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क्यों मनाई जाती है बकरीद, जानें ईद-उल-अज़हा का इतिहास

Why is Bakrid celebrated, History of Eid-ul-Azha: मक्का की रेतीली वादियों से लेकर भारत के गलियारों तक, हर साल धू अल-हिज्जा महीने की 10वीं तारीख को एक ऐसी कहानी गूंजती है, जो विश्वास, समर्पण और बलिदान की मिसाल है। यह कहानी है बकरीद की, जिसे ईद-उल-अज़हा या कुर्बानी की ईद भी कहा जाता है। इस्लाम धर्म का यह प्रमुख त्योहार न केवल आस्था का प्रतीक है, बल्कि इंसानियत, उदारता और एकता का संदेश भी देता है। आइए, इस कहानी को करीब से जानें, जो हज़रत इब्राहिम की कुर्बानी से शुरू हुई और आज भी दुनिया भर में गूंज रही है।

इब्राहिम का बलिदान

Bakrid Ki Kahani: करीब 4,000 साल पहले, आज के इराक की धरती पर, हज़रत इब्राहिम (Ibrahim) नाम के एक पैगंबर थे। उनकी जिंदगी अल्लाह के प्रति अटूट भक्ति और नेकी के रास्ते पर चलने की थी। एक रात, अल्लाह ने इब्राहिम के सामने एक कठिन परीक्षा रखी। सपने में उन्हें हुक्म हुआ कि वह अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी दें। इब्राहिम का दिल अपने इकलौते बेटे, हज़रत इस्माइल, से सबसे ज्यादा जुड़ा था, जो उन्हें 80 साल की उम्र में नसीब हुआ था।

इब्राहिम ने अपने बेटे को यह बात बताई। इस्माइल, जो खुद भी अल्लाह के प्रति समर्पित थे, ने बिना हिचक कहा, “पिता जी, अगर यह अल्लाह का हुक्म है, तो मैं तैयार हूं।” पिता-पुत्र मक्का के पास मीना के मैदान में पहुंचे। इब्राहिम का दिल भारी था, लेकिन उनकी आस्था अडिग थी। उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली ताकि पिता का मोह उनकी आज्ञाकारिता में बाधा न बने। जैसे ही उन्होंने छुरी चलाई, एक चमत्कार हुआ। जब पट्टी हटी, तो इस्माइल सही-सलामत खड़े थे, और उनकी जगह एक मेढ़ा (दुंबा) कुर्बान हो चुका था। अल्लाह ने इब्राहिम की भक्ति को स्वीकार किया और उनके बेटे की जान बख्श दी।

इसी घटना की याद में बकरीद मनाई जाती है। यह त्योहार अल्लाह के प्रति समर्पण, विश्वास और बलिदान की भावना को दर्शाता है।

बकरीद का इतिहास और शुरुआत

History and beginning of Bakrid: यह परंपरा हज़रत इब्राहिम के समय से, यानी करीब 4,000 साल पहले शुरू हुई। इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार, यह घटना कुरान में सूरह अस-साफ़्फ़ात (37:99-113) में वर्णित है। इस सूरह में हज़रत इब्राहिम और इस्माइल की कहानी का ज़िक्र है, जहां अल्लाह उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर इस्माइल की जगह एक जानवर की कुर्बानी स्वीकार करते हैं। यह कहानी न केवल कुरान में, बल्कि बाइबल (Book of Genesis) और यहूदी धर्म की किताबों में भी मिलती है, हालांकि कुछ विवरणों में अंतर है।

बकरीद को इस्लामिक कैलेंडर के आखिरी महीने, धू अल-हिज्जा की 10वीं तारीख को मनाया जाता है। यह हज यात्रा के समापन का भी प्रतीक है, जब लाखों मुस्लिम मक्का में एकत्र होते हैं। भारत में इसे बकरीद, बकरा ईद या ईद-उल-अज़हा के नाम से जाना जाता है। हिंदी-उर्दू में ‘बकरीद’ नाम इसलिए प्रचलित हुआ, क्योंकि यहां बकरे की कुर्बानी आम है, हालांकि इसका मूल अरबी नाम ‘ईद-उल-अद्हा’ है, जिसका अर्थ है ‘बलिदान की ईद’।

बकरीद में कुर्बानी क्यों दी जाती है

बकरीद पर कुर्बानी देना अल्लाह के प्रति आज्ञाकारिता और उदारता का प्रतीक है। इस्लाम में कुर्बानी के लिए ‘हलाल’ जानवर जैसे बकरी, भेड़, गाय या ऊंट का चयन किया जाता है। जानवर स्वस्थ और एक साल से अधिक उम्र का होना चाहिए। कुर्बानी का मांस तीन हिस्सों में बांटा जाता है: एक हिस्सा परिवार के लिए, एक रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए, और एक हिस्सा गरीबों व जरूरतमंदों के लिए। यह प्रथा समाज में एकता, भाईचारा और दान की भावना को बढ़ावा देती है।

कुर्बानी का ज़िक्र कुरान की सूरह अस-साफ़्फ़ात (37:99-113) में है, जहां हज़रत इब्राहिम की कहानी वर्णित है। इसके अलावा, सूरह अल-हज (22:34-37) में कुर्बानी को एक इबादत के रूप में बताया गया है, जो हर साल हज के दौरान और बकरीद पर की जाती है। कुरान में यह भी कहा गया है कि कुर्बानी का मांस या खून अल्लाह तक नहीं पहुंचता, बल्कि उसकी मंशा और भक्ति अल्लाह को प्रिय है।।

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