History of Raurinath Temple of Rewa: बाबा महामृत्युंजय की नगरी रीवा में वैसे तो अनेकों प्राचीन शिवालय हैं, जिनका प्राचीन इतिहास, जिनकी भव्यता और उनमे विराजे भगवान भोलेनाथ की महिमा को सभी जानते हैं” लेकिन इस शहर में एक ऐसा भी शिवधाम है जो सदियों से आंखों के सामने रहने के बावजूद भी गुमनाम है. इस मंदिर का इतिहास विवादित है. कुछ इतिहासकार यह दावा करते हैं कि इसे बघेल सियासत के एक राजा ने बनवाया था तो मंदिर के महंत इसे नाथ सम्प्रदाय द्वारा स्थापित किया मानते हैं. इन दोनों के दावों से दोनों को फर्क नहीं पड़ता है और ना ही भोलेनाथ को उन दोनों के दावों से.
रीवा शहर से 8 किलोमीटर दूर गुढ़ रोड पर एक गांव है ‘खड्ढा’, इस गांव में एक विशाल तालाब है और तालाब के किनारे स्थापित है प्राचीन शिव मठ जिसमे विराजे हैं ‘रौरियानाथ…. ‘ ओंकार रौरियानाथ महादेवालय, हाइवे से ही दिखाई पड़ जाता है और इसकी भव्यता का अंदाजा भी दूर से ही लग जाता है.
यह मंदिर चारों दिशाओं से एक जैसा प्रतीत होता है, हर कोना, हर स्तंभ, हर पत्थर, हर एक गुंबद एक जैसा है. मंदिर के चार द्वार हैं, दो मंजिले हैं, और दूसरी मंजिल में भी 4 द्वार हैं. और गर्भगृह में बैठे बाबा रौरियानाथ पूर्वाभिमुखी हैं. यह मंदिर हवादार है, यहां चारों दिशाओं से वायु प्रवाहित होती है और चारों दिशाओं से प्रकाश आकर शिवलिंग पर पड़ता है. यही वायुशास्त्र से बने मंदिरों की विशेषता होती है. इस प्राचीन मंदिर की एक विशेषता यह भी है कि सूर्योदय की पहली किरण से बाबा रौरियानाथ का अभिषेक होता है और सूर्यास्त की आखिरी किरण भी शिवलिंग पड़ती है.
पंचायतन पद्धति से बना है रौरियानाथ मंदिर
Raurinath Mandir Rewa Ki Kahani: इस मंदिर के पूरे हिस्से को देखकर लोग यह अंदाजा लगाते हैं कि इसका बाहरी हिस्सा, गर्भगृह के निर्माण के सैकड़ों वर्ष बाद बनवाया गया होगा। मंदिर का गर्भग्रह किसी मड़फा जैसा प्रतीत होता है, जो प्राचीन समझ में आता है.
इस मंदिर का निर्माण पंचायतन पद्धति से हुआ है, जो नाथ सम्प्रदाय से नाता रखता है. मंदिर में विराजे बाबा रौरियानाथ शिवलिंग, महेश्वर स्वरुप हैं, यानी पंचमुखी हैं। मंदिर के ऊपर जाने के लिए संकरी सीढियाँ हैं और यहीं नवग्रहों के चिन्ह देखने को मिलते हैं.
विवादों में है रौरियानाथ मंदिर का इतिहास
Raurinath Mandir Ka Itihas: ओंकार रौरियानाथ महादेवालय का इतिहास विवादों में भी है. विवाद की वजह है मंदिर के पश्चिमी दिवार में लगा एक शिलालेश जो जिसमे नस्तालीक़ लिपि में, फ़ारसी से कुरआन की आयतें लिखी हैं. रीवा के सुप्रसिद्ध इतिहासकार अख्तर हुसैन निजामी के जर्नल्स में इस बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
History Of Rewa: अख्तर हुसैन निजामी लिखते हैं कि रीवा के 27 वें राजा ‘अवधूत सिंह’ को एक मुस्लिम स्त्री से केशवराय नामक पुत्र हुआ था. केशवराय अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे, बावजूद इसके उन्हें राजपाठ नहीं सौंपा गया, क्योंकी उनकी मां एक राजवंशी नहीं थीं और हिन्दुओं की परम्पराओं के अनुसार उन्हें रानी नहीं माना जा सकता था. इसी लिए रीवा की राजगद्दी महाराजा अजीत सिंह को मिली और केशवराय को गुढ़ की जागीर सौंप दी गई.
