King Vikramaditya History In Hindi: 30 मार्च 2025 से विक्रम संवत 2082 अर्थात हिंदू नववर्ष और चैत्र नवरात्रि का प्रारंभ हो जाएगा। मान्यता है इसी दिन भगवान ब्रम्हा ने सृष्टि की रचना की थी, भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। इसके साथ ही चैत्र नवरात्रि का प्रारंभ होता है, जो पराशक्ति देवी के आराधना और भक्ति का पर्व होता है। इसके साथ ही इस दिन का संबंध जोड़ा जाता है एक राजा से जिन्हें विक्रमादित्य कहा जाता है, माना जाता है कि उन्होंने म्लेच्छों पर विजय के उपरांत एक संवत चलाया था, जिसे विक्रम संवत कहा जाता है।
कौन थे राजा विक्रमादित्य
राजा विक्रमादित्य भारत के इतिहास के सर्वाधिक लोकप्रिय नायक हैं, भारतीय परंपरा में श्री राम और श्री कृष्ण के अतिरिक्त वह तीसरे हैं, जो भारतीय जनसाधारण में अभी भी इतना लोकप्रिय हैं। माना जाता है राजा विक्रमादित्य उज्जैनियी के राजा थे। विक्रमादित्य जिनके बारे में बहुत सारी कथाएँ हमारे संस्कृत और पौराणिक ग्रंथों में मिलती है। इन पौराणिक कथाओं के अनुसार, विक्रमादित्य ने दिग्विजय की थी और वह बहुत ही पराक्रमी राजा थे। कुछ ग्रंथों के अनुसार तो उनका शासन अरब प्रायद्वीप तक फैला हुआ था। उनके पिता का नाम गंधर्वसेन था, जैन ग्रंथ के अनुसार विक्रमादित्य के पिता का नाम गर्दभिल्ल था। और माता का नाम सौम्यदर्शना या मदनरेखा था। जबकि राजा भतृहरि को उनका सौतेला बड़ा भाई बताया गया है, पिता की मृत्यु के बाद भतृहरि गद्दी पर बैठे, लेकिन अपनी स्त्री से मिले धोखे के बाद वह वियोगी हो गए, वैराग्य धारण करने से पहले उन्होंने अपने छोटे भाई विक्रम को राजा बनाया, जो विक्रमादित्य के नाम से शासन चलाते थे।
कई ग्रंथों में है जिक्र
राजा विक्रमादित्य का जिक्र कई संस्कृत, प्राकृति और अपभ्रंश ग्रंथों में है। उनका पहला जिक्र हाल द्वारा रचित गाथा सप्तशती में है। इसके अतिरिक्त कथासरित्सागर और वृहत्कथामंजरी में भी उनका उनकी कहानियाँ मिलती हैं। सिंहासन बत्तीसी और बैताल पच्चीसी ऐसी ही कथाएँ हैं, जो आज भी बहुत ज्यादा लोकप्रिय हैं। कल्हण की राजतरंगिनी और बहुत सारे जैन ग्रंथों में भी विक्रमादित्य का जिक्र है, जहाँगीर रचित तुज़ुक-ए-जहाँगीरी में भी विक्रमादित्य का जिक्र है, जहाँगीर उज्जैन को विक्रमादित्य की राजधानी कहता है, जो अतीत में बहुत बड़ा शासक था।
विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता पर विवाद
राजा विक्रमादित्य पर इतिहासकारों में खासा मतभेद है, कुछ विद्वान गुप्त वंश के सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय को वह विक्रमादित्य मानते हैं, जिसने विक्रम संवत का प्रवर्तन किया था। जो दिग्विजयी सम्राट समुद्रगुप्त के छोटे पुत्र थे, उन्होंने उज्जैन के शक राजाओं को पराजित किया था, जिसकी एक बड़ी ही रोमांचिक कथा संस्कृत ग्रंथों में मिलती है। इसके अलावा इतिहासकर नवरत्नों को उन्हीं सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय से ही जोड़ते हैं। कुछ ग्रंथों में विक्रमादित्य के पिता का नाम महेंद्रादित्य बताया गया है, यह उपाधि गुप्तवंश के सम्राट कुमारगुप्त प्रथम की थी, इस हिसाब से कुछ विद्वान उनके पुत्र स्कंदगुप्त को वह विक्रमादित्य मानते हैं। स्कंदगुप्त ने भी भारत भूमि पर आक्रमण करने वाले