Importance of Joint Family:भारतीय संस्कृति की शक्ति है परिवारों में ‘हम’ की भावना-बदलती जीवन-शैली, एकल परिवारों की बढ़ती प्रवृत्ति और व्यक्तिगत सोच के विस्तार के बीच संयुक्त परिवार की प्रासंगिकता पर विचार करना आज के समय की आवश्यकता बन गया है। भारतीय समाज की जड़ें परिवार व्यवस्था में गहराई से जुड़ी रही हैं, जहाँ संस्कार, सहयोग और उत्तरदायित्व की भावना पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती रही है। इन्हीं विचारों को केंद्र में रखते हुए भारत विकास परिषद्, रीवा शाखा (विन्ध्य प्रांत) द्वारा “संयुक्त परिवार की आवश्यकता” विषय पर एक विचारोत्तेजक संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों के प्रबुद्धजनों ने सहभागिता कर विषय पर गंभीर विमर्श किया।रीवा में भारत विकास परिषद् द्वारा आयोजित संगोष्ठी में संयुक्त परिवार की सांस्कृतिक, सामाजिक और नैतिक प्रासंगिकता पर गहन विचार-विमर्श हुआ। प्रो. अखिलेश शुक्ल ने संयुक्त परिवार को भारतीय समाज की आत्मा बताया।
संगोष्ठी का उद्देश्य और आयोजन
इस संगोष्ठी का मुख्य उद्देश्य बदलती सामाजिक परिस्थितियों में संयुक्त परिवार की भूमिका, उसकी सांस्कृतिक महत्ता तथा सशक्त समाज निर्माण में उसके योगदान को रेखांकित करना रहा। कार्यक्रम का संयोजन परिषद् के उपाध्यक्ष राजेंद्र सिंह बघेल द्वारा किया गया, जिन्होंने संयुक्त परिवार की अवधारणा को सामाजिक समरसता का आधार बताया।
संयुक्त परिवार “मैं” नहीं बल्कि “हम” की भावना को विकसित करता है-प्रोफेसर अखिलेश शुक्ल
संगोष्ठी के मुख्य वक्ता प्रोफेसर अखिलेश शुक्ल, विभागाध्यक्ष-समाजशास्त्र एवं समाज कार्य विभाग, शासकीय ठाकुर रणमत सिंह महाविद्यालय, रीवा रहे। अपने सारगर्भित उद्बोधन में उन्होंने कहा कि-“संयुक्त परिवार भारतीय संस्कृति की वह शाश्वत धरोहर है, जिसमें आधुनिकता के बीच भी संस्कार सुरक्षित रहते हैं।”उन्होंने स्पष्ट किया कि परिवार केवल साथ रहने की व्यवस्था नहीं, बल्कि व्यक्ति के सामाजिक, नैतिक और भावनात्मक विकास की पहली पाठशाला है। संयुक्त परिवार “मैं” नहीं बल्कि “हम” की भावना को विकसित करता है, जो समाज को जोड़ने वाली सबसे मजबूत कड़ी है।
रामायण से उदाहरण
प्रोफेसर शुक्ल ने रामायण का उदाहरण देते हुए महाराज दशरथ का परिवार तथा भरत के त्याग को संयुक्त पारिवारिक मूल्यों का आदर्श बताया। उन्होंने कहा कि-“अधिकार से बड़ा कर्तव्य” ही संयुक्त परिवार का मूल संदेश है, जो व्यक्ति में उत्तरदायित्वबोध और सामाजिक संवेदनशीलता का विकास करता है। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि युग और व्यवस्थाएं बदल सकती हैं, किंतु भारतीय समाज की आत्मा आज भी परिवार व्यवस्था में ही निहित है। संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों का अनुभव, युवाओं की ऊर्जा और बच्चों की आशाएँ मिलकर एक सशक्त समाज और राष्ट्र निर्माण की नींव रखती हैं।
गरिमामयी उपस्थिति
संगोष्ठी में भारत विकास परिषद् के अनेक पदाधिकारी एवं समाज के विभिन्न क्षेत्रों से आए प्रबुद्धजन उपस्थित रहे। प्रमुख रूप से-कमल सूरी -अध्यक्ष, भारत विकास परिषद्, रीवा,राजेंद्र सिंह बघेल-उपाध्यक्ष, भारत विकास परिषद्, रीवा,सुरेश विश्नोई-संस्कार प्रमुख, भारत विकास परिषद्, विन्ध्य प्रांत, रीवा,राजेंद्र ताम्रकार-भारत विकास परिषद्, रीवा,दलवीर द्विवेदी-कोषाध्यक्ष रीवा , उमाशंकर पाठक-प्राचार्य, सरस्वती उ.मा.बि., निराला नगर, रीवा और कार्यक्रम का कुशल संचालन-राजेंद्र ताम्रकार द्वारा किया गया।
निष्कर्ष-संगोष्ठी के अंत में उपस्थितजनों ने संयुक्त परिवार की अवधारणा को व्यवहार में अपनाने तथा सामाजिक चेतना को सुदृढ़ करने का संकल्प व्यक्त किया। यह संगोष्ठी न केवल एक वैचारिक मंच रही, बल्कि यह संदेश भी दे गई कि संयुक्त परिवार भारतीय समाज की जड़ों को मजबूत रखने वाला आधार स्तंभ है, जिसे आधुनिकता के साथ संतुलन बनाते हुए संरक्षित करना हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है।
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