रंग पर्व: प्रेम और उल्लास की पराकाष्ठा का विजय नाद! FT. जयराम शुक्ल

Holi 2025 Jayram Shukla

Holi 2025 Jayram Shukla | होली और फाग ऐसा उत्सव है जिसमें सप्तरंग मिले हैं। इन रंगों में वियोग की करुणा, संयोग का हर्ष, पराक्रम का गान, अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा, वैराग्य का दर्शन सभी कुछ है इसलिए ‘शो मस्ट गो आन’। भले ही इसके साथ विपदा-विवशता-करुणा और क्रोध के भाव अंतरधारा बनकर समानांतर बहें।

अब जैसे कि कथा है, उत्तर महाभारत में यदुकुल का नाश भी होली के दिन से शुरू हुआ था। सत्ता के मद में चूर यदुवंशी आपस में ही लड़कर मर गए। यह विप्लवकारी संहार होली से बुढ़वा मंगल तक चला था।

यदुवंशियों के बिगड़ैल नशेड़ी लड़कों ने ऋषि दुर्वासा का अपमान कर दिया। दुर्वासा ने श्राप दिया- जाओ तुम आपस में ही लड़ मरोगे। महाभारत में द्वारका और यदुवंश के संहार को जो वर्णन है वह पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अराजकता की पराकाष्ठा और बेबस श्रीकृष्ण..!

हमारे हर त्योहारों में कई-कई किस्से छिपे होते हैं। होली से जुड़े किस्से तो सबसे ज्यादा हैं। पुराण कथा में हिरण्यकश्यप, प्रहलाद, होलिका हैं।

होलिका दहन के किस्से को पर्यावरण के नजरिए से देखिए। होली है गंदगी और हिरण्यकश्यप है महामारी। गंदगी और रोग जन्मना भाई-बहन होते हैं, इनका कोई भी सगा नहीं होता पुत्र भी नहीं।

सो होलिका दहन एक तरह से गंदगी का उन्मूलन है। मोहल्ले भर का कूड़ा कचरे को जलाकर मुक्ति पाना। गंदगी के न रहने से रोग भी बलहीन हो जाता है जैसा कि होलिका के भष्म होने के साथ हिरण्यकश्यप हो गया।

हिरण्यकश्यप का वध नृसिंह भगवान करते हैं, आधे पशु और आधे मनुष्य। मनुष्य पशु के सहचर्य के साथ ही प्रकृति का संतुलन बना सकता है। प्रकृति के कुशलक्षेम में ही हमारे बच्चों का भविष्य है। प्रह्लाद प्रतीक हैं प्रदूषण, गंदगी में घिरे हुए हिरण्यकश्यप जैसे महारोग से जूझते।

संदेश यह कि भौतिक रूप से हम अपने आसपास की गंदगी को होलिका बनाकर भष्म करें। घर को लीप पोतकर साफ करें। तन की मैल को धोएं। नैतिक रूप से अंतस की गंदगी और कलुषता को इच्छाशक्ति की अग्नि में स्वाहा करें।

परिस्थितियां कैसी भी हो, कुछ भी हो जिंदगी तो फिर भी चलती रहती है। ऋतुचक्र को भला कौन टाल सकता है। तो चलिए अपन होली से रंगपंचमी और बुढ़वा मंगल तक की याद करते हुए खुश हो लेते हैं। होली और दीपावली ही ऐसे त्योहार हैं जो अपने ‘फुल पैकेज’ के साथ प्रकट होते हैं, जिनकी खुमारी और चमक मन-मष्तिष्क में हफ्तों तक बसी रहती है।

हमारी लोकपरंपरा की ताकत उसकी आस्था एवं विश्वास है। इसी के दम पर हम मृत्यु को भी उत्सव का रूप दे देते हैं। छन्नू महराज की गाया प्रसिद्ध फाग है- खेलैं मसानें म होरी दिगंबर खेलैं मसाने मा होरी।

होली प्रकृति के उल्लास का विलक्षण लोकपर्व है। वसंत से ही फगुनाहट महसूस होने लगती है। हमारे गाँव में वसंत पंचमी के दिन तालाब की मेड़ पर मेला भरता है। जब हम बच्चे थे तो हमें उस दिन बगीचे के आम की बौर, गेहूं, जौ की बाली और गन्ना ये सब ले जाकर शंकरजी को चढ़ाना होता था। लोकमान्यता थी कि ऐसी पूजा अर्चना करने से हमारा समाज धनधान्य से संपन्न होता था।

