Bahadur Shah Zafar History In Hindi: उत्तरप्रदेश के गाजियाबाद रेलवे स्टेशन में शुक्रवार को बहुत हंगामा हो गया। यहाँ पर आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ‘जफ़र’ की बनी हुई पेंटिंग को, औरंगजेब की समझ कर हिंदू रक्षा दल के कार्यकर्ताओं ने नारे लगाते हुए कालिख पोत दी। इस घटना के बाद रेलवे पुलिस आरोपियों के खिलाफ सख्त एक्शन की तैयारी में है। जफर ना केवल आखिरी मुग़ल बादशाह थे, बल्कि 1857 क्रांति के समय विद्रोहियों ने उन्हें अपना नेता घोषित किया था। बाद में ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें रंगून में निर्वासित कर दिया गया था। जहाँ पर 6 नवंबर 1862 को लकवे के कारण उनकी मृत्यु हो गई थी। जफ़र उर्दू एक उम्दा शायर भी थे।
Bahadur Shah Zafar
कौन थे बहादुर शाह जफ़र | Who was Bahadur Shah Zafar
बहादुर शाह ज़फ़र हिंदुस्तान में आखिरी मुग़ल बादशाह थे। हालांकि उनकी बादशाहत नाम मात्र की थी, दिल्ली पर अंग्रेजों का पूर्ण नियंत्रण था। उनका जन्म 24 अक्टूबर 1775 को शहजहाँनाबाद अर्थात दिल्ली में हुआ था। उनके पिता अकबर द्वितीय थे जबकि माँ का नाम लालबाई था। ज़फ़र के पिता अकबर शाह को अंग्रेजों ने दिल्ली का शासक नियुक्त किया था। अकबर शाह पर मुमताज़ महल नाम की उसकी बेगम का अत्यधिक प्रभाव था, इसी प्रभाव के चलते उसने अपने बेटे मिर्जा जहांगीर को दिल्ली का उत्तराधिकारी घोषित करवा लिया। लेकिन जहांगीर ने एक गलती की उसने दिल्ली स्थित ब्रिटिश रेसिडेंट आर्कीबाल्ड सेटन पर आक्रमण कर दिया। जिसके बाद उसे गिरफ्तार कर इलाहाबाद में निर्वासित कर दिया गया। जिसके बाद बहादुर शाह को मुग़ल उत्तराधिकारी घोषित किया गया।
बहादुर शाह ज़फ़र का दिल्ली का बादशाह बनना | Bahadur Shah Zafar becomes the King of Delhi
अपने पिता अकबरशाह द्वितीय की 28 सितंबर 1837 को हुई डेथ के बाद, बहादुर शाह जफ़र बादशाह बने। लेकिन मुग़ल सल्तनत तो सिकुड़ तक बहुत पहले ही दिल्ली से पालम तक सीमित हो गई थी। उस पर भी दिल्ली पर पहले मराठों और बाद में अंग्रेजों का प्रभाव था। मुग़ल बादशाह के पास केवल मुग़लों की विरासत थी, लालकिला था और अंग्रेजों से मिलने वाली बड़ी पेंशन थी।
जब 1857 क्रांति के नायक बने बहादुरशाह जफ़र | Role of Bahadur Shah Zafar in the Revolution of 1857
जिस समय 1857 की क्रांति हो रही थी, मुग़ल बादशाह ज़फ़र की उम्र और अवस्था तब 82 वर्ष की हो चुकी थी। वह प्रारंभ में क्रांति में शामिल नहीं होना चाहते थे। और वह क्रांति के प्रति उदासीन थे। लेकिन जब विद्रोहियों और सिपाहियों ने उन्हें अपना नेता स्वीकार कर लिया, अपनी सबसे प्रिय पत्नी ज़ीनत महल के समझाने के बाद उन्होंने भारी मन से विद्रोहियों को अपना समर्थन दे दिया। दरसल ज़फ़र का इस क्रांति में शामिल होने का बड़ा प्रतीकात्मक महत्व था। मुग़ल बादशाह नाम मात्र का ही सही, लेकिन उस समय के लगभग पूरे हिंदुस्तान का सम्राट माना जाता था। उसकी क्रांति में सहभागिता ने क्रांतिकारियों को नए जोश और उत्साह से भर दिया, हालांकि ज़फ़र ने क्रांति में कोई सक्रिय भागीदारी नहीं निभाई थी। लेकिन उनका महत्व बहुत था, विद्रोही सिपाही ज़फ़र के नाम की दुहाई देकर विद्रोह का आवाहन करते थे।
बहादुर शाह ज़फ़र को किया गया गिरफ्तार | Bahadur Shah Zafar was arrested
