Bagheli Lok Katha | रीवा के बिजायंठ की कहानी

Bagheli Lok Katha: इतिहास केवल ताम्रपत्रों, ग्रंथों और अभिलेखों में ही कैद नहीं रहता, बल्कि वह लोकजीवन की स्मृतियों, कहावतों और किस्सों में भी साँस लेता है। भारत जैसी विशाल परंपराओं वाले देश में तो यह और भी स्पष्ट है, जहाँ ऋग्वेद जैसे आदिग्रंथ पीढ़ियों तक श्रुति परंपरा से चले और बाद में लिपिबद्ध हुए। हमारे यहाँ अक्सर वही बात इतिहास बन गई, जो लोकमान्यता के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाई और मानी जाती रही, चाहे उसकी सच्चाई संदिग्ध ही क्यों न हो।

विंध्य क्षेत्र भी ऐसे ही अनगिनत किस्सों और मान्यताओं से भरा पड़ा है। यहाँ के बड़े-बूढ़ों की जुबान पर आज भी कुछ ऐसे प्रसंग सुनने को मिलते हैं, जो प्रमाण से अधिक विश्वास पर टिके हैं। इन्हीं में एक लोकप्रिय किंवदंती है “बिजायठ” की। कहते हैं रीवा के राजघराने के पास एक अनुपम रत्नजड़ित बाजूबंद हुआ करता था, जिसे “बिजायठ” कहा जाता है। यह किस्सा सच है या कल्पना, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन इसकी लोकप्रियता ने इसे लोक-इतिहास का हिस्सा बना दिया है। तो चलिए पहले जानते हैं बिजायठ का किस्सा और उसके बाद थोड़ा सा उसके इतिहास का भी पड़ताल करेंगे।

बिजायंठ की कहानी

कुछ पुरानी बात है रीवा राज्य में एक बहेलिया रहता था, जिसकी पत्नी अत्यंत रूपवती थी, एक दिन वह शिकार करके लाया और स्त्री को मांस पकाने के लिए दे दिया, स्त्री मांस धो रही थी, तभी जाने कहाँ से एक चील आया और मांस का एक छोटा सा टुकड़ा पंजों से उठा कर उड़ने लगा, यह देख बहेलिया की स्त्री तेज स्वर से चिल्लाई, जिसके कारण उड़ते हुए चील के पंजों से मांस का टुकड़ा गिर गया, यह देखकर स्त्री हंसने लगी। पत्नी को यूं रहस्यमयी ढंग से हँसते देख पति ने, इसका कारण पूछा, स्त्री ने जवाब दिया बस ऐसे ही। लेकिन पति को उसके जवाब से संतोष नहीं हुआ और बार-बार पूछने लगा, लेकिन स्त्री बार-बार मना कर देती थी, जिसके बाद बहेलिया को लगा जरूर यह किसी परपुरुष को देखकर हंसी, इसीलिए वह बता नहीं रही है। इसीलिए पति ने उससे कहा, तुम जरूर किसी दूसरे पुरुष को देखकर हंसी हो, इसीलिए बता नहीं रही हो, अगर तुमने अपनी हंसी का कारण नहीं बताया तो, मैं तुझे घर से बाहर निकाल दूंगा।

अपनी चरित्र पर संदेह होते देख स्त्री ने सोचा, अगर मैंने अपनी हंसी का कारण बता दिया तो मेरी मृत्यु हो जाएगी, लेकिन अगर मैंने नहीं बताया तो, मेरा पति मेरे चरित्र पर शक कर मुझे घर से निकाल देगा, उसके बाद मैं कलंक से मर जाऊंगी, मृत्यु तो मेरी दोनों ही परिस्थितियों में तय है। यह सोचकर पत्नी ने कहा- चलो अपनी हंसी का रहस्योद्घाटन मैं राजा के सामने करूंगी। दोनों पति-पत्नी राज दरबार पहुंचे, घटना के बारे में जानकर राजा ने कहा-तुम मुझसे कहो, तुम्हारी हंसी का क्या कारण है, स्त्री ने कहा महाराज हंसी का कारण बताते ही मेरी मृत्यु हो जाएगी, लेकिन फिर भी मैं बताती हूँ, मेरी बात आपको विस्मयकारी और अविश्वसनीय लगेगी, लेकिन सुनिए मैं कहती हूँ।

