The place Of Qawwali: क़व्वाली क्या है क्यों इसकी तर्ज़ पर हम झूम जाते हैं कहाँ से आता है इसमें इतना जोश, आइये जानने की कोशिश करते हैं दरअसल क़व्वाली अरबी शब्द क़ौल से बना है जिसका मतलब होता है,कहा हुआ कथन या बोला गया और इसे ही गाकर तरन्नुम की शक्ल में एक दो नहीं बल्कि कई क़व्वाल या गुलूकार जोशीले अंदाज़ में पिरोकर पेश करते हैं तो वो क़व्वाली बन जाती है।
इसमें लाइनों को दोहराने और एक तर्ज़ में ताली बजाने से वो समां बंधता है कि गाने वाला और सुनने वाला हर शख़्स मदहोश हो जाता है लुत्फ़ ए मौसिक़ी में। अब क़व्वाली में आवाज़ है ,सुर हैं, तर्ज़ है,ताल है तो साज़ भी होंगे लेकिन इसमें वाद्य यंत्रों की ज़्यादा दरकार नहीं होती पर हारमोनियम ,तबला और ढोलक तो लाज़मीं तौर पर होते हैं, कभी -कभी सारंगी और सितार भी मिल जाते हैं तो फिर उस क़व्वाली के कहने ही क्या।
कहाँ से आई क़व्वाली :-
भारतीय उपमहाद्वीप में क़व्वाली का जन्म तेरहवीं शताब्दी में माना जाता है जब इस्लामी दखल हुआ ,
और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ख़याल जुड़ा हालाँकि भारत में क़व्वाली सूफी संगीत के ज़रिये आई जिसमें आध्यात्म था और इनमें सूफी सितारों से चमके चिश्तिया, कादिरिया, सुहरावरदिया और नक्शबंदिया। चिश्तिया के वंशज थे हज़रात निज़ामुद्दीन औलिया जिन्होंने मौसिक़ी के ऐसे-ऐसे राज़ खोले कि उनके मुरीद और शागिर्द अमीर ख़ुसरो ने उसे एक नया लिबास पहना दिया जिसमें फ़ारस ,तुर्की ,भारत और अरब के ख़्यालों के रंग मिल गए तो क़व्वाली की बोली भी चटकीली हो गई और खूब फली फूली अब भारत के स्थानीय रंग भी इसमें आ गए थे जो मराठी, दक्खिनी और बांग्ला क़व्वाली में दिखे।
अब बरी थी रगों की तो ये यमन, बागेश्री, बसंत और सोहनी जैसे रागों में भी ढली। दरगाह या सूफी खानकाह ने क़व्वाली के प्रचार प्रसार में अहम भूमिका निभाई। जलालुद्दीन रूमी के दरवेशों ने भी अपने कुछ वज़ीफों को कलाम करने के लिए क़व्वाली का सहारा लिया और ऊँचीं आवाज़ में तर्ज़ और लय से बंधे तो उन्हें भी क़व्वाल कहा गया। तब से ही ये फ़ारसी, हिंदी, उर्दू और पंजाबी अवधी और ब्रज भाषा में लिखी जाने लगी।
कैसी है क़व्वाली :-
भारतीय उपमहाद्वीप में मध्यकाल में शुरू हुई क़व्वाली जैसे-जैसे आगे बढ़ी, सांस्कृतिक, भाषाई और आध्यात्मिक संगम के रूप में उभरी अब इसमें कोई मज़हबी दीवार नहीं थी ,ये मौसिक़ी का एक नया चलन था जिसमें सब कुछ था हमारे लिए ,एक मिलाजुला रूप बना इसका जो सबको आकर्षित करता था क्योंकि ये मौसिक़ी की नई रवायत लेके आई थी। 650 साल से भी ज़्यादा पुरानी हो चुकी क़व्वाली से हमारा जुड़ाव किसी और गाने से ज़्यादा और जल्दी हो जाता है शायद इसलिए कि इसके बोल धीमी रफ़्तार से तेज़ होते हैं और हमें इसकी लिरिक्स समझ में आ जाती है और इसलिए लुत्फ़ भी आने लगता है फिर मेन क़व्वाल की गायी गई लाइन को जब साथी क़व्वाल दोहराते हैं वो भी ताली की थाप पर जोश ओ-जुनूँ से लबरेज़ होकर तो सुनने वाले भी उसकी रौ में बहकर लुत्फ़ अन्दोज़ होने लगते हैं।
