14 सितंबर को हिन्दी दिवस पर हर वर्ष यह मंथन होता है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा न सही राजभाषा होना चाहिए। संविधान सभा का गठन 1946 ई. में किया गया, 9 सितंबर 1946 को इसकी पहली बैठक हुई। हमारे प्रथम राष्ट्रपति स्व. राजेंद्र प्रसाद ने इसकी अध्यक्षता की। उन्होंने घोषणा की थी-:
कहने का आशय यही था की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी सारे देश की भाषा है और इसे देश के लोगों को अपनाना चाहिए। लेकिन यह सपना आज तक पूरा नहीं हुआ.
संसद में 1968 में एक संकल्प पारित किया था कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी और अंग्रेजी के अतिरिक्त दक्षिण भारत के आधुनिक भाषाओँ में से एक तथा हिन्दीतर भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषाओँ एवं अंग्रेजी के साथ हिंदी का अध्यन अनिवार्य किया जाएगा। यह संकल्प ”त्रिभाषा सूत्र” के नाम से विख्यात हुआ लेकिन इसे आज तक ठीक से लागू नहीं किया गया.
हिंदी आज तक राष्ट्र की सम्पर्क भाषा तक नहीं बन पाई। राजभाषा के रूप में उसे जो गौरव प्रदान किया गया था वह भी अधूरा है. इसके लिए सिर्फ दक्षिण भारत ही नहीं हम उत्तर भारत के लोग भी दोषी हैं.
फिर भी आज हिंदी वैश्विक स्तर पर फल-फूल रही है। उसका एक विशाल बाजार है. मैं आशा करता हूं कि कभी न कभी हिंदी को उसका उचित स्थान मिलेगा।
हिंदी दिवस के खास मौके पर आपके लिए यह लेख लिखने वाले लेखक ‘प्रोफेसर दिनेश कुशवाह हैं’. प्रो. कुशवाह अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय (रीवा) में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं. लेखक हिंदी भाषा के जानकर हैं और हिंदी भाषा को उसके सही स्थान में पहुंचाने के लिए प्रयासरत हैं. इन्होने हिंदी भाषा और इसकी वैज्ञानिकता से जुड़े कई लेख, कविताएं और पुस्तकें लिखीं हैं.