न्याज़िया
मंथन। बेशक दुनिया में बहोत से लोग बहोत बेमुरव्वत हैं, सबको परेशान करते हैं या करने के बहाने ढूंढते रहते हैं ,सताते रहते हैं , और कुछ मासूम लोग उनके ज़ुल्मों तले दब जाते हैं बेबस हो जाते हैं । उनकी ये रीत जाने कब से चली आ रही है और कब तक चलेगी इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है क्योंकि ऐसे लोग हर जगह मिलते हैं घर बाहर ,हमारे समाज में और बस कमज़ोरों पर ज़ोर दिखाते हैं या कहलें शासन करते हैं और ऐसा भी नहीं की इनमें सब ग़ैर होते हैं , नहीं इनमें कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें हम अपना कहते हैं पर मुश्किल ये है कि वो हमें अपना नहीं समझते तभी तो कोई शारीरिक रूप से प्रताड़ित करता है तो कोई मानसिक रूप से लेकिन सताता ज़रूर है ।
झूठी उम्मीदें हमें और कमज़ोर करती हैं
इन सबसे हम कमज़ोर तो हो ही जाते हैं पर खुद को दिलासा देती झूठी उम्मीदें हमें और बेबस लाचार बना देती हैं क्योंकि हम उनके सहारे उन रास्तों पर आगे बढ़ते जाते हैं जिनकी कोई मंज़िल ही नहीं ,अपने फ़र्ज़ पूरे करना तो दूर की बात है हम अपने इस दुनिया में आने का मक़सद भी नहीं जान पाते ,और एक दिन थक हार कर सब छोड़कर इस दुनिया से चले जाते हैं ,पर क्या इतने कमज़ोर होकर जीना सही है ?नहीं न!
दृढ़ता है या ढोंग
इतना अनमोल जीवन ,किसी से डर के ,दहशत के साए में गुज़ारना आसान नहीं होता लेकिन हम कभी – कभी अपनी बेबसी महसूस करते हुए भी कुछ नहीं कर पाते इतने लाचार हो जाते हैं।की हम लाख कोशिशों के बावजूद कुछ बंधनों को नहीं तोड़ पाते हालांकि ये बंधन किसी और की उपज नहीं होते ये हमारी ही रूढ़िवादिता की ज़ंजीरों से निकलते हैं जिनसे हम खुद को जकड़ लेते हैं और उसूलों की आड़ में टूट जाने के बाद भी बस ढोंग करते हैं मज़बूत होने का ।।
कहीं खोखले तो नहीं हैं ये उसूल
इन उसूलों पर चलते हुए हम बहुत बेबस महसूस करते हैं ,लेकिन इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते कि इन्हें दर किनार कर सकें और जो हमें जानते हैं वो हमारी इस कमज़ोरी का फायदा उठाते हैं ,पर क्या इन्हें दर किनार करना या इन बंधनों को
तोड़ना इतना मुश्किल है !शायद नहीं है बस हम हिम्मत नहीं कर पाते हैं ,उन्हीं दुनिया वालों के उन तानों से डरते हैं जिनमें से कुछ लोग हमें आज अच्छा कहते हैं पर हमारे बंधन तोड़ देने या ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने से वहीं हमें बुरा
कहेंगे और शायद हमें ही नहीं हमसे जुड़े हर शख़्स को बुरा कहेंगे, अब सवाल ये उठता है कि कैसी है ये विडम्बना, कैसी है ये कश्मकश जो न चैन से जीने देती न मरने इसलिए इसका हल निकलना तो बहुत ज़रूरी है ,जब भी कोई दबाए तो आवाज़ उठाना , लड़ना भी ज़रूरी है क्योंकि हमारा ये जीवन भी तो अमूल्य है इसे व्यर्थ भी तो नहीं किया जा सकता ।
दिलों में लगी गिरह जीने नहीं देगी
ऐसे चुप रहने से हम अपना ही नहीं उनका भी जीवन बर्बाद करते हैं जो हमारे अपने हैं या जिन्हें हमारे सहारे की ज़रूरत है क्योंकि वो हमें नहीं छोड़ पाते और हम अपने इन दकियानूसी उसूलों को ,जो हमारी ज़िंदगी को बेहतर नहीं बदतर बनाते हैं बस इसलिए कि हमने अपने दुश्मनों से न लड़ने की ,उनसे न अलग होने की क़सम खाई होती है , जो हमें झूठे बेमानी रिश्तों की डोर में बांध देते हैं जिसमें लेहाज़ हमें सबसे पहले मात देता है इसलिए कोशिश करें कि दिलों में लगी गिरह खुल जाए और दुश्मन भी अपना बन जाए और न बनना चाहे तो उसे भी आज़ाद छोड़ दें शायद इससे ही उसका और हमारा कुछ भला हो जाए
तो क्यों न ग़ौर करें इस बात पर चुप्पी तोड़े और खुल के जिएं ये खूबसूरत ज़िंदगी जिसमें सिर्फ हमारे अपनों का दख़ल हो जो सिर्फ हमारा भला चाहते हैं। फिर मिलेंगे आत्म मंथन की अगली कड़ी में धन्यवाद।