अपने अक्सर गौर किया होगा की मज़्जिद में केवल पुरुष ही नमाज़ पढ़ते हैं. और आपके मन में ये सवाल जरूर आया होगा की ऐसा क्यों बाकि धर्मों में तो हर कोई मदिरों में जा कर अपने आराध्य की पूजा करते हैं. इस्लाम धर्म में नमाज़ ठीक उसी तरह महत्वपूर्ण है जैसे हिंदुओं में पूजा करना माना गया है। इस्लाम धर्म का हर व्यक्ति चाहे वह पुरुष हो या महिला इबादत करना सबके लिए अनिवार्य है। लेकिन अक्सर यह सवाल उठता है कि जब पुरुष मस्जिदों में जाकर सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ते हैं, तो महिलाएं वहां क्यों नहीं जातीं? क्या उन्हें मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की अनुमति नहीं है, या इसके पीछे सामाजिक कारण हैं? आइए इस विषय को धार्मिक, सामाजिक और आधुनिक संदर्भों में समझते हैं।
इस्लाम धर्म में दी गई है महिलाओं को नमाज़ पढ़ने की इजाज़त
Women are allowed to pray in Islam: ऐसा कहा जाता है कि इस्लाम धर्म ने ही महिलाओं को मस्ज़िद में नमाज़ पढ़ने से मना किया गया है। लेकिन इस्लाम धर्म में पुरुषों और महिलाओं—दोनों को इबादत करने का बराबर अधिकार दिया गया है। हदीसों में साफ़ उल्लेख है कि पैगंबर हज़रत मोहम्मद के ज़माने में महिलाएं मस्जिदों में नमाज़ पढ़ा करती थीं। इसका मतलब ये बाते मनगढ़ंत हैं कि इस्लाम महिलाओं को मस्ज़िद में नमाज़ पढ़ने की इजाज़त नहीं देता।
फिर महिलाएं क्यों मस्ज़िद में नमाज़ नहीं पढ़ती
Then why do women not pray in the mosque?: ये तो स्पष्ट हो गया कि महिलाओं को इस्लाम धर्म में ये बिल्कुल नहीं कहा गया कि वे मस्जिद में नमाज़ ना पढ़े ये मात्र एक सामाजिक परंपरा है जैसा हिन्दू धर्म में हिंदुओं द्वारा बनाया गया है। जिस प्रकार हिन्दू धर्म में मासिक धर्म के समय महिलाओं को मंदिर में जाने से मना किया गया है, ठीक उसी तरह इस्लाम धर्म में भी समाज द्वारा महिलाओं को घर की “इबादतगाह” में बांध दिया यह सब धर्म के नाम पर नहीं, समाज के डर और असुरक्षा के कारण होता है। मज़्जिद में महिलाओं के लिए कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं की होती है, और महिलाये पर्दा प्रथा के कारण पुरे मन और श्रद्धा से इबादत नहीं कर पाती है. बस यही कारण है की महिलाये मज़्जिद में नमाज़ नहीं पढ़ती।