हूणों को बुरी तरह पराजित किया था। गुप्तवंश के सम्राट अपने नाम के साथ विक्रमादित्य, महेंद्रादित्य, शक्रादित्य और बालादित्य जैसी उपाधियाँ धारण भी करते थे, लेकिन इस मत से भी कुछ इतिहासकार सहमत नहीं है, क्योंकि गुप्त का चलाया हुआ खुद का एक संवत था, जिसका जिक्र उनके अभिलेख इत्यादि में भी है। लेकिन इस विवाद के बीच हमें यह ध्यान रखना चाहिए विक्रमादित्य का पहला जिक्र हाल द्वारा गाथा शप्तसती नाम के ग्रंथ में है, जो ईसा की पहली शताब्दी के आस पास लिखा गया था।
क्या है विक्रम संवत
विद्वानों का मत है विक्रम संवत को पहले कृत संवत और मालव संवत के नाम से जाना जाता था। विक्रम संवत का प्रवर्तक उज्जैनियी के राजा विक्रमादित्य को माना जाता है, विक्रमादित्य जिनके बारे में बहुत सारी कथाएँ हमारे पौराणिक ग्रंथों में मिलती हैं। यह विक्रमादित्य कौन थे, किस वंश के थे, उनका समय क्या था। इतिहासकारों और विद्वान में इस बात को लेकर बहुत मतभेद है, इसीलिए कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता है। लेकिन प्राचीन इतिहास के विद्वान, प्रोफेसर राजबली पाण्डेय का एक मत अत्यधिक समाचीन जान पड़ता है, जिनके अनुसार विक्रम संवत के प्रवर्तक राजा विक्रमादित्य मालव गणसंघ से सम्बंधित थे, जो मालवा में शासन किया करते थे। उन्होंने गणना के लिए पहले से ही प्रयुक्त हो रहे कृत संवत का ही प्रवर्तन कर उसे मालव संवत कहा, लेकिन उनके बाद के समय में उनका नाम बना रहा और कालांतर में यह विक्रम संवत के तौर पर जाना जाने लगा। भारत और नेपाल में अंग्रेजों के आगमन से पूर्वतक, यहाँ के हिंदू अपनी गणना पद्धति के लिए इसी विक्रम संवत को प्रयोग किया करते थे।
राजा विक्रमादित्य और उनके नवरत्न
भारतीय इतिहास में कृष्णदेव राय और अकबर के नवरत्नों का जिक्र आता है, पर नवरत्नों की परंपरा राजा विक्रमादित्य से ही मानी जाती है, उनके बाद के शासकों ने यह परंपरा विक्रमादित्य से प्रभावित होकर ही अपनाई थी। उनके दरबार में साहित्य, राजनीति, व्याकरण, आयुर्वेद इत्यादि विषयों के 9 बहुत ही विद्वान व्यक्ति रहा करते थे,जिन्हें नवरत्न कहा जाता है। विक्रमादित्य के नवरत्न थे –
धनवंतरी, क्षपणक, अमरसिम्ह, शंकु, कालिदास, वेतालभट्ट, वाराहमिहिर, वररुचि और घटकर्पर

हालांकि इन सभी नौ व्यक्तियों में से कई लोगों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है, विद्वान इनके कालखंड को लेकर भी एकमत नहीं हैं, इनके जीवनवृत्ति भी हमें उपलब्ध नहीं है। इसीलिए निश्चित तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इन सबको राजा विक्रमादित्य का ही दरबारी माना जाता है।
विक्रमादित्य की उपाधि
विक्रमादित्य एक लोकप्रिय उपाधि है, जो समय-समय पर हिंदू राजाओं द्वारा धारण किया जाता था। दरसल विक्रमादित्य संस्कृत के दो शब्दों विक्रम और आदित्य से मिलकर बना है, जहाँ विक्रम का अर्थ होता है पराक्रम और आदित्य का तात्पर्य होता है सूर्य, अर्थात- सूर्य के समान पराक्रमी। गुप्तवंश के सम्राट भी विक्रमादित्य की उपाधि धारण करते थे, त्रिपुरी का कलचुरी राजा लक्ष्मीकर्ण भी विक्रमादित्य की उपाधि धारण किया करता था, इसके अलावा कई चालुक्य वंशीय सम्राट भी यह उपाधि धारण किए करते थे। अंतिम बार दिल्ली को विजित करने वाले राजा हेमू ने यह उपाधि धारण की थी।