Talat Mahmood की 26वीं पुण्यतिथि : उस मखमली आवाज का जादू…

Talat Mahmood Biography In Hindi, Talat Mahmood Death Anniversary: लरज़ती सी आवाज़,दिल को छू लेने वाली सदा से वो आज भी रहता है कहीं हमारे आस पास, कुछ ऐसी ही थी तलत महमूद की बात जो भारतीय गायक तथा अभिनेता थे। अपनी थरथराती और मार्मिक आवाज़ से वो यूं मशहूर हुए की उनको ग़ज़ल की दुनिया का राजा भी कहा जाने लगा, उनका जनम 24 फ़रवरी 1924 को लखनऊ में हुआ था। वो अपने मां बाप की छठवीं औलाद थे उनके वालिद अपनी आवाज को अल्लाह की देन कहकर अल्लाह पर ही कुर्बान करने की नियत रखते हुए केवल इस्लामिक नातें ही गया करते थे ,बचपन में तलत ने भी ऐसा करने की कोशिश की पर फुफ्फी के अलावा किसी से हासला अफजा़ई न मिली उन्होने ही अपनी जिद पर तलत को संगीत की शिक्षा के लिए मॉरिस कालेज ऑफ म्यूजिक लखनऊ में दाखिल भी करवाया ।

जिसे वर्तमान में भातखंडे संगीत संस्थान कहते हैं जहां आपने पंडित एससीआर भट्ट के अधीन शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली। तलत महमूद ने अपने गायन करियर की शुरुआत 16 साल की उम्र में 1939 में की, जब उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो , लखनऊ पर दाग, मीर, जिगर आदि की ग़ज़लें गाना शुरू किया। उनकी आवाज़ बाकी सभी गायकों से अलग और रेशमी खनक लिए हुए थी जिसे ग़ज़ल के लिए उम्दा माना गया। एक ग़ज़ल गायक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा उनके गृहनगर लखनऊ तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि शहर – कलकत्ता तक पहुँची जो उनके भाग्य को नया मोड़ देने लगी।

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जिससे तलत को कमल दासगुप्ता का गीत( सब दिन एक समान नहीं) गाने का मौका मिला। यह गीत प्रसारित होने के बाद लखनऊ में बहुत लोकप्रिय हुआ। लगभग एक साल के भीतर, प्रसिद्ध संगीत रेकॉर्डिंग कम्पनी एच एम वी की टीम कलकत्ता से लखनऊ आई और उनके दो गाने रेकॉर्ड किये गए। उनके चलने के बाद तलत के चार और गाने रेकॉर्ड किए गए जिसमें ग़ज़ल, तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला न सकेगी, बहुत पसन्द की गई और बाद में एक फिल्म में शामिल भी की गई।

दूसरे विश्वयुद्ध के समय जब पार्श्व गायन का शुरुआती दौर था। अधिकतर अभिनेता अपने गाने खुद गाते थे,जैसे कुन्दन लाल सहगल उनकी लोकप्रियता से प्रेरित होकर तलत भी गायक–अभिनेता बनने के लिए सन 1944 में कलकत्ता जा पहुंचे, जो उस समय इन गतिविधियों का प्रधान केन्द्र था। पर उस समय कुन्दन लाल सहगल मुंबई गए हुए थे, जहां संघर्ष के बीच तलत की शुरुआत बांग्ला गीत गाने से हुई।

रिकार्डिंग कंपनी ने गायक के रूप में उनको तपन कुमार नाम से गवाया और इस नाम से उनके गाए सौ से ऊपर गीत रेकॉर्डों में आए पर न्यू थियेटर्स ने 1945 में बनी फिल्म राजलक्ष्मी में तलत को नायक–गायक बनाया। संगीतकार राबिन चटर्जी के निर्देशन में इस फ़िल्म में उनके गाए जागो मुसाफ़िर जागो ने भरपूर सराहना बटोरी। उत्साहित होकर वो मुंबई जाकर अनिल बिस्वास से मिले। लेकिन उन्होंने ये कहकर लौटा दिया कि अभिनेता बनने के लिए वो बहुत दुबले हैं। बदन पर चरबी चढ़ाकर आने की नसीहत के साथ तलत वापस कलकत्ता चले गए¸ जहां उन्हें कुल दो फ़िल्में ही और मिली¸ कलकत्ता में काम ढीला देखकर उन्होंने फिर मुंबई का रूख़ किया।

अबकी बार अनिल विश्वास ने उन्हें फ़िल्मिस्तान स्टूडियो की फिल्म आरजू में परदे के पीछे से गाने का मौका दे दिया। और दिलीप कुमार के उपर फिल्माया गया गीत ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल हिट हो गया और तलत की सादगी से भरी दिलनशीं आवाज संगीतकारों की निगाह में जम गई। लगभग इसी समय संगीतकार नौशाद अपने लिए एक उम्दा गायक की तलाश में थे। लिहाज़ा तलत को फिल्म बाबुल के लिए तलत को गाने का मौका मिला – इस बार नौशाद के संगीत निर्देशन में इसी फिल्म का गीत मिलते ही आंखें दिल हुआ दीवाना किसी का , सुपरहिट हो गया और तलत महमूद के साथ शमशाद बेगम की आवाज भी पसन्द की गई। इसके बाद तलत ने विभिन्न संगीतकारों की धुनों पर कुल सोलह गाने गाए।