महाराज महाभारत युद्ध के समय मैं भी एक चील थी। एक दिन भीषण युद्ध में कौरव योद्धा भूरिश्रवा का हाथ अर्जुन के बाण से कटकर गिरा। मैं उस हाथ को उठाकर कुरुक्षेत्र से उड़ चली और यहाँ इतनी दूर तक बिना रुके और थके उड़ती रही और यहाँ आकर एक विशाल वटवृक्ष पर बैठी। लेकिन मेरे अत्यधिक भार को वह विशाल वटवृक्ष की डाल भी संभाल नहीं पाई और वह टूट गई, इसके साथ ही वह कटा हाथ भी कुएँ में गिर गया। आज जब मैंने देखा कि एक चील मेरी डाँट से छोटा-सा मांस भी सँभाल न सकी, तो मुझे अपने उस रूप की याद आई जब मैं कुरुक्षेत्र से प्रयाग तक इतना भारी हाथ उठाकर लाई थी। तो महाराज इसी कारण मैं हँसी थी, किसी परपुरुष को देखकर नहीं। यह सुन राजा ने कहा- मैं कैसे मानू तू सत्य कह रही है, जवाब में स्त्री ने कहा- उस कटे हुए हाथ में एक बहुमूल्य बाजूबंद जड़ा था, तो महाराज आप मेरे द्वारा बताए गए, उस कुएं को साफ करवाइए, वह बहुमूल्य बिजायंठ वहाँ आपको मिल जाएगी, वही मेरी सत्यता का प्रतीक होगा, इसके बाद वह बहेलिया की स्त्री भूमि पर गिर गई और उसकी मृत्यु हो गई। राजा ने उस कुएं की सफाई करवाई और वह बहुमूल्य बाजूबंद उन्हें प्राप्त हो गया।

रीवा के बघेल राजाओं से संबंधित नहीं है कहानी

इतिहास की पड़ताल के बाद यह पता चलता है, यह किस्सा रीवा के बघेल राजाओं से नहीं, बल्कि त्योंथर पर शासन करने वेणुवंश या बेनवंश से है। इनका शासन समय रीवा के तराई अंचल और प्रयाग के आस-पास के क्षेत्रों में था, इनकी राजधानी उस समय झूंसी थी, इस घटना के समय वहाँ का राजा गनपत शाह था। स्थानीय इतिहासकारों के अनुसार चंदेल और कल्चुरियों के पतन के बाद इस क्षेत्र में कई गैर क्षत्रियों ने भी अपने छोटे-छोटे ठिकाने स्थापित कर लिए थे, इनमें मुख्यतः कोल थे, जिनके कम से कम चार ठिकानों के बारे में हमें ज्ञात है, इनमें से एक त्योंथर के पास था, बाद इन कोलों के ऊपर भूर्तिया जाति के लोगों ने आक्रमण कर उनके गढ़ पर अधिकार कर लिया। आगे चलकर झूंसी के वेणुवंशी राजा गनपत शाह ने इस क्षेत्र को जीत लिया, वर्तमान त्योंथर की गढ़ी का निर्माण इसी राजा द्वारा करवाया गया था। गनपत शाह ने ही झूंसी की जगह त्योंथर को अपनी राजधानी बनाया था, क्योंकि यह स्थान दो नदियों संगम पर स्थित होने के कारण अत्यंत सुरक्षित थी और झूंसी जैसे ही थी। दरसल त्योंथर शब्द दो शब्दों के सहयोग से बना है, त्यों+थर जहाँ त्यों का अर्थ होता है वैसा ही और थर का अर्थ है स्थल, अर्थात वैसा ही स्थान।

1857 तक चला था वेणुवंशियों का शासन

रीवा के त्योंथर क्षेत्र में वेणुवंशियों के शासन बहुत दिनों तक रहा है। कहते हैं भुर्तिया समाज के कुछ सयाने लोग आज भी त्योंथर में पानी नहीं पीते, क्योंकि उनके पूर्वजों को यहाँ से अपमानित करके निकाला गया था। खैर बाद में जब बघेलों का आगमन यहाँ हुआ और उन्होंने इस समस्त क्षेत्र पर अधिकार कर लिया, बाद में 16 वीं शताब्दी में राजा वीरसिंह ने अपने छोटे भाई नागमल देव को यह क्षेत्र दे दिया, जो क्योटी में रहकर इस क्षेत्र पर शासन करता था। लेकिन सामंत के रूप में वेणुवंशियों कई ठिकाने यहाँ महाराज रघुराज सिंह के समय तक रहे हैं, सोनौरी के वेणुवंशी ठाकुर बाबू जगमोहन सिंह 1857 की क्रांति में सक्रिय भागीदार थे।

महाभारत में भी वर्णित है भूरिश्रवा का किस्सा

भूरिश्रवा की बांह कटने की कथा महाभारत में भी वर्णित है, जिसके अनुसार, युद्ध के चौदहवें दिन कौरव पक्ष के भूरिश्रवा और पांडव पक्ष के सात्यिकी के मध्य युद्ध हो रहा था, यद्यपि सात्यिकी महारथी था, परंतु प्रातःकाल से युद्ध कर रहा सात्यिकी अब तक थक चुका था, उसका रथ भी भी टूट गया था, इस मौके का फायदा उठाते हुए भूरिश्रवा ने उससे मल्लयुद्ध करते हुए लात के प्रहार से भूमि पर गिरा कर, बायें हाथ से उसकी चोटी पकड़ कर, दायें हाथ में तलवार लेकर उसका गला काटने लगा। कुछ ही दूर युद्ध कर रहे अर्जुन ने जब यह दृश्य देखकर, श्रीकृष्ण की प्रेरणा से भूरिश्रवा पर तीर चला दिया, जिसके कारण तलवार पकड़े हुए उसका दाहिना हाथ कटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, यह दृश्य देखकर भूरिश्रवा अत्यंत क्रोधित हुआ और अपनी कटी हुई भुजा को अपने बाएं हाथ से उठाकर अर्जुन की तरफ फेंक दी थी।

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