Jagannath Rath Yatra 2025: भारत विविधताओं से भरा देश है, जहां हर त्योहार किसी न किसी आध्यात्मिक कथा या भावनात्मक गहराई से जुड़ा होता है। इन्हीं पर्वों में से एक है “जगन्नाथ रथ यात्रा”, जो हर वर्ष ओडिशा के पुरी नगर में भव्यता और श्रद्धा के साथ मनाई जाती है। रथ यात्रा के दूसरे भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र जी और बहन सुभद्रा के साथ अपने मौसी के घर गुंडिचा मंदिर जाते हैं और वहाँ करीब सात दिनों तक रहने के बाद भगवान आषाढ़ शुक्लपक्ष की दशमी को अपने स्थान अर्थात श्रीमंदिर लौट आते हैं। रथ यात्रा केवल एक धार्मिक यात्रा नहीं, बल्कि ईश्वर और भक्त के बीच प्रेम और समर्पण की एक जीवंत अभिव्यक्ति है।
प्रत्येक वर्ष रथ से अपनी मौसी के घर जाते हैं भगवान
जगन्नाथ रथ यात्रा भगवान श्रीकृष्ण के रूप भगवान जगन्नाथ, उनके भ्राता बलराम और बहन सुभद्रा की मूर्तियों को विशाल रथों में विराजित कर पुरी नगर में भ्रमण कराने की परंपरा है। यह यात्रा मुख्य मंदिर श्री जगन्नाथ जी से, लगभग 3 किलोमीटर दूर गुंडिचा मंदिर, जिसे भगवान के मौसी का घर माना जाता है, वहाँ तक जाती है। हर साल आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को लाखों श्रद्धालु “रथ खींचने” की महापर्व में भाग लेते हैं। ऐसा माना जाता है कि जो भक्त स्वयं रथ खींचते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।
तीनों विग्रहों के अलग-अलग रथ होते हैं
भगवान जगन्नाथ के रथ को नंदीघोष कहा जाता है, जो सबसे आगे चलता है, जिसका रंग लाल-पीला होता है, इसमें गरुड़ध्वज लगा होता है, जो भगवान विष्णु और उनके पूर्णावतार का प्रतीक होता है। उनके पीछे बलराम जी का रथ होता है, जिसे तालध्वज कहते हैं, इसका रंग लाल-नीला होता है, इस रथ में हनुमान ध्वज लगा होता है। और सबसे पीछे सुभद्रा जी का रथ होता है, जिसे दर्पदलन कझते हैं, इसका रंग काला और लाल होता है, तथा इसमें पद्मध्वज अर्थात कमलध्वज लगा होता है।
क्यों निकाली जाती है रथयात्रा
- जगन्नाथ रथ यात्रा की नींव महाभारत, पुराणों और भक्तिकाव्य की परंपराओं में गहराई से जुड़ी है। रथ यात्रा को भगवान श्रीकृष्ण के वृंदावन लौटने का प्रतीक माना जाता है। द्वारका में राजसी जीवन जी रहे श्रीकृष्ण अपने बाल्यकाल की भूमि वृंदावन को कभी नहीं भूले। यह यात्रा उसी स्मृति का एक रूप है, जब वे पुनः गोपियों, यशोदा माँ और नंद बाबा से मिलने जाते हैं।
- इसके अलावा एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक दिन सुभद्रा ने अपने भाइयों से कहा कि वह पुरी नगर देखना चाहती हैं। तभी तीनों भाई-बहन रथ में सवार होकर नगर भ्रमण पर निकल पड़े। तभी से यह परंपरा शुरू हुई।
- स्कंद पुराण में वर्णन है कि मालवा नरेश इन्द्रद्युम्न को भगवान विष्णु ने स्वप्न में दर्शन देकर नीम की लकड़ी से तीन विग्रह (जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा) स्थापित करने और रथ यात्रा प्रारंभ करने की आज्ञा दी थी। तभी से रथ यात्रा का प्रारंभ हुआ।
मौसी के घर क्यों जाते हैं भगवान
भगवान जगन्नाथ अपनी यात्रा के दौरान पुरी के मुख्य मंदिर (श्रीमंदिर) से लगभग 3 किमी दूर गुंडिचा मंदिर में जाते हैं, जिसे उनके “मौसी का घर” कहा जाता है। इसके पीछे कई मान्यताएं हैं- दरसल गुंडिचा देवी को भगवान की मौसी माना जाता है। और भारतीय संस्कृति में मौसी का स्नेह माँ से कम नहीं होता, इसलिए भगवान साल में एक बार मौसी के घर जाते हैं। गुंडिचा मंदिर को ‘वृंदावन’ का प्रतीक भी माना गया है, जहाँ श्रीकृष्ण का बचपन बीता, रथ यात्रा इस वापसी को ही दर्शाती है।
सात दिन मौसी के घर रुककर लौट आते हैं भगवान
भगवान गुंडिचा मंदिर में जाने के बाद सात दिन रहते हैं, यहाँ भी उनकी पूजा, सेवा और भोग उसी तरह से लगाए जाते हैं, जिस तरह से श्रीमंदिर में। सात दिन गुंडिचा मंदिर में रहने के बाद, भगवान आषाढ़ शुक्ल दशमी को फिर से श्रीमंदिर आते हैं और फिर ‘बहुड़ा यात्रा’ के माध्यम से श्रीमंदिर लौट आते हैं।
समरसता का पर्व होता है रथयात्रा
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा सामाजिक समरसता का प्रतीक होती है। जिसमें हर जाति, वर्ग, धर्म के लोग भाग लेते हैं। यह सामाजिक समरसता और बराबरी का पर्व है जिसमें लाखों लोग कड़ी धूप, भीड़ और लंबी दूरी के बावजूद भगवान का एक झलक पाने के लिए उमड़ पड़ते हैं। और रथ को भी खींचते हैं। यह परंपरा न केवल हमारी संस्कृति को जीवित रखती है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी अध्यात्म से जोड़ती है।