस बार जन-मन में क्या है..? कोई समझ नहीं पा रहा।
बालाघाट में कंकर का बंकर!
छिन्दवाड़ा की जोड़ीदार सीट है बालाघाट। मध्यप्रदेश में नक्सलियों का बड़ा ठिकाना। खौफ इतना कि एक बार नक्सलियों ने दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार के मंत्री लिखीराम कांवरे को कुल्हाड़ियों से काट डाला था। हिना कांवरे यहीं से कांग्रेस विधायक हैं। बालाघाट की सीमा छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र से लगती है। नक्सलियों का यह एक कॉरीडोर भी है। लगभग 38 प्रतिशत वनवासी बाहुल्य यह लोकसभा क्षेत्र पिछले छह बार से भाजपा के कब्जे में है। लेकिन विधानसभा में भाजपा एक बार भी क्लीनस्वीप नहीं कर पाई। पारंपरिक वनवासी भाजपा की ओर झुकें हैं। नक्सली सत्ता के खिलाफ रहते हैं सो इनका जहां असर होगा वे भाजपा के खिलाफ ही अपना फरमान देंगें।
इस बार एक बड़ा फैक्टर हैं कंकर मुंजारे। कभी ये फायर ब्रांड विधायक हुआ करते थे। एक बार निर्दलीय तो एक बार सपा से। ये बालाघाट से एक बार सांसद भी रहे चुके हैं। इस बार बसपा से प्रत्याशी हैं। पिछड़े लोधी वर्ग से आते हैं जो कि यहां की प्रभावी जमात है, जन-धन-बल तीनों से। पिछली बार बसपा को यहां से 6.5 प्रतिशत वोट मिले थे। इतने प्रतिशत वोटों की घट-बढ़ सारे समीकरण बिगाड़ देती है। कंकर मुंजारे की पत्नी अनुभा मुंजारे कांग्रेस की विधायक हैं और कांग्रेस के लिए जी जान से जुटी हैं।
जाति से बिंधी राजनीति को साधने के लिए भाजपा ने यहां से भारती पारधी को मैदान में उतारा है तो कांग्रेस ने सम्राट सिंह सरस्वार को। नक्सली आतंक एक बड़ा मुद्दा था। भाजपा सरकार ने उसपर काबू पाया है। वनवासियों ने अति गरीबों के लिए भाजपा की जन-मन योजना असर दिखा रही है। भाजपा के पुराने स्टालवार्ट ढाल सिंह बिसेन, गौरीशंकर बिसेन और दादा देशमुख क्या कर रहे हैं, खबरें कुछ भी बयान नहीं करतीं पर अब इतना माद्दा भी नहीं बचा कि टिकट कटने के बाद सहानुभूति के जरिए पार्टी का कुछ बिगाड़ सकें। गोंगपा भी कभी एक बड़ा कारक रहा करती थी लेकिन अब तितर-बितर है। भाजपा का ट्रैक रिकॉर्ड फिलहाल उसके साथ है.. और इस चुनाव में उन्नीस के मुकाबले बीस ही रहने वाला।
मंडला का मन डोला..!
