पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में आज हम लेकर आए हैं. कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे मिट्टी के उपकरण य बर्तन ( 10 वी किस्त). पिछले 5-6 दिनों से हम मिट्टी शिल्पियों द्वारा बनाए जाने वाले अनेक बर्तनों, उपकरणों की निरन्तर जानकारी देते आ रहे हैं। आज उसी श्रंखला में उन्ही द्वारा निर्मित कुछ अन्य बर्तन अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं।
पइना
पइना काले और लाल दोनों रंग का बनता है। प्राचीन समय में जब आज जैसी चिकित्सा सुविधा नही थी तो बैद्य उस समय बीमार पड़ने वाले ब्यक्ति को उपवास कराते थे। और तब इसी पइना का पका हुआ पानी पीने की सलाह देते थे। बीमार ब्यक्ति की सेवा करने वाले एक बार पानी को इस पइना में भर चूल्हे में पका देते और फिर उसी को दिन भर पिलाते रहते। लेकिन पानी पकाने के लिए जहाँ काले पइना का उपयोग होता था वहीं इस लाल वाले का उपयोग तो आज भी विवाह के अवसर पर मण्डप के नीचे लावा भूनने में होता है।
यही कारण है कि काले रंग वाला पइना तो उपयोगिता से बाहर विलुप्तता के श्रेणी में आ गया है। परन्तु विवाह संस्कार से जुड़े रहने के कारण लाल पइना की आज भी पूछ परख यथावत है। उस पइना को काला बनाने में आबा के आग में पकाते समय बार-बार पानी छिड़क वहां धुंआ उपन्न करना पड़ता था। पर लाल वाला पइना तमाम वर्तनों के साथ सहजता से ही पका लिया जाता है।
मरका
प्राचीन समय में जब ड्रम और पम्प वगैरह की आज जैसी सुबिधा नही थी तो बारात एवं यज्ञ भंडारे में पीने का पानी इन्हीं मरकों में भरा जाता था। यह आकार में अन्य मिट्टी के वर्तनों से बड़े व मोटे दल के होते थे जिससे साधारण धक्के से फूट न जाँय। बाद में पानी के उपयोग के पश्चात यही भंडार ग्रह में आनाज रखने के काम भी आते रहते थे। परन्तु अब पूर्णतः चलन से बाहर हैं।
तरछी
मरकों को यदि कुछ कलात्मक ढंग से गोंठ कर मोटे दल एवं चौड़े पेंदे युक्त बना दिया जाय जिससे वह दही बिलोते समय लुढ़के न तो वही फिर (तरछी) कहलाने लगता था। लेकिन अगर सँकरी पेंदी के मरके के पेंदे में कुछ मिट्टी छाप उसे चौड़ा बना दिया जाय तो उससे भी तरछी का काम लिया जा सकता था। क्योकि मिट्टी छप जाने से पेंदी चौकोर हो जाती थी तो दही में मथानी चलाते समय उसके लुढ़कने की समस्या नही रह जाती थी।आज बस इतना ही कल फिर लेकर आएंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी।