भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहब फाल्के

Dadasaheb Phalke Lifestory In Hindi: आज भारत का शायद हर दूसरा नौजवान फिल्मों में काम करने के बारे में सोचता है, क्योंकि हमारे पास अब बहोत फिल्में हैं लेकिन एक ज़माना वो भी था जब भारत में फिल्में बनती ही नहीं थी तब कोई था जिसने सोचा फिल्म बनाने के बारे में, इसकी शुरूआत करने के बारे में,जिनकी बदौलत। आज फ़िल्म प्रोडक्शन के आधार पर भारतीय फ़िल्म उद्योग दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योग में से एक है, हम बात कर रहे हैं दादा साहेब फाल्के की।

Dadasaheb Phalke Birth Anniversary

कितना मुश्किल था उनका यहां तक का सफर :-

पर उन्हें फिल्म बनाने में कितनी मुश्किलें आईं, कैसे उन्होंने मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई ? ये सब जानने के लिए आइए जानते हैं, दादासाहब फाल्के जी को, जिनका असल नाम धुंडीराज गोविंद फाल्के था, जिनके पास उस वक्त भी इतना माद्दा था कि, वो तीन भूमिकाएं ख़ुद ही निभा रहे थे, निर्माता-निर्देशक- और पटकथा लेखक की, और यही वो कार्यकुशलता और लगन थी जिसकी वजह से उन्हें” भारतीय सिनेमा के जनक ” के रूप में जाना जाता है।


उनकी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र 1913 में रिलीज़ हुई जो पहली भारतीय फिल्म थी। और इसे भारत की पहली पूर्ण लंबाई वाली फीचर फिल्म के रूप में जाना जाता है। उन्होंने 1937 तक अपने 19 साल के करियर में 95 फीचर-लेंथ फिल्में और 27 लघु फिल्में बनाईं, जिनमें उनकी सबसे प्रसिद्ध कृतियां रहीं 1913 में आई मोहिनी-भस्मासुर, 1914 में सत्यवान सावित्री, 1917 की लंका दहन, 1918 की श्री कृष्ण जन्म और 1919 की कालिया मर्दन।

कौन थे और कहां से आए थे दादा साहब फाल्के:-

तो चलिए हम उन्हें जानने की कोशिश करते हैं और क़रीब से, धुंडीराज फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को त्रिंबक, बॉम्बे प्रेसीडेंसी में एक मराठी भाषी चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता गोविंद सदाशिव फाल्के उर्फ ​​दाजीशास्त्री एक संस्कृत विद्वान थे और एक हिंदू पुजारी के रूप में धार्मिक समारोह आयोजित करते थे। और उनकी मां द्वारकाबाई एक गृहिणी थीं, जिनके आपको मिलाके सात बच्चे थे, तीन बेटे और चार बेटियां।

कला की पढ़ाई और घर गृहस्थी:-

फाल्के जी ने 1885 में सर जे .जे . स्कूल ऑफ आर्ट, बॉम्बे से ड्राइंग में एक साल का कोर्स पूरा किया था फिर 1886 की शुरुआत में वो अपने बड़े भाई शिवरामपंत के साथ बड़ौदा गए जहां उन्होंने मराठा परिवार की एक लड़की से शादी की। बाद में वो बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय में ललित कला संकाय कला भवन में शामिल हो गए और 1890 में तेल चित्रकला और जल रंग चित्रकला में एक कोर्स पूरा किया।
यही नहीं उन्होंने वास्तुकला और मॉडलिंग में भी दक्षता हासिल की, इन सब कलाओं में निपुणता हासिल करने के बाद, उसी साल फाल्के जी ने एक फिल्म कैमरा खरीदा और फोटोग्राफी प्रसंस्करण और मुद्रण के साथ प्रयोग करने शुरू कर दिए।

सीखी फोटोग्राफी की नई तकनीक :-

1891 में फाल्के ने हाफ-टोन ब्लॉक, फोटो-लिथियो और तीन-रंग सिरेमिक फोटोग्राफी तैयार करने की तकनीक सीखने के लिए छह महीने का कोर्स किया। उनकी लगन देखकर कला भवन के प्रिंसिपल गज्जर ने फाल्के को बाबूलाल वरुवलकर के मार्गदर्शन में त्रि-रंग ब्लॉकमेकिंग, फोटोलिथो ट्रांसफर, कोलोटाइप और डार्करूम प्रिंटिंग तकनीक सीखने के लिए रतलाम भेजा।


सम्मान में मिला स्वर्ण पदक और उपहार में मिला महंगा कैमरा :-

1892 में अहमदाबाद की औद्योगिक प्रदर्शनी में एक आदर्श थिएटर का मॉडल बनाने के लिए उन्हें स्वर्ण पदक से भी सम्मानित किया गया था। और उनके काम की बहुत सराहना की गई और उनके एक प्रशंसक ने उन्हें एक “महंगा” कैमरा उपहार में दिया, जिसका उपयोग स्थिर फोटोग्राफी के लिए किया जाता था।
1893 में गज्जर जी ने ही फाल्के को कला भवन के फोटो स्टूडियो और प्रयोगशाला का उपयोग करने की अनुमति दी, जहाँ उन्होंने “श्री फाल्के की उत्कीर्णन और फोटो प्रिंटिंग” के नाम से अपना काम शुरू किया। विभिन्न कौशलों में दक्षता के बावजूद, उनका पारिवारिक जीवन स्थिर नहीं था और उन्हें जीवन यापन करने में बहुत मुश्किलें पेश आ रही थीं।

आर्थिक तंगी ने बना दिया था फोटोग्राफर :-

इसलिए 1895 में उन्होंने एक पेशेवर फोटोग्राफर बनने का फैसला किया और व्यवसाय करने के लिए गोधरा आ गए। 1900 की प्लेग महामारी में उन्होंने अपनी पत्नी और एक बेटे को खो दिया जिसके बाद फाल्के बड़ौदा लौट आए और फोटोग्राफी का काम शुरू किया पर ये ठीक से नहीं चला। क्योंकि शहर भर में ये मिथक फैल गया था कि कैमरा किसी व्यक्ति के शरीर से ऊर्जा खींच लेता है जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है। इस वजह से उन्हें बड़ौदा के राजकुमार से भी इसी तरह के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, जिन्होंने इस धारणा के साथ तस्वीरें लेने से इनकार कर दिया था कि इससे उनका जीवन छोटा हो जाएगा। हालाँकि बाद में फाल्के जी ने राजकुमार को मना लिया, और उन्होंने ही फिर अपने दरबार में फोटोग्राफी के फायदों की बात करके तरफदारी भी की।

नाटक भी किए जादू भी सीखा:-

फोटोग्राफी से भी फाल्के जी को कोई फायदा नहीं हुआ और उन्होंने नाटक कंपनियों के लिए मंच के पर्दों को रंगने का काम शुरू किया। इससे उन्हें नाटक निर्माण में कुछ बुनियादी प्रशिक्षण मिला और नाटकों में कुछ छोटी भूमिकाएँ भी मिलीं।
आपको ये जान कर और भी हैरानी होगी कि फाल्के जी ने एक जर्मन जादूगर से जादू के करतब भी सीखे, जो उस समय बड़ौदा के दौरे पर थे। इससे उन्हें फिल्म निर्माण में ट्रिक फोटोग्राफी का उपयोग करने में मदद मिली। 1901 के अंत में फाल्के ने प्रोफेसर केल्फा के पेशेवर नाम का उपयोग करते हुए अपने अंतिम नाम के अक्षरों को उल्टे क्रम में इस्तेमाल करते हुए जादू का सार्वजनिक प्रदर्शन करना शुरू किया।

प्रिंटिंग प्रेस का भी किया रुख़ :-

1902 में फाल्के ने किर्लोस्कर नाटक मंडली के मालिक की भतीजी गिरिजा करंदीकर से शादी की। शादी के बाद गिरिजा जी का नाम बदलकर आपने सरस्वती रख दिया। 1903 में उन्हें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में एक फोटोग्राफर और ड्राफ्ट्समैन के रूप में नौकरी मिल गई। हालाँकि नौकरी से संतुष्ट नहीं होने पर फाल्के जी ने 1906 में इस्तीफा दे दिया।
इसके बाद आरजी भंडारकर के साथ मिलकर आपने “फाल्के एनग्रेविंग एंड प्रिंटिंग वर्क्स” के नाम से लोनावला में एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की।

अंग्रेज़ी फिल्म देखकर आंखों के सामने आए राम और कृष्ण के चित्र :-

पर भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था इसलिए इसमें भी सफलता नही मिली, इसी बीच 14 अप्रैल 1911 को फाल्के जी अपने बड़े बेटे भालचंद्र के साथ, अमेरिका इंडिया पिक्चर पैलेस गिरगांव बॉम्बे में अमेजिंग एनिमल्स नामक फिल्म देखने गए। स्क्रीन पर जानवरों को देखकर आश्चर्यचकित भालचंद्र ने उस दिन पहले अपनी मां सरस्वती बाई को अपने अनुभव के बारे में बताया। पर उन्होंने विश्वास नहीं किया इसलिए फाल्के कुछ दिनों बाद अपने पूरे परिवार को फिल्म दिखाने ले गए। चूंकि ये ईस्टर का दिन था इसलिए थिएटर ने यीशु के बारे में फ्रांसीसी निर्देशक ऐलिस गाइ-ब्लाचे की फिल्म द लाइफ ऑफ क्राइस्ट दिखाई। स्क्रीन पर यीशु को देखते समय फाल्के ने हिंदू देवताओं राम और कृष्ण की कल्पना शुरू कर दी, और थियेटर में बैठकर फिल्म देख रहे धुंदीराज गोविंद फाल्के के मन मस्तिष्क ने कल्पनाओं का संसार रचते हुए अपने धार्मिक पात्रों को परदे पर उकेर दिया। उन्होंने तालियां पीटते हुए निश्चय किया कि वो भी भारतीय धार्मिक और मिथकीय चरित्रों को रूपहले पर्दे पर जीवंत करेंगे। दादा साहेब को अपना लक्ष्य बिल्कुल साफ दिख रहा था और उन्होंने “चलती-फिरती तस्वीरों” का व्यवसाय शुरू करने का फैसला किया।

चलती फिरती तस्वीरों को पर्दे पर उकेरने की धुन ने छीनी आंखों की रौशनी :-

अगले एक वर्ष के लिए, फाल्के ने यूरोप से विभिन्न फिल्म से जुड़ी सामग्री जैसे कैटलॉग, किताबें और फिल्म निर्माण उपकरण इकट्ठा करना शुरू कर दिया। उन्होंने एक छोटा फिल्म कैमरा और रीलें खरीदीं और रात में मोमबत्ती की रोशनी को एक लेंस पर केंद्रित किया और चित्रों को दीवार पर प्रक्षेपित करके फिल्में दिखाना शुरू कर दिया। वो हर शाम चार से पांच घंटे तक फिल्में देखते थे और उनकी नींद पूरी नहीं होती थी। इससे उनकी आंखों पर दबाव पड़ा और उनकी दोनों आंखों में मोतियाबिंद हो गया। डॉक्टरों ने उन्हें आराम करने की सलाह दी पर उन्होंने एक न सुनी जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने कुछ समय के लिए अपनी आंखों की रौशनी खो दी थी जिसके बाद उस दौर के नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ. प्रभाकर ने तीन या चार जोड़ी चश्मों की सहायता से फाल्के का इलाज किया तब जाके वो ठीक हुए।

इसके बाद भी वो रुके नहीं :-

फाल्के जी फिल्म निर्माण का तकनीकी ज्ञान प्राप्त करने के लिए लंदन जाना चाहते थे, लेकिन इतने पैसे थे नहीं फिर यशवंतराव नाडकर्णी और अबासाहेब चिटनीस की मदद से, उन्होंने अपनी बारह हज़ार की बीमा पॉलिसियों को गिरवी रखकर दस हज़ार की राशि जुटाई। 1 फरवरी 1912 को वो लंदन के लिए एक जहाज़ पर सवार हुए, और वहां पहुंचकरहेपवर्थ से मुलाकात की जिन्होंने फाल्के जी को फिल्मांकन के प्रदर्शन के साथ-साथ स्टूडियो के सभी विभागों और उनके कामकाज का दौरा करने की अनुमति दी। कैबर्न और हेपवर्थ की सलाह पर उन्होंने पचास पाउंड में विलियमसन कैमरा खरीदा और कोडक रॉ फिल्म और एक परफोरेटर का ऑर्डर दिया।

लंदन से लौटते ही किया “फाल्के फिल्म्स कंपनी” का निर्माण:-

फाल्के जी क़रीब दो महीने तक लंदन में रहे और 1 अप्रैल 1912 को भारत लौट आए, उसी दिन “फाल्के फिल्म्स कंपनी” की स्थापना की और फिल्मों की शूटिंग के लिए एक विशाल जगह की तलाश शुरू कर दी। जिसके लिए उन्होंने बंगले के परिसर में एक छोटा कांच का कमरा बनवाया और फिल्म के प्रसंस्करण के लिए एक अंधेरा कमरा और व्यवस्था तैयार की। मई 1912 में फिल्म निर्माण उपकरण बंबई पहुंचे और फाल्के जी के प्रदान किए गए स्केच की मदद से चार दिनों के भीतर इसे स्थापित किया। उन्होंने अपने परिवार को भी फिल्म में छेद करना और इसको बढ़ाना सिखाया। कैमरे और प्रोजेक्टर की कार्यप्रणाली का परीक्षण करने के लिए फाल्के ने आसपास के लड़के और लड़कियों का फिल्मांकन किया, जिसके परिणाम संतोषजनक रहे।

अपने प्रयोगों को परखने के लिए बनाई लघु फिल्म “अंकुराची वध “:-

फिल्म निर्माण तकनीकों का प्रदर्शन करने और फीचर फिल्म के लिए फाइनेंसर प्राप्त करने के लिए, फाल्के जी ने एक लघु फिल्म बनाने का फैसला किया। पर इससे पहले इस बात की तस्दीक करने के लिए उन्होंने एक गमले में कुछ मटर के पौधे लगाए और उसके सामने एक कैमरा रख दिया। उन्होंने बीज के उगने अंकुरित होने और एक पर्वतारोही में बदलने की एक मिनट से अधिक की फिल्म का निर्माण करते हुए एक महीने से अधिक समय तक प्रतिदिन एक फ्रेम शूट किया। फिर “अंकुराची वध ” यानी “मटर के पौधे की वृद्धि ” , शीर्षक वाली इस लघु फिल्म को चुनिंदा व्यक्तियों को दिखाया गया है। जिनमें यशवंतराव नाडकर्णी और नारायणराव देवहरे भी शामिल थे।

इतने प्रयोगों के बाद कहीं जाकर बनीं फिल्म राजा हरिश्चंद्र:-

फाल्के ने हरिश्चंद्र की कथाओं पर आधारित एक फिल्म बनाने का निर्णय लिया और इसकी पटकथा लिखी। उन्होंने इंदुप्रकाश जैसे विभिन्न समाचार पत्रों में फिल्म के लिए आवश्यक कलाकारों और चालक दल के लिए विज्ञापन प्रकाशित किया।


ये वो दौर था जब महिलाएं फिल्म में काम करने के लिए नहीं आईं आगे :-

चूँकि महिला प्रधान भूमिका निभाने के लिए कोई महिला उपलब्ध नहीं थी, इसलिए पुरुष अभिनेताओं ने महिलाओं की भी भूमिकाएँ निभाईं। अन्ना सालुंके टीम के रसोइया थे जिन्होंने तारामति का किरदार निभाया था ,फिल्म का नाम रखा गया-
” राजा हरिश्चंद्र”। दत्तात्रय दामोदर दाबके ने राजा हरिश्चंद्र की मुख्य भूमिका निभाई और अन्ना सालुंके ने रानी तारामती की। फाल्के के बड़े बेटे भालचंद्र को भूमिका सौंपी गई, हरिश्चंद्र और तारामती के बेटे रोहिताश की। फाल्के पटकथा, निर्देशन, उत्पादन डिज़ाइन, मेकअप, संपादन और फिल्म प्रसंस्करण के प्रभारी थे और त्रिंबक बी. तेलंग ने कैमरा संभाला था। पत्नी सरस्वती बाई ने पूरी टीम का एक मां की तरह से ख्याल रखा। यहां हम आपको ये भी बताते चलें कि दादासाहेब तोरण की मूक फिल्म श्री पुंडलिक को पहली भारतीय फिल्म मानते हुए बहस की गई थी पर भारत सरकार “राजा हरिश्चंद्र “को पहली भारतीय फीचर फिल्म के रूप में मान्यता देती है।

दूसरी कंपनी में भी संभाल निर्देशन की कमान :-

हिंदुस्तान सिनेमा फिल्म्स कंपनी में शामिल होने के बाद फाल्के द्वारा निर्देशित पहली फिल्म संत नामदेव थी जो 28 अक्टूबर 1922 को रिलीज़ हुई थी। इसके बाद उन्होंने 1929 तक कंपनी के लिए फिल्मों का निर्देशन किया। हालांकि इनमें से किसी भी फिल्म को उनकी पिछली फिल्मों की तुलना में तुलनीय सफलता नहीं मिली, गंगावतरण फाल्के द्वारा निर्देशित एकमात्र सवाक फ़िल्म थी।

मार्गदर्शक बनकर रह गए पीछे :-

समय बदला और फाल्के ध्वनि फिल्म की उभरती तकनीक से नहीं जुड़ पाए, वो व्यक्ति जिसने भारतीय फिल्म उद्योग को जन्म दिया था अब उसकी फिल्म तकनीक अप्रचलित हो गई। उनकी आखिरी मूक फिल्म सेतुबंधन 1932 में रिलीज़ हुई थी और बाद में डबिंग के साथ रिलीज़ हुई थी। शायद 1936-1938 के दौरान अपनी आखिरी फिल्म गंगावतरण (1937) का निर्माण किया, जो फाल्के द्वारा निर्देशित एकमात्र बोलती फिल्म थी। इसके बाद बढ़ती उम्र की वजह से उन्होंने फिल्मों से दूरी बना ली और 16 फरवरी 1944 को वो इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह गए।

यादगार फिल्मों से रचा इतिहास:-

राजा हरिश्चंद्र से शुरू हुआ उनका करियर 19 सालों तक चला। राजा हरिश्चंद्र की सफलता के बाद अपने फिल्मी करियर में उन्होंने 95 फिल्म और 26 शॉर्ट फिल्में बनाईं। उनकी बेहतरीन फिल्मों में मोहिनी-भस्मासुर, सत्यवान सावित्री, लंका दहन, श्री कृष्ण जन्म और कालिया मर्दन शामिल हैं। उनकी आखिरी मूक फिल्म सेतुबंधन थी और आखिरी फिल्म थी गंगावतरण।

भारतीय फिल्मों की पहचान और सम्मान बनकर आज भी वो हमारे साथ हैं :-

सिनेमा में आजीवन योगदान के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार की स्थापना 1969 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में की गई थी, ये पुरस्कार भारतीय सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक है और देश में फिल्मी हस्तियों के लिए सर्वोच्च आधिकारिक मान्यता है, ये भी बताते चलें कि सबसे पहले ये पुरस्कार पाने वाली थीं देविका रानी चौधरी। दादा साहब को सम्मानित करने के लिए इंडिया पोस्ट ने एक डाक टिकट भी जारी किया गया था। भारतीय सिनेमा में आजीवन उपलब्धि के लिए दादा साहब फाल्के अकादमी मुंबई की ओर से एक मानद पुरस्कार वर्ष 2001 में शुरू किया गया था। 30 अप्रैल 2018 को Google ने भारतीय सिनेमा के निर्माता को उनके जन्म के 148वें वर्ष पर सम्मानित किया। इस गूगल डूडल को कनाडा, भारत, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में प्रदर्शित किया गया।

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