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उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही थी। ये वो दौर था जब मुकेश को राज कपूर के गानों से ख्याति मिल रही थी तो रफी , शहीद, दुलारी, मेला तथा बैजू बावरा के गानों से लोकप्रिय हो रहे थे। ऐसे में सेट पर धूम्रपान करने की आदत की वजह से नौशाद ने तलत को नजरअंदाज करना शुरु कर दिया पर उन्हें और संगीतकारों से काम मिलता रहा लेकिन गाने की यह रफ्त़ार तलत लंबे समय तक इसलिए कायम नहीं रख पाए क्योंकि¸ गायक के रूप में ख्य़ाति से उन्हें तसल्ली नहीं थी और वो ख़ुद को एक सफल और स्थापित अभिनेता के रूप में देखना चाहते थे¸ इस हक़ीक़त को जानते हुए भी कि वो जितने अच्छे गायक थे¸ उतने अच्छे अभिनेता नहीं।

पर उनकी आवाज़ की लालसा में उन्हें अभिनय का मौका भी दिया जाने लगा और इसी तरह फ़िल्म आराम में वो एक ग़ज़ल ‘शुक्रिया अय प्यार तेरा’ गाते परदे पर नज़र आए। फिर सोहराब मोदी ने फिल्म वारिस में उन्हें सुरैया जैसी चोटी की नायिका के साथ नायक बनाया तो ए आर कारदार ने फिल्म दिले नादान में नयी तारिका चांद उस्मानी के साथ और डाक बाबू वगैरह को मिलाकर तलत तेरह फ़िल्मों में नायक तो बन गए¸ पर गायन पर समुचित ध्यान न देने से पिछड़ने लगे और हाशिये पर चले गए¸ जबकि रफी केंद्र में आने लगे।

अभिनय से कुछ ख़ास हासिल न होने और बदले में गायन में बहुत कुछ गंवाने का एहसास तलत को सन 1958 में बनी फिल्म सोने की चिड़िया से हुआ। फ़िल्म संगीत के जानकार मानते हैं कि उनमें संगीत रचना की अदभुत प्रतिभा थी क्योंकि ‘ग़मे आशिकी से कह दो’ गीत की धुन उन्होंने पलक झपकते तैयार कर दी थी।

साठ का दशक शुरू होते तक फ़िल्मों में उनके गाने बहुत कम होने लगे। ‘सुजाता’ का जलते हैं जिसके लिए इस वक्त का उनका यादगार गीत है। फ़िल्मों के लिए आख़िरी बार उन्होंने सन 1966 में जहांआरा में गाया¸ जिसके संगीतकार मदन मोहन थे। इसके बाद फ़िल्म संगीत का स्वरूप कुछ इस तरह बदलने लगा था कि उसमें तलत जैसी आवाज़ के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची थी। लेकिन तलत के ग़ैर–फ़िल्मी गायन का सिलसिला बराबर चलता रहा और उनके अलबम निकलते रहे। ग़ज़ल गायकी के तो वे पर्याय ही बन गए थे। उनकी आवाज़ जैसे कुदरत ने ग़ज़ल के लिए ही रची थी।

तलत महमूद को सन 1956 में दक्षिण अफ्रीका बुलाया गया और इस प्रकार के कार्यक्रम के लिए भारत से किसी फ़िल्मी कलाकार के जाने का यह पहला अवसर था। तलत महमूद का कार्यक्रम इतना सफल रहा कि दक्षिण अफ्रीका के अनेक नगरों में उनके कुल मिलाकर बाइस कार्यक्रम हुए¸ तभी से विदेशों में भारतीय फ़िल्मी कलाकारों के मंच कार्यक्रमों का सिलसिला चल पड़ा। तलत महमूद इन कार्यक्रमों में लगातार व्यस्त रहे और फ़िल्मी दुनिया से अवकाश मिलने के बाद तो देश–विदेश में आए दिन ‘तलत महमूद नाइट’ होने लगी।

फ़िल्मों में गाने से दूर हो जाने का मलाल उन्हें बराबर सताता रहा, हालांकि उनके फ़िल्मी और ग़ैर–फ़िल्मी गानों के सुनने वालों की तादाद या उत्साह में कमी नहीं हुई। दो सौ फ़िल्मों में उनके लगभग पांच सौ और कोई ढ़ाई सौ ग़ैर–फ़िल्मी गाने हैं। 1962 में उन्होंने पाकिस्तानी फ़िल्म चिराग़ जलता रहा में संगीतकार निहाल मोहम्मद, के लिए भी दो गाने गाए। इसी कश्मकश में जिंदगी का वो पड़ाव भी आ गया जब वो सुकून की तलाश में भटकते हुए , हमसे दूर अपने अरमानों का जहां बसाने चले गए, 9 मई 1998 को तलत महमूद इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह गए,पर अपनी गायकी और आवाज़ के मुख्तलिफ अंदाज़ से वो अपने चाहने वालों के दिलों में हमेशा जावेदा रहेंगे।

तलत महमूद को सिनेमाई और ग़ज़ल संगीत के क्षेत्र में उनके कलात्मक योगदान के लिए 1992 में पद्म भूषण पुरस्कार मिला।
उन्होंने 1950 और 1960 के दशक के दौरान भारत में आधुनिक ग़ज़ल गायन की शैली और पद्धति को एक दिलकश अंदाज़ देने में अहम भूमिका निभाई और अपनी मुख्तलिफ आवाज़ से अपने चाहने वालों के दिलों में सदा के लिए बस गए और रहती दुनियां तक अपने बेश कीमती नग्मों के ज़रिए जावेदा रहेंगे।

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