रीवा में सुपारी से बनाई जाती है गणेश प्रतिमा, जबरदस्त है आर्टिस्ट की कलाकृति, देश-विदेश में डिमांड

रीवा। यह शहर तरह-तरह के हुनर से परिपूर्ण हैं। अब गणपति बप्पा विराजमान हो गए है, तो यहा कि सुप्रसिद्ध सुपारी से बनाई जाने वाली गणेश प्रतिमा पर चर्चा न हो ऐसा संभव नही। दरअसल रीवा में कुंदेर परिवार सुपारी से भगवान गणेश की अद्भुत कलाकृतियाँ बनाता है, जिसमें सुपारी के छोटे-छोटे हिस्सों को जोड़कर और तराशकर विशेष तौर से भगवान की अद्रभुद मूर्तियाँ बना रहा हैं। आम तौर पर सुपारी को पान, जर्दा के साथ खाने में उपयोग किया जाता है, लेकिन रीवा के कुंदेर परिवार ने सुपारी को ऐसी कृलाकृति दिया कि इससे बनने वाली देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, खिलौने, मंदिर और अन्य कलाकृतियाँ की डिमांड रीवा तक नही रह गई बल्कि देश-विदेश तक रीवा के सुपारी से बनी गणेश प्रतिमा एवं अन्य कृलाकृति पहुची है।

1942 में शुरू हुई सुपारी कला की शुरूआत

इस कला की शुरुआत 1942 में कुंदेर परिवार के राम सिया कुंदेर ने की थी, जिन्होंने पहली बार सुपारी से सिंदूर की डिब्बी बनाई थी, जिसे रीवा के महाराजा गुलाब सिंह ने पसंद किया था। इसके बाद, परिवार ने सुपारी से सिंदूर की डिब्बी से आगे बढ़कर खिलौने, पक्षी, मंदिर और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाना शुरू किया।

गणेश प्रतिमा की लोकप्रियता

कुंदेर परिवार के द्वारा बनाई जा रही सुपारी की कलाकृति में आज के समय में, विशेष रूप से गणेश उत्सव के दौरान, गणेश प्रतिमाओं की सबसे अधिक मांग रहती है और इन्हें उपहार के रूप में भी खूब खरीदा जाता है। सुपारी से कंगारू सेट, टी-सेट, महिलाओं के गहने, लैंप, ताजमहल, मंदिर और देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ भी बनाई जाती हैं।

कलाकृति की खासियतें

सुपारी से खिलौना बनना कोई साधारण काम नही है बल्कि कलाकार घंटों मेहनत करके सुपारी पर बारीकी से काम करते हैं, जिससे मूर्तियाँ और खिलौने जीवंत लगते हैं। मूर्तियों में चमक लाने और गणेश जी के अंगों, वस्त्रों और आभूषणों को उभारने के लिए खास पॉलिश की जाती है।

रीवा की बना पहचान

रीवा की यह सुपारी कला केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी प्रसिद्ध है और इसकी मांग देश के बाहर भी है। यहां आने वाले पर्यटकों और मेहमानों को प्रभावित करती है, जिसे लोग स्मृति के तौर पर भी भेंट करते हैं। रीवा के सुपारी खिलौनों को विश्व प्रसिद्ध पहचान दिलाने के लिए जीआई टैग (भौगोलिक संकेत) दिलाने की मांग की जा रही है, ताकि इस पारंपरिक कला को और बढ़ावा मिल सके।

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