पिंडारियों का इतिहास: भारत में 18 वीं शताब्दी के अंत और 19 वीं शताब्दी के प्रारंभ में जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारतीय उपमहाद्वीप में अपना प्रभाव लगातार बढ़ा रही थी, उसी समय मध्यभारत में अनियमित सैनिकों का दलों का आतंक छा गया, जो क्रूर लुटेरे और शिकारियों का समूह था, इनके आतंक से पूरा मध्यभारत थर्राता था, अंग्रेज इन्हें महामारी मानते थे। आखिर कौन थे यह थे पिंडारी, जिनका दमन करने के लिए स्वयं तत्कालीन गवर्नर जनरल फ्रांसिस हेस्टिंग को मैदान में उतारना पड़ा।
कौन थे पिंडारी
सामान्यतः माना जाता है पिंडारी दक्षिण में रहने वाले युद्धप्रिय पठान घुड़सवार लड़ाका थे। लेकिन वास्तविकता में देखा जाए तो ऐसा नहीं था, पिंडारी एक समूह था, जिनमें विभिन्न जाति समूहों और धर्मों के लोग थे। इनका नामकरण, उत्पत्ति इत्यादि इतिहासकारों के मध्य विवादित है, लेकिन माना जाता है इनका नामकरण सामान्यतः माना जाता है पिंडारी दक्षिण में रहने वाले युद्धप्रिय पठान घुड़सवार लड़ाका थे। लेकिन वास्तविकता में देखा जाए तो ऐसा नहीं था, पिंडारी एक समूह था, जिनमें विभिन्न जाति समूहों और धर्मों के लोग थे। इनका नामकरण, उत्पत्ति इत्यादि इतिहासकारों के मध्य विवादित है, लेकिन माना जाता है इनका नामकरण मराठी शब्द पिंडा से हुआ, जो ज्वर से बनने वाला पेय होता था, जो शुरुआत में मराठा सैनिकों द्वारा प्रयोग किया जाता था। संभवतः वे प्रारंभ में मराठा सैनिकों के लिए सप्लाइ देने और टोह और जासूसी का कार्य किया करते थे, इतिहासकार सरदेसाई के अनुसार सबसे पहले शिवाजी राजे और संताजी घोरपाड़े ने इनका पहली बार प्रयोग किया था।
पिंडारी संगठन और चरित्र
ये बेहद कर्मठ, साहसी और दुर्घष घुड़सवार लड़ाका थे, लेकिन दूसरी तरफ वह बहुत ही क्रूर लुटेरे और निर्दयी होते थे, यह लूटपाट के बाद गाँव के गाँव जला दिया करते थे। बांस से बने बड़े भाले इनके प्रिय अस्त्र होते थे, वह तलवार तथा खंजरों का प्रयोग भी किया करते थे, कुछ लोगों द्वारा बंदूकें भी प्रयोग की जाती थीं। यह दलों में विभक्त रहते थे, तथा प्रत्येक दल में 2 से 3 हजार सवार रहते थे, योग्यतम व्यक्ति को सरदार चुना जाता था, सरदार की ही आज्ञा सर्वमान्य हुआ करती थी। इनमें कोई धार्मिक संकीर्णता भी नहीं होती थी, हालांकि माना यही जाता है यह मूलतः मुस्लिम हुआ करते थे, लेकिन उनके दलों में जाट और सिखों के होने की भी बात पता चलती है, इनमें कुछ देवी-देवताओं की भी पूजा की जाती थी, इसका प्रमाण इससे भी मिलता है इनमें काबाईली संस्कृत थी, इनमें सती प्रथा का भी कुछ साक्ष्य मिलता है, जनरल मैल्कम ने पिंडारी महिलाओं की तुलना मंगोल स्त्रियों से की है।
मराठा दलों के साथ
इनके बारे में यह माना जाता था, यह अनियमित सवार थे, जो मराठा सेना के अभियानों में उनके साथ ही रहते थे, लेकिन इन्हें कोई वेतन नहीं दिया जाता था, बल्कि दुश्मन के देश और क्षेत्रों को लूटने की अनुमति इन्हें होती थी, यह बहुत तेजी से हमला करते और लूटपाट करके उतनी से तेजी से निकल जाते थे, पानीपत के युद्ध के बाद इनका ठिकाना मध्यभारत में जम गया, यमुना से नर्मदा के बीच का क्षेत्र ही इनसे सबसे ज्यादा प्रभावित था। मराठे इनका प्रयोग चौथ और सरदेशमुखी वसूलने के लिए किया करते थे, होल्कर के लिए काम करने वाले पिंडारियों को होल्करशाही पिंडारी तथा, तथा सिंधिया के लिए काम करने वाले पिंडारी को सिंधिया शाही पिंडारी भी कहा जाता था। मराठा शासक इन पिंडारियों को एक दूसरे के विरुद्ध प्रयोग किया करते थे।