वसंत पंचमी की गोधूलि बेला में हम बच्चे आरंडी(रेंड़ी) के पेड़ का डाँड गाडते थे। यह डा़ड दरअसल होलिका के आह्वान का उपक्रम होता था।

डाँड का गाड़ा जाना एक तरह से होलिकोत्सव के शुरुआत का ऐलान होता था। यानी कि माघ में ही फागुन का रंग। बनारस के लोककवि चंद्रशेखर मिश्र जी की प्रसिद्ध कविता है…जिसमें प्रियतमा प्रण करती है कि यदि होली में हमारे ‘वो’ नहीं आए तो प्रकृति का ऋतु चक्र ही बदल कर रख दूँगी..।

होरी गई यदि कोरी हमारी,
किसी को गुलाल उड़ाने न दूंगी।
कैद कराऊंगी मंजरि को,
ढप ढोल पै थाप लगाने न दूंगी।।
फूलने न दूंगी नहीं सरसो तुम्हें,
कोयल कूक लगाने न दूंगी।
बांध के रखूंगी माघ सिवान में,
गांव में फागुन आने न दूंगी ।।

होली और फाग ने साहित्य और सिनेमा को बराबर मथा है। साठ सत्तर के दशक तक प्रायः हर फिल्म में फाग का एक मस्ती भरा गीत रहता था। होली आई रे कन्हाई, होली के दिन दिल मिल जाते हैं, आज न छोड़ेगे.., रंग बरसे भींजे चुनरवाली.. ये गीत हुरिहारों की मस्ती का पर्याय बन चुके हैं।

वो कवि कवि नहीं जो फाग न रचे। बुन्देलखण्ड के अपने ईसुरी की बात ही क्या कहने, पर सबसे प्रभावी पद रसखान ने रचे ब्रज की होली के। सेनापति, पद्माकर, घनानंद से लेकर भारतेन्दु तक और उसके बाद के रचनाकारों ने होली को साहित्य के रंग से सराबोर किया। यदि आपने नजीर अकबराबादी की होली की नज्में नहीं पढ़ी तो मानों आपका साहित्यरस बेकार..।

कई ऐसे अज्ञात.. अल्पज्ञात रचनाकार हैं जिन्होंने होली फाग के मर्म को अपनी रचनाओं से प्रकट किया। उनमें से एक हैं कवि घासीराम । होली ब्रज की है, हुरिहार हैं कान्हा और निशाने पर है वो गुजरिया जिसे रंग से नहीं सास और ननद की चुगली से डर है..देखें कितना प्यारा और मासूम पद है

कान्हा पिचकारी मत मार मेरे घर सास लडेगी रे।
सास लडेगी रे मेरे घर ननद लडेगी रे।
सास डुकरिया मेरी बडी खोटी,
गारी दे न देगी मोहे रोटी,
दोरानी जेठानी मेरी जनम की बेरन, सुबहा करेगी रे।
कान्हा पिचकारी मत मार॥1॥

जा जा झूठ पिया सों बोले, एक की चार चार की सोलह,
ननद बडी बदमास, पिया के कान भरेगी रे।
कान्हा पिचकारी मत मार… ॥2॥

कछु न बिगरे श्याम तिहारो, मोको होयगो देस निकारो,
ब्रज की नारी दे दे कर मेरी हँसी करेगी रे।
कान्हा पिचकारी मत मार… ॥3॥

हा हा खाऊं पडू तेरे पैयां, डारो श्याम मती गलबैया,
घासीराम मोतिन की माला टूट पडेगी रे।
कान्हा पिचकारी मत मार… ॥4॥

होली की कथा हरि की तरह अनंत है..महिमा ऐसी कि गर कोई सावन में भी फाग गा दे तो मानो सामने वसंत है। वसंत से प्रकृति में मादकता छाने लगती है। होली तक चरमोत्कर्ष में पहुंच जाती है। दूसरे दिन घुरेड़ी में रंग अबीर के साथ गाया जाने वाला फाग प्रेम का प्रकटीकरण है। -वर्ष भर जो आकांक्षाएं दिल के किसी कोने में दबी सुरसुराती रहती हैं वो इस दिन किसी रस्सी बम सी फट पड़ती थीं। अब तो वाँट्सेप का जमाना है। सीधे दिल चिन्ह वाली बटन दबाया और सट् से पहुँचा। पहले साल भर इंतजार रहता था फगुआ का।

