ठुमरी की रानी गिरिजा देवी, जिन्होंने गाने के लिए समाज से विद्रोह किया

All About Tumri Queen Girija Devi In Hindi | न्याज़िया बेगम: आज हम विकास के पथ पर बहोत आगे बढ़ चुके हैं। महिलाएं-पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं, आर्थिक रूप से भी वो बहोत सक्षम हो रही हैं इसके बावजूद हमारे समाज में महिलाओं और पुरुषों के बीच का अंतर नहीं जा रहा है। जो ज़िम्मेदारी महिला की है तो है वो उससे मूं नहीं मोड़ सकती, उसमें हुई भूल के लिए उसे माफ नहीं किया जा सकता भले ही उसने बाहर कितनी ही बड़ी उपलब्धि क्यों न हासिल कर ली हों। फिर संगीत की प्रतिभा पर तो बहोत से पहरे हैं हमारे समाज में, बहोत से दायरे हैं आज भी, तो आप 1950 के दशक की कल्पना आसानी से कर ही सकते हैं। इसलिए जब गिरिजा देवी ने इसे अपने क्षेत्र के रूप में चुना तो उन्हें भी कुछ ऐसी ही दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

ठुमरी की रानी गिरिजा देवी | Girija Devi, the Queen of Thumri

वैसे तो गिरिजा जी सेनिया और बनारस घराने की एक भारतीय शास्त्रीय गायिका थीं। उन्होंने शास्त्रीय और हल्के शास्त्रीय संगीत यानी उप शास्त्रीय संगीत का भी प्रदर्शन किया और ठुमरी की प्रतिष्ठा में और चार चांद लगाए जिसके लिए उन्हें ‘ठुमरी की रानी’ कहा गया पर यहां तक पहुंचने में उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। कैसे ? तो चलिए एक नज़र डालते हैं उनके बचपन से लेकर यहां तक के सफर पर।

गिरिजा देवी का जन्म और संगीत से लगाव

गिरिजा देवी का जन्म 8 मई 1929 को वाराणसी में एक जमींदार रामदेव राय के घर हुआ था, उनके पिता हारमोनियम बजाते थे और संगीत सिखाते थे। इसलिए बेटी गिरिजा को पांच साल की उम्र से गायक और सारंगी वादक सरजू प्रसाद मिश्रा से ख्याल और टप्पा गायन की शिक्षा दिलाई गई थी और अपनी प्रतिभा के दम पर ही उन्होंने नौ साल की उम्र में फिल्म याद रहे में अभिनय भी किया। यही नहीं पढ़ाई के साथ कला की विभिन्न शैलियों से वो जुड़ी रहीं, देखते ही देखते वो बड़ी हो गई और
सन 1946 में एक व्यवसायी से शादी करने के बाद, 1949 में ऑल इंडिया रेडियो इलाहाबाद में बतौर कलाकार काम करने लगीं।

गाने के लिए समाज से विद्रोह किया | Girija Devi rebelled against society for singing

लेकिन उन्हें अपनी माँ और दादी के विरोध का सामना करना पड़ा क्योंकि पारंपरिक रूप से ये माना जाता था कि किसी भी उच्च वर्ग की महिला को सार्वजनिक रूप से अपनी कला का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए इसके बाद गिरिजा देवी दूसरों के लिए निजी तौर पर प्रदर्शन न करने पर सहमत हुईं। लेकिन इन सब आपत्तियों के बावजूद उन्होंने 1951 में बिहार में अपना पहला सार्वजनिक संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जिसकी लोकप्रियता ने उन्हें फिर रुकने नहीं दिया। 1980 के दशक में कोलकाता में आईटीसी संगीत अनुसंधान अकादमी और 1990 के दशक की शुरुआत में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की संकाय सदस्य रहीं और कई छात्रों को अपनी,संगीत विरासत को संरक्षित करने के लिए सिखाया।

गिरिजा देवी गायन शैली | Girija Devi Singing Style

गिरिजा देवी ने बनारस घराने में गाया और परंपरा की विशिष्ट पुरबी अंग ठुमरी शैली का प्रदर्शन किया, और उसकी स्थिति को मज़बूत करने या ऊपर उठाने में अहम भूमिका निभाई। उनके प्रदर्शनों की सूची में अर्ध-शास्त्रीय शैलियाँ कजरी, चैती और होली शामिल थीं। तो वहीं ख्याल, भारतीय लोक संगीत और टप्पा भी रहा। द न्यू ग्रोव डिक्शनरी ऑफ म्यूजिक एंड म्यूज़िशियन्स ने एक बार कहा था कि उनके अर्ध-शास्त्रीय गायन ने उनके शास्त्रीय प्रशिक्षण को बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गीतों की क्षेत्रीय विशेषताओं के साथ जोड़ा है।

पुरस्कार और सम्मान

उन्हें 1972 में पद्म श्री से, 1989 में पद्म भूषण से और 2016 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
इसके अलावा उन्हें 1977 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 2010 में संगीत नाटक अकादमी फ़ेलोशिप और 2012 में महासंगीत सम्मान पुरस्कार मिला। यही नहीं संगीत सम्मान पुरस्कार (डोवर लेन संगीत सम्मेलन) और तनारिरी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया इसके अलावा कई अन्य पुरस्कार आपके नाम रहे।

गिरिजा देवी की मृत्यु

अपने लक्ष्य की ओर निरंतर अग्रसर रहते हुए वो 24 अक्टूबर 2017 को 88 वर्ष की उम्र में एक नए सफर पे चली गईं। हमें अपने संगीत की अमूल्य धरोहर सौंपकर वो हमसे बहोत दूर हो गईं। वो आज हमारे बीच नहीं हैं पर संगीत को अपना जीवन समर्पित करने वालों और संगीत प्रेमियों के दिलों में वो हमेशा जावेदाँ रहेंगी।

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