पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में ,आज हम आपके लिए लेकर आए हैं, कृषि आश्रित समाज के कामों में प्रयुक्त लकड़ी के उपकरण।
लकड़ी का मनुष्य से बहुत पुराना नाता रहा है। आदिम जुग में वह लकड़ी के डंडे में पत्थर के नुकीले टुकड़ों को बांध कर पाषाण कुठार बनाता और उससे अपनी रक्षा से लेकर शिकार तक में उपयोग करता। बहुत समय तक तो हिरण की सींग को भी लाठी में लगा भाला बरछी का काम लेता रहा। पर लोहे के खोज के पश्चात मनुष्य ने फिर न जाने लकड़ी के कितने सारे उपकरण बना लिए।
हमारे कृषि आश्रित समाज में हल जुएं से लेकर हँसिया, खुरपी ,कुल्हाड़ी के बेंट तक साठ सत्तर ऐसी वस्तुएं या उपकरण हमने चिन्हित किया हैं जो लकड़ी – लकड़ी से ही बनते थे। यही कारण है कि उस कृषि आश्रित समाज को लकड़ी के गुण धर्मों का पूरा- पूरा अध्ययन था कि “किस लकड़ी का किस उपकरण में बेहतर उपयोग होगा और किसका नही।” बहुत सारा ज्ञान तो उनने लोकोक्तियों कहावतों तक में सूत्रबद्ध कर दिया था ताकि उनके उस अनुभव का लाभ नई पीढ़ी भी उठाती रहे।
परन्तु जब कोई विकसित प्रणाली चलन में आ जाती है तो ओल्ड प्रणाली को चलन से बाहर भी कर देती है। खेती की नई पद्धति आजाने के कारण उस विकास के शिकार अब अन्य उपकरणों की तरह हमारे समस्त लकड़ी के उपकरण भी हुए हैं। और वही है संग्रहालय में रखे जाने की उनकी औचित्तता भी।
अभी तक हम पत्थर मिट्टी एवं बाँस के विलुप्त प्रायः समस्त पुराने उपकरणों और बर्तनों की जानकारी दे चुके हैं। आज से क्रमशः यह जानकारी लकड़ी के उपकरणों की देंगे।
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हल
यह किसान का प्राचीनतम कृषि उपकरण है जो चार भागों को जोड़ कर बनता है इन्हें-
हल, हरिश, नांस और मुठिया कहा जाता है। हल और हरीश को जोड़ने में भी एक फुट लम्बी दो इंच चौड़ी चपटे आकार की एक लकड़ी लगती है जिसे पाट कहा जाता है।
हल के प्राचीनता का पता अशोक काल के उस पाषाण प्रतिमा से सिद्ध है जिसमें तथागत बुद्ध के पिता शुद्धोधन को हल चलाते दिखाया गया है।हल के उन चार भागों में पहला भाग हल ही कहलाता है जिसमें बाद में हरिस, मुठिया और नास जोड़ दी जाती है। परन्तु नास में एक लोह पट्टिका लगा मजबूती के लिए उसमें लोहे के ही दो कांटे भी ठोंक दिए जाते हैं।यह सब होजाने पर हल तैयार पर जुताई करते समय उसमें रस्सी से जुआं भी जुड़ जाता है जिसमें मध्यस्तता का काम हरैनी (हरैली) नामक एक बित्ते की लकड़ी करती है। हरैली हल को जुएं से अलग नही होने देती ।
फिर उसी जुएं में बैल नधे जाते हैं। परन्तु इन चारों भागों में जो लकड़ी लगती है वह अलग-अलग गुण धर्मो वाली होती है। हल जहाँ सांदन, सेझा, बबूल का अच्छा माना जाता है वहीं हरिश बरसज, खम्हार आदि की, इसी तरह नांस कुछ बाधिल लकड़ी की होती है जिससे जल्दी घिस कर चलन से बाहर न हो जाय? ऐसे गुण धर्मो वाली लकड़ी में कहुआ, धबई ,कटाई प्रमुख माने जाते हैं।लेकिन मुठिया किसी भी मजबूत लकड़ी की हो जाती है।
पर अब समय का मारा हल तो घर के पछीत में पड़ा हैं और बेचारे बैल घर निकाला की पीड़ा झेल रहे हैं।
जुआं
जुआं ऐसी लकड़ी का बनता है जो वजन में हल्की और चिकनी हो। उसमें खम्हार ,सेवर अच्छे माने जाते हैं। जुएं में दोनो किनारे बैल नधे जाते हैं। बैल जुएं से अलग न हो जाँय अस्तु कंधे के भीतरी और बाहरी दोनो ओर जुए में छेंद करके उसमें भी एक -एक फुट की दोनों ओर दो-दो लकड़ी पिरो दी जाती हैं। उन बाहर की दोनों ओर वाली लकड़ियों को शैला एवं अन्दर की लकड़ियों को पचारी य गतारी कहा जाता है। इस तरह लगने वाले शैला की बनावट गोल होती है जब कि पचारी ( गतारी) की बनावट चपटी रहती है।
सैला पचारी से बैल के गले को बांधने के लिए भी एक चर्म पट्टिका लगती है जिसे जोतावर कहा जाता है। पर इस जोतावर में भी उसे पचारी के छिद्र में फँसाने के लिए दो लोह के कुन्दे जुड़े रहते हैं। यह दोनों कुन्दे चर्म शिल्पी द्वारा चर्म पट्टिका में सिल दिए जाते हैं। उधर जुएं से रस्सी अलग न हो उसके लिए जुएं में बैल के डिल्ले की तरह ही बीच में उभरा हुआ भाग होता है।इस तरह जुएं हल को एक साथ जोड़ और बैलों को नध कर खेत की जुताई होती है। पर अब नई खेती में हल बैलों के साथ जुआं भी अलग है। आज इस श्रृंखला में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे नई जानकारियों के साथ ।