-घुरेड़ी के बाद जोश ठंडा पड़ने लगता है। ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं। फागुन बुढाने लगता है। और होली के बाद जो मंगल पड़ता है वह बुढ़वा मंगल हो जाता है। लोकपर्व किसी वेद पुराण से अनुशासित नहीं होते उसकी संहिता समाज ही बनाता है और उसके मायने भी बताता है।

-हमारे इलाके में लोकभाषा के यशस्वी कवि हैं अमोल बटरोही बुढ़वा मंगल के मायने बताते हैं। वे कहते हैं दरअसल रंग-फाग-मस्ती में युवाओं का कब्जा रहता है सो एक दिन हम बूढों की मस्ती के लिए भी, बुढवा मंगल इसीलिए।

-वैसे यह दिन बजरंगबली को समर्पित होता है। बजरंगबली जाग्रत लोक देवता हैं। गरीब-गुरबों के भगवान। उत्तर भारत में इस दिन हनुमानजी के साथ रंग खेला जाता है। फाग भी भजन की तरह होती है। बजरंगबली की महिमा का वर्णन, खासतौर पर लंकाकांड से जुड़े ढेरों फाग हैं।

-एक फाग की कुछ पंक्तियां याद हैं-
कँह पाए महवीरा मुदरी कहँ पाए महबीरा लाल…,
या अंगद अलबेला लंका लड़ैं अकेला।

-फाग की ध्वनि विप्लवी होती है। नगड़िया की गड़गडाहट युद्ध के उद्घोष होता सा लगता है। बुढ़वा मंगल को हनुमानजी की बडवाग्नि के साथ भी जोड़ते हैं। लोकश्रुति है कि बजरंगबली ने इसी दिन अपनी पूछ में बडवाग्नि प्रज्वलित की थी उसी से लंकादहन किया। पहले इसे बड़वा मंगल कहते थे..जो बाद में बुढ़वा हो गया।

जैसे बजरंगबली के जन्मदिन कई हैं वैसे ही बुढवा मंगल भी कई। कुछ शास्त्री लोग भाद्रपद के अंतिम मंगल को भी बुढ़वा मंगल कहते हैं। गोरक्षपीठ गोरखपुर में मकर संक्रांति के बाद के मंगल को बुढवा मंगल कहते हैं।

-हमारे लोकजीवन में स्वीकार्यता के लिए गजब की गुंजाइश है। जैसे दीपावली के बाद की दूज को भैय्या दूज मानते हैं वैसे ही होली की बाद के दूज को भी भैय्या दूज ही कहते हैं। इस दिन भाई-बहन एक दूसरे को गुलाल लगाते हैं और उम्र तथा रिश्ते के हिसाब से एक दूसरे का आशीर्वाद लेते हैं।

-बुढ़वा मंगल के दिन भी बड़े बुजुर्गों के चरणोंमें गुलाल लगाकर वर्ष भर के लिए आशीष सहेजते हैं। तब हम बच्चे जाति-पाँति से ऊपर गांव के सभी बड़े बुजुर्गों के चरणों में अबीर लगाकर कहते थे..अइसन काका सब दिन मिलैं, अइसन बाबा सब दिन मिलैं..। वो आशीष देते कि अइसन नाती जुग-जुग जियै..। गांव के जिन बुजुर्गों के पाँव छूने के रिश्ते नहीं थे उन्हें भी अबीर भेंटकर रिश्तों की दुहाई के साथ मंगलकामना करते थे।

हमलोग अपने हरवाहों(मजूरों) तक के कुशलक्षेम की भी प्रार्थना करते थे वैसे ही। वे हमें औसत से कई गुना आशीष देते थे। पंजाब में भी पाँव में अबीर लगाकर आशीर्वाद लेने की परंपरा है। सो बुढ़वा मंगल को इस दृष्टि से भी हम देखते हैं।

रंगपंचमी और बुढवा मंगल ऐसे ही हैं जैसे कि अनुष्ठान का समापन। इस नए जमाने में इसे फागुन के रंगपर्व का वैसे सी बीटिंग रिट्रीट कह सकते हैं जैसे कि राजपथ में गणतंत्र दिवस का होता है।

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