मंडला से अबतक जो खबरें आ रही हैं वो भाजपा की पेशानी पर बल डालने वाली हैं। फग्गन सिंह कुलस्ते छठवीं बार जीत के इरादे से मैदान पर हैं। उन्हें कांग्रेस विधायक ओंकार सिंह मरकाम से खासी टक्कर मिल रही है। फग्गन केन्द्र में बरसों से मंत्री रहे हैं तो ओंकार पिछले तीन बार से अच्छे खासे मतों से विधायकी जीत रहे हैं। वे कांग्रेस की सर्वोच्च समितियों में भी है। पिछले विधानसभा चुनाव में मंडला का रुख कांग्रेस के पक्ष में रहा है। लोकसभा क्षेत्र की आठ विधानसभा सीटों में से पांच कांग्रेस के पास है। कुलस्ते स्वयं चुनाव हार चुके हैं वह भी ठीक-ठाक मार्जिन से।
जनमत कुलस्ते के खिलाफ क्यों है..? वहां के एक स्थानीय पत्रकार से यह टटोला तो जवाब मिला कि कुलस्ते वनवासियों के बीच अब इलीट क्लास के है। उनका रहन-सहन अंदाज सबकुछ बदल गया। केन्द्रीय मंत्री रहते हुए वे जन सामान्य से कटते गए। महत्वाकांक्षी इतने कि कभी प्रदेश अध्यक्ष की रेस में खुद को खड़ा कर देते हैं तो कभी मुख्यमंत्री के। चुनाव हारने के बाद उन्हें उम्मीदवार बनाकर क्या भाजपा ने गलत किया- नहीं लोकसभा का दायरा और मुद्दे अलग होते हैं और फग्गनसिंह गोड़वाना के सबसे चमकदार चेहरे हैं, भाजपा के एक जिला पदाधिकारी ने जवाब दिया।
दरअसल मंडला और डिंडोरी में मिशनरीज का गहरा असर है। नई पीढ़ी के लड़के जो इनकी स्कूलों से पढ़कर निकले और नौकरियों में हैं वे मूलत: भाजपा के खिलाफ है। एक तरह से वे टूल की भांति इस्तेमाल होते हैं, समाज में उनका असर गहरा है। गोड़वाना के इस गढ़ को बचाने के लिए भाजपा को कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है।
जबलपुर लड़ाई जीत के मार्जिन के लिए!
जबलपुर भाजपा के लिए शुभंकर है। भाजपा की टिकट पर देश का पहला सांसद जबलपुर ने ही दिया। दरअसल 1980 के चुनाव में यहां से कांग्रेस मुन्दर शर्मा जीते थे। शर्मा जी का बीच कार्यकाल में ही निधन हो गया तो उपचुनाव में दादा बाबूराव परांजपे यहां से भाजपा की टिकट पर चुनकर गए। भाजपा के गठन के बाद यह पहला चुनाव था। कांग्रेस यहां से 1991 के बाद कोई चुनाव नहीं जीत सकी। पर एक ट्रेंड यहां से और शुरू हुआ। वह यह कि भाजपा की जीत का अंतर 2004 से लगातार बढ़ता जा रहा है। जबलपुर एक तरह से भाजपा का वैसा ही मजबूत गढ़ है जैसा कि इंदौर। टिकट अपने आप में जीत की गारंटी है जो इस बार आशीष दुबे को मिली है। दुबे जिला भाजपा के अध्यक्ष रहे हैं और जबलपुर ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं। जबलपुर शहर लोकसभा में बरहमेश भाजपा के साथ रहा है। 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने यहां से चार में से तीन सीटें जीतीं थी, लेकिन अगले साल हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हर विधानसभा में बहुत पीछे रही। इस बार सिर्फ एक सीट लखन घनघोरिया की है।
कांग्रेस पहले लखन को ही चुनाव मैदान पर उतारना चाहती थी। लेकिन जातीय पेचीदगियों के चलते दिनेश यादव को यहां से उतारना पड़ा। लखन अजा वर्ग सुरक्षित से विधायक हैं और जबलपुर सामान्य सीट है। कांग्रेस ने इस बार टिकट के मामले को पिछड़े वर्ग में फोकस रखा है। पहले चरण में जहां – जहां चुनाव हो रहे हैं वहां सामान्य सीट से पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को उतारा है। यद्यपि व इस बात को कैश नहीं कर पाई कि पिछड़ों की कितनी बड़ी हिमायती हैं।
