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EPISODE 12 : कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे मिट्टी के उपकरण य बर्तन FT. पद्मश्री बाबूलाल दहिया

पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में आज हम लेकर आए हैं, कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे मिट्टी के उपकरण य बर्तन (12वी किस्त) कल हमने मिट्टी शिल्पियों द्वारा बनाए जाने वाले नाद , डहरी, कूँड़ा आदि की जानकारी दी थी। आज उसी श्रंखला में उन्ही द्वारा निर्मित कुछ अन्य बर्तनों की जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं।

तेलहड़ा

हमारे कृषि आश्रित समाज में तेल की आपूर्ति करने वाला एक समुदाय था जिसे तेली कहा जाता था। उसकी अजीविका कोल्हू से तेल निकाल उसे घर – घर पहुँचाने से ही जुड़ी थी। अस्तु उस समुदाय के मिट्टी के बर्तन भी अन्य लोगों के उपयोग से कुछ भिन्न तरह के होते थे। उनके उपयोग वाले बर्तन को (तेलहड़ा ) कहा जाता था। यूं तो उसकी बनावट डबुला जैसी ही होती थी पर उसका दल कुछ अधिक मोटा बनाया जाता था। और मोहड़ा भी अधिक चौड़ा होता था। तेलहड़ा दो प्रकार के काम में उपयोगी थे।पहला कोल्हू से निकलने वाले तेल को एकत्र करने के लिए जो कोल्हू के पास ही एक गड्ढे में रखा जाता था। उसको रख देने से पेरा जा रहा तेल कोल्हू से निकल उसमें एकत्र होता रहता। और दूसरा वह जिसमें तेल भरकर घर – घर पहुँचाया जाता। कोल्हू से तेल एकत्र करने वाला घर -घर पहुँचाने वाले से कुछ अधिक बड़ा होता था। पर अब न तो कोल्हू बचा ,न कोल्हू वाला तेल और वह दोनों बर्तन ही।

परबा


मिट्टी शिल्पियों के समस्त वर्तनों और उपकरणों की यदि श्रंखला को देखा जाय तो कोई भी ब्यक्ति उन्हें धन्यवाद देने में पीछे नही रहेगा। क्योकि उनने कृषि आश्रित समाज की हर आवश्यकता के अनुसार उपयोग की सामग्री तैयार की है। जब उनने चावल पकाने के लिए हड़िया बनाया या पानी पीने के लिए मटका को आकार दिया तो उसके मुँह को ढकने के लिए परबा और परई की भी परिकल्पना की जिससे पानी गन्दा न हो और उसमें उड़कर पत्ते तिनके धूल आदि न पड़ें। बस परबा की यही उपयोगिता थी कि जहां भी मटके में पीने के लिए पानी रखा जाय तो ढकने के लिए वहां एक परबा अवश्य हो। क्योकि उसका मटके के उसी तरह का साथ था जैसे कांडी के साथ मूसल य तबा के साथ चिमटे का। परन्तु अब मटके परबा की परम्परा भी समाप्त सी होती जा रही है।

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परइया

परइया परबा की तरह ही बर्तन के मुँह को ढकने की एक वस्तु है जो परबा से कुछ छोटी और दिया से बड़ी होती है। इसको मुख्यतः कुम्भकारों ने चावल पकाने वाली हंड़िया एवं दाल पकाने वाली तेलइया को ढकने के लिए बनाया था कि खाना पकाते समय व्यर्थ ही उनकी भाप न उड़जाय बल्कि उसका बेहतर उपयोग हो। शायद इसीलिए किसी बातूनी ब्यक्ति के अनावश्यक बकवास पर कहावत बनी होगी कि,
हड़िया के मुँह म परइया देय,
मनई के मुँह मा का देय?

आज जब हड़िया तेलइया का प्रचलन ही समाप्त है तो परइया भी चलन से बाहर है।

दिया


दिया ऐसा प्राचीनतम पात्र है जिसका हजारों वर्ष का पुराना इतिहास है। क्योकि प्राचीन समय में जब न तो बिजली थी न ही मिट्टी का तेल तब भी लोग अलसी सरसों के तेल को दिए में डाल कर जलाते थे। यही कारण है कि दीपक जलाना आज भी हमारे अनेक संस्कारों में शामिल है। दिया मुख्य रूप से दीपावली को जलाई जाती हैं। यही कारण है कि कुम्भकार लोग दीपावली से पहले विशेष रूप से चाक से उसे बना और आबा में पकाकर घर – घर पहुँचाते है।

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