12 मई को उन्होंने दिल्ली में बहुत सालों बाद अपना दरबार लगाया। उन्होंने हिंदू-मुस्लिमों में एकता कायम करने के लिए प्रयास किया। लेकिन 16 मई को लगभग 52 अंग्रेजों को दिल्ली में बहुत बुरी तरह मारा गया, जिनमें कई महिलायें और बच्चे भी थे। हालांकि बहादुर शाह ज़फ़र द्वारा, विद्रोहियों को ऐसा करने से मना भी किया गया था, लेकिन विद्रोही अनियंत्रित थे। 8 जून को अंग्रेजी सेना द्वारा दिल्ली की जबरजस्त घेराबंदी की गई, ब्रिटिश फौजों के अलावा सिख और गोरखा सिपाही भी उनके साथ थे। सितंबर में अंग्रेजी सेना द्वारा दिल्ली पर विजय के बाद ज़फ़र अपने परिवार के साथ हुमायूँ के मकबरे में में शरण ली। 19 सितंबर को अंग्रेजों और ज़ीनत महल के बीच हुई बातचीत और मेजर विल्सन के उनके जीवन को बख्शने के वादे के बाद बहादुर शाह ज़फ़र ने आत्मसमर्पण कर दिया। आत्मसमर्पण के बाद उन्हें चाँदनी चौक में बेगम समरु की हवेली में नजरबंद करके रखा गया। लेकिन अगले ही दिन 20 सितंबर को उनके लिए वज्रपात का दिन था, जब मेजर हडसन द्वारा उनके दो बेटे और एक पोते को गोली मार दी गई, और उनका शव खूनी दरवाजे में टांग दिया गया था, कुछ सोर्स तो कहते हैं, उनका कटा हुआ सर बहादुर शाह के सामने पेश किया गया था।
बहादुर शाह ज़फ़र को रंगून निर्वासित कर दिया गया | Bahadur Shah Zafar was deported to Rangoon
गिरफ़्तारी के बाद उन पर ट्रायल चलाया गया। मेजर हडसन द्वारा उनकी जान बख्शने के कारण, उन्हें मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था। इसीलिए लगभग 20 दिनों तक चले लंबे ट्रायल के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा निर्वासित कर दिया गया। दिल्ली में बंदी के दौरान उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया गया। बर्मा में उनके साथ उनकी पत्नी ज़ीनत महल और कई अन्य रिश्तेदारों को भी उनके साथ बर्मा ही निर्वासित कर दिया गया। बर्मा में निर्वासित होकर बहादुर शाह ज़फ़र को अक्सर हिंदुस्तान और यहाँ की जमीं की याद आती रहती थी। उनके बेटे और पोते ज्यादातर अंग्रेजों द्वारा मारे जा चुके थे, अंतिम समय बर्मा में बेहद हताश, निराश अवसाद में निर्वासित जीवन जीते हुए 7 नवंबर 1862 को 87 वर्ष की उम्र में लकवे से उनकी मृत्यु हो गई, वहीं के श्वेडगान पैगोडा में उनको दफना दिया गया।
उर्दू के बड़े शायर थे ज़फ़र | Bahadur Shah Zafar was a great Urdu poet
बादशाह जफ़र के भले ही सल्तनत नाम भर की थी, लेकिन उनका दरबार खूब जमता था। उनके दरबार में ग़ालिब, मोमिन और जौक जैसे बड़े शायर थे। बहादुर शाह ज़फ़र खुद बड़े शायर थे, वह कविताएँ लिखा करते थे। उन्होंने प्रेम और शृंगार के अलावा उन्होंने देश पर भी कविताएँ लिखी थीं, हिंदुस्तान के मिट्टी को वो अपना यार मानते हैं। अपने एक शेर में वह अपने को बदनसीब मानते हैं, क्योंकि उन्हें दफन होने के लिए हिंदुस्तान की मिट्टी नहीं मिलेगी। कहानी है जब मेजर हडसन द्वारा हुमायूँ के मकबरे से उन्हें उनके परिवार के साथ गिरफ्तार किया गया। हडसन जो खुद उर्दू का थोड़ा सा ज्ञान रखता था। उसने व्यंग्य करते हुए ज़फ़र से कहा-
दमदमे में दम नहीं खैर मांगों जान की,
ऐ ज़फ़र. . . ठंडी हुई अब शमशीर हिंदुस्तान की।
बहादुर शाह ज़फ़र ने मेजर हडसन से मुखातिब होते हुए कहा-
हिंदीओं में जब तलक रहेगी बू ईमान की
तख्त-ए-लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की