Aravalli Hills Controversy | जानिए क्या है अरावली पर्वतमाला विवाद

Aravalli Hills Controversy: अरावली को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई परिभाषा के बाद देशभर में जबरदस्त विवाद छिड़ गया है। पक्ष और विपक्ष आमने-सामने हैं, आरोप-प्रत्यारोप तेज़ हैं और सोशल मीडिया पर सेव अरावली एक जनआंदोलन की तरह उभर कर सामने आ गया। लेकिन यह विवाद आखिर है क्या और भारतीय उपमहाद्वीप में अरावली का ऐतिहासिक, भौगोलिक और पर्यावरणीय महत्व।

अरावली पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

अरावली विवाद मूल रूप से परिभाषा, संरक्षण और दोहन से जुड़ा हुआ मामला है। अरावली पर्वतमाला गुजरात से लेकर राजस्थान और हरियाणा होते हुए दिल्ली तक फैली है। वर्षों से इसे वन क्षेत्र, पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र मानकर संरक्षित किया जाता रहा है। लेकिन इस पूरे विवाद की शुरुआत होती है सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय से। दरअसल, अरावली की पहाड़ियों में लंबे समय से अवैध खनन जारी है। इसे रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से एक अहम सवाल पूछते हुए जवाब मांगा। क्या अरावली पहाड़ियों की कोई स्पष्ट और वैज्ञानिक परिभाषा मौजूद है? क्योंकि अदालत ने पाया कि आज की डेट में अलग-अलग राज्य अपने-अपने हिसाब से तय करते हैं कि कौन-सा भूभाग पहाड़ है और कहाँ खनन की अनुमति दी जा सकती है। इसी भ्रम को दूर करने के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने एक विशेषज्ञ समिति गठित की, अब इस समिति ने सुप्रीम कोर्ट को जो सिफारिशें सौंपीं, वही आज विवाद का केंद्र हैं। जिसके अनुसार यदि किसी पहाड़ या पहाड़ियों की ऊँचाई 100 मीटर या उससे अधिक है, तो उसके चारों ओर 500 मीटर का क्षेत्र अरावली रेंज माना जाएगा। यदि पास में एक और पहाड़ है जिसकी ऊँचाई 100 मीटर से ज़्यादा है, तो उसके 500 मीटर के दायरे को भी अरावली रेंज में शामिल किया जाएगा। लेकिन जो पहाड़ इस परिभाषा में नहीं आएंगे, सरल शब्दों में कहें तो यदि दो पहाड़ों के बीच में 500 मीटर से ज्यादा की दूरी होगी या उनकी ऊंचाई 100 मीटर से कम होगी वहाँ सस्टेनेबल माइनिंग, अर्थात नियंत्रित और सीमित खनन की अनुमति दी जा सकती है। अब सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की परिभाषा स्वीकार करते हुए अपना निर्णय सुना दिया।

अरावली परिभाषा पर विवाद

लेकिन एक इस फैसले के बाद, खासकर युवा और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने अपना विरोध जताना शुरू कर दिया और देखते-देखते सोशल मीडिया पर सेव अरावली ट्रेंड करने लगा। दरसल फारेस्ट सर्विस ऑफ़ इंडिया की 2010 की रिपोर्ट के अनुसार, अरावली शृंखला में 12081 पर्वत हैं, जिनमें से महज 1000 हजार ही 100 मीटर के पैमाने में आते हैं, उनका कहना है अब इस नए फैसले के बाद अधिकांश पहाड़ लगभग नब्बे प्रतिशत अरावली नहीं माने जाएंगे। जिसके कारण बड़े पैमाने पर खनन का रास्ता खुल जाएगा। जिससे पारिस्थितिकी, जल स्रोत और जैव विविधता को अपूरणीय क्षति पहुँचेगी।