पहले चरण के चुनाव वाली सीटों में जबलपुर क्षेत्र में वनवासी वोटर सबसे कम हैं यानी कि 18 से 20 प्रतिशत। यहां भाजपा का सबसे बड़ा वोट बैंक रक्षा प्रतिष्ठानों के कर्मचारी और फौज पलटन के जवान, उनके परिजन हैं। अटलजी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से रक्षा विभाग से जुड़े अधिकारियों, कर्मचारियों का बड़ा वर्ग भाजपा से जुड़ा है। जबलपुर भाजपा का गढ़ भी इन्हीं की बदौलत है।
सीधी-शहडोल का आसान भूगोल
सीधी और शहडोल में वनवासी वोटरों की संख्या 40 प्रतिशत के आसपास है। शहडोल लोकसभा क्षेत्र में आठ में से सिर्फ एक और सीधी क्षेत्र में आठ में से तीन विधानसभा क्षेत्र सामान्य हैं शेष आरक्षित। इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि यहां नियंता और नियामक कौन वर्ग होगा। भाजपा की दृष्टि से देखें तो शहडोल लोकसभा में तब तक अड़चन रही जब तक यहां के सबसे लोकप्रिय नेता दलबीर सिंह का परिवार कांग्रेस में रहा। 2009 में राजेश नंदनी सिंह यहां से सांसद रही हैं। कांग्रेस से एक चुनाव लड़कर हारने के बाद हिमाद्री सिंह भाजपा में शामिल हो गईं तब से यहां मामला आसान हो गया। पूरे शहडोल क्षेत्र में यदि कोई इलाका मुश्किल का माना जाता रहा है तो अनूपपुर का पिछले विधानसभा चुनाव में यहां से तीन सीटें कांग्रेस ने जीतीं थी। पर बिसाहू लाल के भाजपा में आने का बाद ने समीकरण बने और इस बार पुष्पराजगढ़ सीट को छोड़कर कर सभी सीटें भाजपा के पक्ष में गई। इत्तेफाक है कि कांग्रेस ने जिन फुंदेलाल मार्को को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाया वे यहीं से विधायक हैं और हिमाद्री सिंह का भी यही गृह क्षेत्र है। फुंदेलाल की पहचान एक जमीनी व परिश्रमी नेता की है वे तीसरी बार विधायक हैं जबकि हिमाद्री के साथ विरासत का सम्मान है। शहडोल क्षेत्र में बैगा की संख्या निर्णायक है, गोंड यहां के अपेक्षाकृत संपन्न जन हैं। प्रधानमंत्री की जन्म योजना जिसमें बैगाओं को आवास देना शामिल हैं ख़ासा असर कर रही है।
बैगा सीधी में भी निर्णायक हैं। ये सीधे सादे सज्जन लोग जरा सी मदद मिलने पर भी अहसानमंद हो जाते हैं। भाजपा यहां से लगातार जीतती आ रही है जब से यह सामान्य हुई। इस बार भाजपा के डा. राजेश मिश्रा को सामने कांग्रेस के कमलेश्वर पटेल हैं। दोनों पहली बार लोकसभा के चुनाव मैदान पर हैं। अनुभव में कमलेश्वर भारी हैं वे कांग्रेस की सर्वोच्च समिति सी डब्ल्यू सी के सदस्य हैं और इन्द्रजीत कुमार जैसे सम्माननीय नेता की विरासत साथ में हैं। मुकाबला कांटे का तो नहीं कह सकते बस ऐसे है कि पूर्ववर्ती रीती पाठक का रिकॉर्ड बचा रहे यही बहुत है।
और अंत में
प्रथम चरण के चुनावी दौर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की सभाएं, रैलियां और रोड शो हो चुके हैं तो राहुल गांधी की शहडोल और बालाघाट में सभा।
हां एक बात दिलचस्प रही, शहडोल में राहुल गांधी महुआ बीनने वाली वनवासी महिलाओं के बीच गए। जमीन से उठाकर महुआ का एक फूल चखा और बोले- नाट सो बैड!
एक दुभाषिए ने महिलाओं को बताया – राजकुंवर कह रहे हैं कि महुआ का स्वाद — खास खराब भी नहीं!