भारत के दक्षिणी क्षेत्रों में 6 वीं शताब्दी से 8 वीं शताब्दी के मध्य एक राजवंश शासन किया करता था, जिसे चालुक्य वंश कहा जाता था, इसकी राजधानी वातापी या बादामी थी। इसी वंश में 7 वीं शताब्दी के प्रारंभ में लगभग हर्ष के समकालीन एक राजा शासन किया करता था “पुलकेशिन”, यह बहुत ही प्रतापी राजा माना जाता था, इसने सुदूर क्षेत्रों में अपनी विजय यात्राएँ की थी, इसका एक अभिलेख एहोल के एक जैन मंदिर से प्राप्त हुआ है।
मंदिर और लेख का निर्माता
इस मंदिर का निर्माण पुलकेशिन के दरबारी कवि रविकीर्ति ने करवाया था, जो जैन धर्म का अनुयायी था। इसीलिए इस लेख का प्रारंभ भगवान जैनेन्द्र को नमस्कार करते हुए हुआ है, यह अभिलेख रविकीर्ति ने ही अपने स्वामी सम्राट पुलकेशिन की प्रशस्ति में अंकित करवाया था। 19 पंक्तियों और 37 श्लोकों वाला का यह लेख संस्कृत भाषा और दक्षिणी ब्राम्ही लिपि में काव्यात्मक ढंग से लिखा गया है। इस अभिलेख में रविकीर्ति को कालिदास और भारवि के समान कवि बताया गया है।
ऐहोल अभिलेख अनुसार महाभारत युद्ध का समय
लेकिन इस ऐहोल अभिलेख में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात भी बताई गई है, और वह है इसमें अंकित भारत युद्ध या महाभारत का समय, इस अभिलेख में अंकित है यह मंदिर महाभारत युद्ध के 3735 वर्ष बाद, शक संवत 556 अर्थात 634 ईस्वी में निर्मित करवाया गया। इस हिसाब से भारत युद्ध 3101 ईसा पूर्व में हुआ था। इस अभिलेख में शक संवत और कलि संवत दोनों की तिथियाँ दी गईं हैं।
अभिलेख में पुलकेशिन की प्रशस्ति
अभिलेख में चालुक्य वंश का आदिपुरुष ‘जयसिंह’ को बताया गया है, इसके बाद इस वंश के रणराग, पुलकेशिन प्रथम, कीर्तिवर्मा, मंगलेश आदि राजाओं का भी जिक्र आया है, पर चूंकि यह अभिलेख पुलकेशिन द्वितीय को समर्पित है और उसकी प्रशंसा में ही लिखा गया है। इसमें उसे सत्याश्रय कहा गया है, उसकी समता इंद्र तथा नहुष से की गई है, उसे महान विजेता और तीनों लोकों का स्वामी बताया गया है। इस अभिलेख में पुलकेशिन को कोंकण में शासन करने वाले मौर्य वंश रूपी लघु जलाशय को प्रचंडसेना रूपी जलधारा में बहा देने वाला कहा गया है। गंग और आलुप वंश के शासकों को सप्त व्यसनों को छोड़कर , पुलकेशिन की दासता को स्वीकार कर सेवा रूपी अमृत को पान कर मत्त रहने वाला कहा गया है। लाट, मालव, गुर्जर के राजाओं को दंड के प्रभाव में आकर उसके सेवा में लग जाना भी अंकित है। उसे पिष्टपुर नगर को पीस देने वाला भी कहा गया है। कांचीपुर को जीतने वाला, ओस रूपी पल्लवों के लिए प्रतापी सूर्य के समान कहा गया है। इसी अभिलेख के अनुसार कौशल और कलिंग पर, पुलकेशिन का भय व्याप्त रहता है।
पुलकेशिन और हर्ष का युद्ध
लेकिन इस अभिलेख में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण पुलकेशिन और हर्ष के मध्य नर्मदा नदी के तट पर ही हुए उस भीषण युद्ध का भी जिक्र है, जिसमें सकलोत्तरपथनाथ हर्षवर्धन, दक्षिणपथ के स्वामी पुलेकिशिन से पराजित हो गए थे। इस अभिलेख में लिखा है – “युधिपतितगजेंद्रानिकबीभत्सभूतो भयविगलित हर्षों येन चाकारि हर्षः”
अर्थात- अपरमित ऐश्वर्य से युक्त, सामंतों की मुकुटमणियों से सुशोभित चरणकमल वाला हर्ष भी युद्ध में हस्तिसेना के नष्ट हो जाने पर भयभीत होकर हर्षरहित हो गया।
कहा जाता है राजा हर्षवर्धन को हराने के बाद पुलकेशिन ने परमेश्वर की उपाधि धारण की थी। वर्तमान में यह मंदिर कर्नाटक के बागलकोट जिले में स्थित है, इसे मेगुती मंदिर कहा जाता है, इसे द्रविड़ शैली में निर्मित प्रारंभिक मंदिरों में से एक माना जाता है। यहाँ से कुछ दूर पर ही चालुक्यों से समय की राजधानी वातापी के भी अवशेष प्राप्त होते हैं।