क्या है अरावली विवाद | Aravalli Hills Controversy

अरावली पर्वतमाला का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा राजस्थान में स्थित है, जहाँ यह नियम वर्ष 2006 से लागू है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद यह अब गुजरात, हरियाणा और दिल्ली में भी लागू हो जाएगा। यहीं पर विवाद का सबसे संवेदनशील पहलू सामने आता है। यदि हम नक्शे पर अरावली को देखें, तो राजस्थान में इसकी ऊँचाई कई स्थानों पर पर्याप्त है। लेकिन जैसे-जैसे अरावली हरियाणा और दिल्ली की ओर बढ़ती है, इसकी ऊँचाई क्रमशः कम होती जाती है। इन राज्यों में अनेक स्थानों पर पहाड़ियों की ऊँचाई 100 मीटर से कम है। ऐसे में नई परिभाषा के अनुसार ये क्षेत्र अरावली रेंज से बाहर हो सकते हैं और वहाँ खनन की गतिविधियाँ शुरू होने की आशंका बढ़ जाती है। यही कारण है कि यह फैसला केवल कानूनी नहीं, बल्कि पर्यावरणीय भविष्य से जुड़ा गंभीर सवाल बन गया है। लेकिन जो होता है हमेशा की तरह ही पक्ष और विपक्ष की राजनीति भी प्रारंभ हो गई।

विश्व की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में एक है अरावली

दरसल अरावली पर्वत को विश्व के सबसे पुराने पर्वत श्रृंखलाओं में से एक माना जाता है। भू-वैज्ञानिक यह मानते हैं, इसका निर्माण आज से लगभग 250 से 350 करोड़ वर्ष पूर्व, प्रोटेरोज़ोइक युग में हुआ, जब जीवन अपने प्रारंभिक चरण में था और महाद्वीप आकार ले रहे थे। वैज्ञानिकों के अनुसार अरावली ने भारतीय उपमहाद्वीप के शेप के निर्धारण और उसके क्लाइमेट के निर्धारण में अहम भूमिका निभाई।

भू-गर्भीय विस्फोट से हुआ था निर्माण

दरसल भूवैज्ञानिकों के अनुसार लगभग 6.5 करोड़ 7.5 करोड़ वर्ष पहले, जब पृथ्वी अभी अपने प्रारंभिक विकास चरणों से गुजर रही थी। तभी भारतीय प्लेटों का यूरेशिया और अफ्रीकी प्लेटों के टकराव के बाद, अरावली क्षेत्र में मालाणी ज्वालामुखी विस्फोट हुआ था, इस दौरान भारी मात्रा में लावा, गैसें और ऊष्मा पृथ्वी की सतह पर निकलीं। इसके परिणामस्वरूप वैश्विक और क्षेत्रीय तापमान में वृद्धि हुई और जमी हुई बर्फ की परतों पर प्रभाव पड़ा, जो धीरे-धीरे पिघलने लगी थीं, यही प्रक्रिया पृथ्वी के हिमयुग से बाहर निकलने की प्रारंभिक अवस्था मानी जाती है। विद्वान मानते हैं यह प्रक्रिया प्रीकैम्ब्रियन काल के उत्तरार्ध में हुई। यही वह घटना थी, जिसके बाद वायुमंडल की संरचना में भी बदलाव हुआ और भारतीय उपमहाद्वीप में मल्टी सेल्यूलर लाइफ अर्थात बहुकोशिय जीवन की संभावना बढ़ी थी। प्रारंभ में यह एक विशाल और ऊँची पर्वतश्रेणी थी, लेकिन करोड़ों वर्षों के क्षरण के कारण आज इसका स्वरूप अपेक्षाकृत निम्न और खंडित दिखाई देता है। यह पर्वतमाला मुख्यतः ग्रेनाइट जैसी आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों से बनी हैं।

हड़प्पा सभ्यता से भी संबंध

अरावली केवल चट्टानों का ढेर नहीं रही। यह इतिहास, सभ्यता और संस्कृति की मौन साक्षी है। यहाँ आदिम मानव ने भी अपने कदम रखे। यहीं से ताँबा, जस्ता और अन्य बहुमूल्य खनिज निकाले गए। ऐसा माना जाता है कि हड़प्पा सभ्यता तक अरावली के खनिज संसाधनों की पहुँच थी, जो इसे भारत की प्राचीन आर्थिक धुरी बनाती थी।