आगे चलकर केशवराय के एक पुत्र हुए ‘बसंतराय’ उन्होंने गुढ़ क्षेत्र में ही एक तालाब और एक शिवमंदिर का निर्माण कराया जिसे रौरियानाथ कहा गया. ‘बसंतराय की दादी, मां और पत्नी तीनों मुस्लिम थीं मगरबसंतराय अपने पिता कि तरह शिवभक्त थे. फिर भी अपनी मां और पत्नी के मजहब को सम्मान देने के लिए उन्होंने इस मंदिर में कुरआन का एक शुरुआती कलमा अंकित करवा दिया जो भूलवश उल्टा हो गया, जिसमे लिखा है – ‘ला इलाहा इल्लल्लाह मोहम्मद र्रसूल अल्लाह’
महंत नहीं मानते इतिहासकारों के दावे सच
लेकिन मंदिर के महंत रामाचार्य पाठक इस दावे को सिरे से ख़ारिज करते हैं. वो इस शिलालेश को फ़ारसी नहीं एक ऐसी लिपि मानते हैं जिसे कोई पढ़ नहीं सकता। वे इस बात को भी नकारते हैं कि मंदिर का निर्माण बसंतराय ने कराया। रौरियानाथ महादेवालय महंत इस शिव मंदिर को कलचुरिकालीन बताते हैं और इसके प्रमाण भी देते हैं. वो बताते हैं कि इस मंदिर में आदिगणेश के निशान हैं, 6वीं शताब्दी की मूर्तियां हैं और मुग़ल उस समय भारत आए ही नहीं थे.
महंत रामाचार्य का कहना है कि ज़्यादातर शिवालयों के नाम उनके भक्तों के नाम पर है और रौरियानाथ शिवमठ का नाम भी उनके परमभक्त ओंकार रौरिया के नामपर है जो कि इनके पूर्वज थे. महंत रामाचार्य बताते हैं कि इस मंदिर के पत्थरों में कई चिन्ह हैं जो रहस्य्मयी हैं. कहीं मछली, कहीं बिच्छू, कहीं त्रिकोण, कहीं वृत्त और हाथी की बनावट जैसे निशान हैं. उन्होंने हमें एक ऐसा अक्षर भी दिखाया जो हर बार पलक झपकने पर कुछ और नज़र आता है लेकिन वो कोई अक्षर नहीं आदिगणेश का चिन्ह है.
महंत रामाचार्य पाठक को यह बात पसंद नहीं है कि रौरियानाथ मंदिर की प्राचीनता पर कोई संदेह करे, वे बताते हैं कि मंदिर में शिवगौरी की कलचुरिकालीन प्रतिमा है और तब ना तो बघेल राजाओं का इस क्षेत्र में प्रभुत्व था और ना ही मुग़लो का अस्तित्व
हो सकता है कि इसिहासकर और महंत दोनों के दावे सही हों, हो सकता है कि यह मंदिर प्राचीन हो और इसका निर्माण इनके पूर्वजों ने किया हो और बाद में बसंतराय ने मंदिर के बाहरी हिस्से का जीर्णोद्धार कराकर वो फ़ारसी शिलालेख लगवा दी हो. जैसा कि हमने पहले कहा- इसिहासकर और महंत, इन दोनों के दावों से दोनों को फर्क नहीं पड़ता है और ना ही भोलेनाथ को उन दोनों के दावों से. अपने मठ के अस्तित्व के रहस्य को मौन कर वे तो लीन हैं अपनी साधना में, अनंत ध्यान में…..