सर जॉन मैल्कम एक घटना का जिक्र करते हैं, जब नागपुर और भोपाल राज्य के विरुद्ध संघर्ष चल रहा था, तो पिंडारियों ने भोपाल के समक्ष नागपुर पर आक्रमण करने और उन्हें बर्बाद करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन भोपाल राज्य ने मना कर दिया। तब यही प्रस्ताव उन्होंने नागपुर के भोंसले राजा के सामने रखा, तो उसने स्वीकार कर लिया, उसके बाद भोपाल में बर्बादी का ऐसा कहर छाया कि उससे भोपाल 25 साल बाद भी नहीं उभर पाया, इसी तरह होल्कर और सिंधिया ने भी इन पिंडारियों का प्रयोग राजपूताना के राज्यों को बर्बाद करने के लिए किया।
पिंडारियों का दमन
पिंडारियों को जब तक अंग्रेजों ने नजरअंदाज किया, जब तक वह देसी रियासतों (मुख्यतः राजपूताना, बुंदेलखंड और मध्यभारत) को लूटते रहे। कई इतिहासकार यह भी कहते हैं कि अंग्रेजों ने पिंडारियों का प्रयोग राजपूतों और मराठों राज्यों के प्रति वैमनस्यता बढ़ाने के लिए भी किया। लेकिन 1812 में जब पिंडारियों ने इलाहाबाद के एक निर्वासित जमींदार के उकसावे पर रीवा रियासत से होकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की टेरिटरी मिर्ज़ापुर और शाहाबाद पर आक्रमण किया तब अंग्रेजों के कान खड़े हुए। हालांकि पिण्डारियों ने मिर्ज़ापुर शहर में प्रवेश नहीं किया, लेकिन आस पास के लगभग 5 गावों को लूट लिया। और सरगुजा-रायपुर के रास्ते नागपुर की तरफ चले गए। पिंडारियों ने 1812 में सूरत में भी लूटपाट की, 1815 में पिंडारियों ने निज़ाम के क्षेत्रों पर हमले किए और 1816 में उत्तरी सरकार पर और मद्रास प्रेसिडेंसी पर भी लूटपाट की, अब अंग्रेजों के लिए जरूरी था, वह पिंडारियों का दमन करें।
गवर्नर-जनरल फ्रांसिस हेस्टिंग्स ने इनके विरुद्ध अभियान की योजना बनाई, उसने राजपूत राज्यों, मराठा सरदारों और भोपाल से सैन्य सहायता प्राप्त की, लगभग 1 लाख 13 हजार की फौज और 300 तोपें उनके विरुद्ध उतारीं, उत्तरी अभियानों को खुद हेस्टिंग्स ने लीड किया और दक्षिणी अभियानों का नेतृत्व सर थॉमस हेपल को सौंपा गया, 1818 तक पिंडरियों का पूर्णतः दमन हो गया। मराठे भी शुरुआत में इन्हें बढ़ावा देते रहे, इनकी लूट पर हिस्सा लेते रहे, लेकिन बाद जब यह मराठा क्षेत्रों को भी लूटने लगे, तब मराठों ने भी इनके विरुद्ध ब्रिटिश अभियानों का समर्थन किया।
पिंडारियों का क्या हुआ
देसी राज्यों और अंग्रेजों की फौजों की मिली-जुली शक्ति से पिंडारियों की शक्ति बिखर गई, होल्करशाही के लिए काम करने वाले आमिर खान को, जिसे यशवंतराव होल्कर ने टोंक का परगना दिया था, अंग्रेजों ने उसे टोंक के नवाब का दर्जा दिया, और आगे चलकर टोंक राजस्थान का एक प्रिंसली स्टेट भी बना। इसी तरह से करीम खान नाम के पिंडारी नेता ने मैल्कम के आगे आत्मसमर्पण कर दिया, उसे बाद में गोरखपुर के पास एक छोटी सी जागीर दी गई, वासिल मुहम्मद ने सिंधिया के शिविर में शरण ली, बाद में उसने आत्महत्या कर ली थी, चीतू नाम का पिंडारी सरदार जंगलों में भाग गया, जहाँ वह एक बाघ का शिकार हो गया, इसके साथ ही भारत से पिंडारियों का आतंक भी समाप्त हो गया।