Vidur Niti Hindi Mein: प्राचीन काल में विद्वानों द्वारा बनाई गई नीतियाँ आज भी प्रासंगिक है, इनमें से एक प्रमुख है विदुरनीति। विदुरनीति की व्याख्या महाभारत के उद्योगपर्व में की गई है, यह कुरु राज्य के महामंत्री महात्मा विदुर द्वारा अपने महाराज धृतराष्ट्र को राजनीति पर दी गई व्याख्याएँ हैं। जिसके माध्यम से वह महाराज धृतराष्ट्र को पांडवों का राज्य वापस लौटा देने का परामर्श देते हैं। विदुर नीति एक महत्वपूर्ण नीतिशास्त्र है, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं पर मार्गदर्शन प्रदान करता है। यह नीतिशास्त्र आज भी प्रासंगिक है और लोगों को जीवन को सही तरीके से जीने के लिए प्रेरित करता है, इन नीतियों को आज भी पढ़ कर इनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
कौन थे विदुर
महात्मा विदुर कुरु राज्य के महामंत्री थे उन्हें धर्म, अर्थ और नीतियों आदि का ज्ञाता माना जाता है। वह महाराज धृतराष्ट्र और पांडु के सौतेले भाई थे, इस नाते वह कौरवों और पांडवों के काका थे। महाभारत की कथानुसार वह धर्मराज यम के मानवातर थे, जो मांडव्य ऋषि के श्राप के कारण मनुष्य रूप में पैदा हुए थे, वह भी दासी पुत्र, तीनों भाइयों में सर्वाधिक योग्य होंने के बाद भी उन्हें दासी पुत्र होंने के कारण राजा नहीं बनाया गया था। वह राजा धृतराष्ट्र को हमेशा समझाते रहते थे। लेकिन पुत्र मोह में पड़े हुए राजा ने उनकी बात को कभी नहीं माना, बल्कि वह शकुनि की सलाह हमेशा मानते रहे। लेकिन महाभारत के अनुसार सभी उनका बड़ा आदर करते थे, यहाँ तक की भगवान श्रीकृष्ण भी।
विदुर के जन्म की कथा
महाभारत की कथा के अनुसार वह महर्षि वेदव्यास और अंबिका की एक दासी परिश्रमी के पुत्र थे, कथानुसार महाराज शांतनु का विवाह सत्यवती के साथ हुआ था, जो कि एक केवट की लड़की थी, उसके विवाह के पूर्व उसके पिता ने कुछ शर्तें रखी थी, जिसके बाद महाराज शांतनु के पुत्र देवव्रत ने कठोर प्रतिज्ञा की थी, जिसमें एक शर्त थी केवल सत्यवती की संतान ही राजा बनेगी। सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य का देहांत निःसंतान अवस्था में हो गया, जिसके बाद अब राजा कौन बने, इस स्थिति में सत्यवती ने अपने प्रथम पुत्र कृष्णद्वैपायन व्यास को बुलाया। व्यास ने नियोग के लिए पहले अंबिका को बुलाया पर उसने डर के मारे आँखें बंद कर ली, व्यास ने घोंसणा की अंबिका का पुत्र अंधा होगा, इसके बाद अंबालिका को व्यास के पास भेजा गया लेकिन वह डर गई, जिसके कारण उसका चेहरा पीला पड़ गया, व्यास ने यह पुत्र पीत रोग से ग्रस्त होगा। तब सत्यवती के कहने पर व्यास ने फिर अंबिका को बुलाया पर इस बार वह खुद ना जाकर उसने अपनी दासी परिश्रमी को भेज दिया, वह बड़े निडरता और सहजभाव से ऋषि सम्मुख गई, जिसके कारण उससे उत्पन्न संतान बहुत विद्वान हुई, विद्वान होंने के कारण ही उनका नाम विदुर रखा गया।
क्या है विदुर नीति
विदुर नीति महाभारत के उद्योग पर्व के 33वें अध्याय से लेकर 40 वें अध्याय तक वर्णित है। इसमें महात्मा विदुर नीति वास्तव मैं युद्ध के परिणाम से शंकित और बेचैन हस्तिनापुर नरेश महाराज धृतराष्ट्र और उनके भाई राज्य के महामंत्री विदुर के बीच का संवाद है। महात्मा विदुर द्वारा इसमें राज्य-व्यवस्था, राज-व्यवहार और राजनीति के निर्देशक तत्वों सारांश है। जिसके माध्यम से विदुर राजा को पांडवों का राज्य वापस करने देने का परामर्श देते हैं। दरसल वनवास के बाद पांडवों ने हस्तिनापुर में दूत भेजकर अपना अपना राज्य मांगा, पर दुर्योधन के हठ और पुत्र मोह में अंधे धृतराष्ट्र ने कोई निर्णायक उत्तर नहीं भेजा, केवल इतना कहा वह परामर्श करके संजय के माध्यम से अपना संदेश भेजवाएंगें। हालांकि संजय के माध्यम से भी उन्होंने अनिश्चित संदेश भेजा और केवल इतना कहा- ऐसा कार्य करें जिसमें भरतवंशियों का हित हो और कोई भी युद्ध ना हो। सभा में उपस्थिति भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- संधि य युद्ध होना या ना होना युधिष्ठिर के हाथों में नहीं, महाराज धृतराष्ट्र के हाथों में है, इसे चुनौती या परामर्श कुछ भी मान सकते हैं। संजय वापस आ गए लेकिन युधिष्ठिर का जवाब उन्होंने दरबार में बताने का निश्चित किया, जिसके बाद धृतराष्ट्र व्यग्र और बेचैन हो गए, जिसके बाद उन्होंने अपने प्रिय विदुर को बुलाया।

कुछ प्रमुख नीतियाँ और सूक्तियाँ
विदुर नीति में सत्य, न्याय, कर्तव्य, सहानुभूति और आत्मनियंत्रण मनुष्य के प्रमुख गुण माने गए हैं।
विदुर नीति के अनुसार केवल धर्म ही परमकल्याणकारी है, क्षमा कर देना ही शांति का उपाय है, विद्या ही परम संतोष देने वाली है, और अहिंसा सर्वाधिक सुख देने वाली मानी जाती है।
विदुर कहते हैं किसी कार्य को बहुत सोचकर और विचार-विमर्श करके आरंभ करना चाहिए, जल्दबाजी में कोई कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए, अन्यथा उसके परिणाम से आपको पछताना भी पड़ता है।
जो व्यक्ति दूसरों की धन, संपदा, सुख, रूप, सौंदर्य, ज्ञान और वैभव को देखकर जलता है, वह व्यक्ति कभी भी जीवन में आगे नहीं बढ़ता है।
दूसरों को अपमान नहीं करना चाहिए, मित्रों से द्रोह नहीं करना चाहिए, दुष्ट लोगों की संगत नहीं करना चाहिए, रूखी तथा रोषभरी वाणी का परित्याग करना चाहिए।
जो लोग दूसरों की मदद को तत्पर होते हैं, उन्हें हर जगह सम्मान मिलता है, जो लोग सहज और सरल प्रकृति के होते हैं, उन्हें भी हर जगह सम्मान मिलता है।