कहाँ से कहाँ तक पहुंची क़व्वाली :-
इक़रार भी है इश्क़ भी है और तकरार भी है लेकिन प्यार से ,अरबी छंदों यानी क्वेल या क़लबाना में रचे क़व्वाली के बोल कहता क़व्वाल बड़ा आलिम लगता है यूँ लगता है वो पहले से हर लुत्फ़ और रंज ओ ग़म से वाक़िफ़ है और अब हमें भी बुला रहा है संभलके चलने को उन रास्तों पर। मानो वो हमारा मोहसिन हो। ऐसे क़व्वालों की फ़ेहरिस्त में नुसरत फ़तेह अली ख़ान का नाम शायद सबसे पहले आपको याद आ जाए जिन्होंने क़व्वाली को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुँचाया और हमें दी, “नरगिसी आँख डोरे गुलाबी….” जैसी नायब क़व्वाली।
और क़व्वाली के नए और रूहानी सफर की बात करें तो आज आबिदा परवीन भी एक ख़ास मक़ाम रखती हैं।
क़व्वाली का क्या कोई दायरा है:-
संगीत प्रेमियों के दिलों में ही नहीं फिल्मों में भी क़व्वाली का एक अलग ही मर्तबा है जिसमें “बरसात की रात” फिल्म में साहिर लुधियानवी की लिखी क़व्वाली में उर्दू, फ़ारसी के अलावा पंजाबी, सूफिज़्म, कृष्ण प्रेम , बुद्धिज़्म, ईसाइयत सबके दर्शन हो जाते हैं ,रोशन के संगीत निर्देशन में आई ये ऐसी क़व्वाली है जो क़रीब बारह मिनट की होने के बावजूद आज तक सुपरहिट बनीं हुई हैं ,तो ज़रा इसके अन्तरे पर ग़ौर करिए जो साहिर का इश्क़ के लिए ऐसा सजदा है जो किसी तिलिस्म से कम नहीं हैं, जिसने इश्क़ के ज़रिये ज़ात पात से परे इंसान को सिर्फ इंसान बनने और मोहब्बत करने का पैग़ाम दिया है ये लाइन हैं – इश्क़ ना पुच्छे दीन धरम नू, इश्क़ ना पुच्छे ज़ाताँ, इश्क़ दे हाथों गरम लहू विच, डुबियां लख बराताँ के … दे इश्क़ ,………इश्क़ इश्क़।
जब जब कृष्ण की बंसी बाजी, निकली राधा सज के, जान अजान का मान भुला के, लोक लाज को तज के
जनक दुलारी बन बन डोली, पहन के प्रेम की माला ,दशर्न जल की प्यासी मीरा पी गई विष का प्याला
और फिर अरज करी के ,लाज राखो राखो राखो, लाज राखो देखो देखो, ये इश्क़ ……इश्क़। अल्लाह रसूल का फ़रमान इश्क़ है
याने हफ़ीज़ इश्क़ है, क़ुरान इश्क़ है ,गौतम का और मसीह का अरमान इश्क़ है ,ये कायनात जिस्म है और जान इश्क़ है
इश्क़ सरमद, इश्क़ ही मंसूर है ,इश्क़ मूसा, इश्क़ कोह-ए-तूर है ,ख़ाक़ को बुत, और बुत को देवता करता है इश्क़,
इन्तहा ये है के बंदे को ख़ुदा करता है इश्क़ इश्क़ ,………इश्क़ इश्क़। इस क़व्वाली में फिल्मांकन से लेकर दिग्गज गायकों – मो . रफ़ी, मन्ना डे ,आशा भोसले ,एस डी बातिश और सुधा मल्होत्रा ने जहाँ चार चाँद लगाया है वहीं रोशन के संगीत ने भी कमाल किया है जिसकी वजह से इसका सुरूर आज भी बरक़रार है दूसरी तरफ मुग़ल ए आज़म फिल्म की क़व्वाली ,”तेरी महफ़िल में क़िस्मत आज़माकर हम भी देखेंगे “ने भी कई रिकॉर्ड तोड़े हैं।