राजपूत इतिहास में महत्वपूर्ण

इतिहास के पन्नों में अरावली एक योद्धा की भाँति खड़ी दिखाई देती है। मध्यकाल में राजपूतों ने इसी पर्वतमाला को अपना कवच बनाया और सदियों तक विदेशी आक्रांताओं से संघर्ष किया। चित्तौड़, कुंभलगढ़, रणथंभोर, मेहरानगढ़ और आमेर, ये दुर्ग केवल पत्थर की संरचनाएँ नहीं, बल्कि अरावली की छाती पर अंकित स्वाभिमान की अमिट गाथाएँ हैं।

महाराणा प्रताप की शरणस्थली

महान स्वतंत्रता वीर महाराणा प्रताप की शरणस्थली भी यही अरावली रही। इसी कारण से उन्हें “अरावली का मार्तंड” भी कहा जाता है, जो जीवन की विपरीत परिस्थितियों में भी अस्त नहीं हुआ। वे स्वतंत्रता, स्वाभिमान और अस्मिता के प्रतीक थे। और उनके जीवन तथा संघर्ष की सबसे विश्वसनीय सहचरी थी अरावली पर्वतमाला। मेवाड़ राज्य, जहाँ महाराणा प्रताप का शासन था, अरावली पर्वतमाला के दुर्गम, वनाच्छादित और पहाड़ी भूभाग में स्थित था। ऊँची-नीची पहाड़ियाँ, सँकरी घाटियाँ, घने वन, प्राकृतिक जलस्रोत, इन सभी ने मिलकर मेवाड़ को मुगल सेना के लिए अत्यंत कठिन क्षेत्र बना दिया। अरावली ने मेवाड़ को केवल भौगोलिक सुरक्षा ही नहीं दी, बल्कि रणनीतिक बढ़त भी प्रदान की।

हल्दीघाटी का युद्ध भी अरावली में लड़ा गया

18 जून 1576 ई. को मेवाड़ और मुग़ल साम्राज्य के बीच हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध अरावली पर्वतमाला की एक संकरी घाटी में लड़ा गया। पीली मिट्टी के कारण यह क्षेत्र हल्दीघाटी कहलाया। यह तंग दर्रा और उसके चारों ओर की ऊँची पथरीली पहाड़ियाँ युद्ध की दिशा तय करने वाली थीं। हल्दीघाटी की इस स्थिति ने मुग़ल सेना की विशाल संख्या, भारी तोपख़ाने और युद्ध हाथियों को निष्प्रभावी कर दिया, जबकि महाराणा प्रताप की तेज़, हल्की और स्थानीय भूभाग से परिचित राजपूत सेना को रणनीतिक लाभ मिला। इतिहासकारों के अनुसार, घाटी का चयन महाराणा प्रताप की सोची-समझी रणनीति थी, जिससे शत्रु की बढ़त कम हुई और राजपूतों को अचानक आक्रमण का अवसर मिला। हालांकि महाराणा के शौर्यपूर्ण पराक्रम के बाद भी हल्दीघाटी का युद्ध निर्णायक नहीं रहा, लेकिन महाराणा प्रताप ने कभी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। वे अरावली के दुर्गम अंचलों में चले गए और घोर कठिन जीवन जीते। लोककथाओं में घास की रोटियाँ उनके त्याग का प्रतीक बनीं। अरावली केवल पर्वतमाला नहीं, बल्कि उनकी शरणस्थली बनकर मेवाड़ की स्वतंत्र चेतना को जीवित रखने का आधार भी थीं।

भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण

प्रकृति के इतिहास में अरावली ने, थार मरुस्थल के विस्तार को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, दरसल आज विंध्य और हिमालय पर्वत के बीच के, जिस हरे-भरे क्षेत्र को हम देखते हैं, गंगा-यमुना के विशाल उपजाऊ मैदानों को हम देख रहे हैं, अगर हम कहें इसका कारण अरावली है, तो यह गलत नहीं होगा। क्योंकि इस भूभाग को अरावली पर्वत, पश्चिम की तरफ से आने वाली गरम-रेतीली तूफ़ानों को रोकने वाली प्राकृतिक दीवार है। यह पश्चिमी हवाओं को रोककर कुछ क्षेत्रों में वर्षा में भी योगदान देता है। अब सोचिए इसके बिना उत्तर भारत का विशाल भूभाग, रेगिस्तान में परिवर्तित हो सकता है। लेकिन विडंबना देखिए, आज वही अरावली स्वयं खतरे में है। अवैध खनन, अनियंत्रित शहरीकरण और हमारी उपेक्षा, इसे धीरे-धीरे ही सही निगल रही है। अरावली पर्वत केवल एक भूगोलिक संरचना नहीं, बल्कि भारत के प्राकृतिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विकास का मौन साक्षी है।

केंद्र सरकार ने नए लीज देने पर लगाई रोक

हालांकि इस विवाद को देखते हुए केंद्रसरकार ने पूरे अरावली रेंज में नए माइनिंग लीज देने पर पूरी तरह से बैन लगा दिया है, पर्यावरण मंत्रालय ने राज्य सरकारों को दो टूक कहा है, कि अरावली के क्षेत्र में नए माइनिंग लीज को अब मंजूरी नहीं दी जाएगी। यह आदेश अवैध खनन और माफिया पर एक तरह से देखा जाए तो कड़ा एक्शन है। लेकिन फिर भी पर्यावरणविदों की चिंता अरावली को लेकर और सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई नई परिभाषा पर बनी ही हुई है।

सुप्रीम कोर्ट का पुनः विचार का फैसला

इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सूर्यकान्त के नेतृत्व तीन सदस्यीय पीठ ने, सोमवार को स्वतः संज्ञान लेते हुए अरावली पहाड़ियों की परिभाषा से जुड़े 20 नवंबर के खुद के ही आदेश पर फिलहाल रोक लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस आदेश में ऐसे कई अहम मुद्दे शामिल हैं, जिन पर और गहन जांच की आवश्यकता है, पीठ ने स्पष्ट किया कि अरावली क्षेत्र की सटीक परिभाषा केवल कानूनी ही नहीं, बल्कि पर्यावरणीय और नीतिगत दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसी को ध्यान में रखते हुए अदालत ने पहले गठित सभी समितियों की सिफारिशों का समग्र मूल्यांकन करने के लिए एक नई उच्चस्तरीय समिति बनाने का प्रस्ताव रखा है और अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी से कहा है कि वे प्रस्तावित समिति की संरचना, उसके दायरे और कार्यप्रणाली को लेकर अदालत की सहायता करें, ताकि इस बारे में संतुलित आधार पर निर्णय लिया जा सके। अदालत ने संकेत दिया कि अरावली पहाड़ियों से जुड़े मामलों का सीधा संबंध पर्यावरण संरक्षण, खनन गतिविधियों, शहरी विस्तार और पारिस्थितिक संतुलन से है, इसलिए किसी भी अंतिम फैसले से पहले सभी पहलुओं की गहन समीक्षा जरूरी है। अब इस मामले में अगली सुनवाई अब 21 जनवरी को होगी।

सेव अरावली ट्रेंड कर रहा

क्योंकि अरावली मात्र एक पर्वतमाला नहीं है, यह भारत परिस्थतिक तंत्र का प्रमुख आधार है। इतिहास का वह रक्तरंजित अध्याय है, जहाँ घाटियों ने शौर्य को आकार दिया और पीढ़ियों को स्वाधीनता का पाठ सिखा रही हैं। अरावली केवल अतीत नहीं है, यह हमारा भविष्य है। यदि अरावली बचेगी, तो जल बचेगा, जीवन बचेगा, धरती बचेगी। इतिहास हमें बहुत बड़ी चेतावनी दे रहा है, अब सुनना या न सुनना, यह हमारे हाथ में है। इसकी रक्षा करना केवल पर्यावरण का ही नहीं, बल्कि हमारे इतिहास और भविष्य का संरक्षण भी है। क्योंकि अरावली निर्लिप्त भाव से आज भी खड़ी है, समय की साक्षी बनकर, प्रेरणा बनकर और चेतावनी बनकर!

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