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कौन हैं रेखा ,कैसी हैं रेखा ,कब उठेगा इस राज़ से पर्दा !

REKHA (1)

REKHA (1)

Happy Birthday Rekha : भानुरेखा गणेशन जी हाँ ‘रेखा’ मद्रास यानी चेन्नई में 10 अक्टूबर 1954 को दक्षिण भारतीय अभिनेता जेमिनी गणेशन और अभिनेत्री पुष्पावल्ली के घर में पैदा हुईं लेकिन उनके माता पिता अविवाहित थे ,गणेशन पहले से ही शादीशुदा थे और माँ , बिन ब्याही माँ इसलिए रेखा को न माँ का प्यार ठीक से मिला न पिता का, तनाव के बीच रेखा पली बढ़ी पर माँ को देखकर उनमें एक्टिंग और डांस का हुनर आ गया और रेखा ने अपने करियर की शुरुआत एक बाल कलाकार के रूप में तेलुगु फिल्म ‘इंति गुट्टू‘ (1958) और ‘रंगुला रत्नम ‘(1966) से की। मुख्य भूमिका के रूप में उनकी पहली फिल्म कन्नड़ फिल्म ‘ऑपरेशन जैकपॉट नल्ली सीआईडी ​​999 ‘(1969) थी। ‘सावन भादों ‘(1970) के साथ उनकी हिंदी फिल्मों की शुरुआत ने उन्हें एक उभरते सितारे के रूप में स्थापित किया, लेकिन अपनी कई शुरुआती फिल्मों में वो अपने रंग और वज़न के लिए आलोचना का शिकार हुईं फिर 1978 में ‘घर ‘और ‘मुकद्दर का सिकंदर‘ फिल्मों में उनके अभिनय के लिए मिली प्रारंभिक पहचान ने उनके करियर के सबसे सफल दौर की शुरुआत की। तमिल पिता और तेलुगु माँ की संतान रेखा तमिल और तेलुगु में पारंगत हैं । उन्होंने कहा कि “घर पर हम अंग्रेजी में बात करते थे” और वो अंग्रेजी में सोचती हैं और अब हिंदी में भी पारंगत हैं। माँ अक्सर बिज़ी रहती थीं इसलिए वो अपनी दादी के साथ रहती थीं। अपनी माँ की बात मानकर उन्होंने 13-14 साल की उम्र में पूरी तरह अभिनय में करियर बनाने के लिए स्कूल छोड़ दिया था।

तवायफ की भूमिका निभाने के लिए मिला सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार :-

रेखा को कॉमेडी फ़िल्म ‘खूबसूरत ‘ (1980) में उनके अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला । इसके बाद उन्होंने ‘बसेरा ‘(1981), ‘एक ही भूल ‘(1981), ‘जीवन धारा ‘(1982) और ‘अगर तुम न होते ‘(1983) में दमदार भूमिकाएँ निभाईं। ज़्यादातर लोकप्रिय हिंदी सिनेमा में सक्रिय रहने के बावजूद, इस दौरान उन्होंने समानांतर सिनेमा में भी क़दम रखा , जो नव-यथार्थवादी कला फ़िल्मों का एक आंदोलन था। इन फ़िल्मों में ‘कलयुग ‘(1981), ‘विजेता ‘(1982) और ‘उत्सव ‘(1984) जैसी नाटकीय फ़िल्में शामिल थीं , और ‘उमराव जान ‘(1981) में एक वेश्या की भूमिका के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला । 1980 के दशक के मध्य में वो उन अभिनेत्रियों में शामिल थीं जिन्होंने महिला-केंद्रित बदला फिल्मों की एक नई प्रवृत्ति का नेतृत्व किया, जिसकी शुरुआत ‘खून भरी मांग ‘(1988) से हुई, जिसके लिए उन्होंने फिल्मफेयर में दूसरा सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीता।बाद के दशकों में रेखा का काम बहुत कम फलदायी रहा। 1990 के दशक की शुरुआत में उनकी भूमिकाओं को ज़्यादातर ठंडी समीक्षा मिली। 1996 में, उन्होंने एक्शन थ्रिलर ‘खिलाड़ियों का खिलाड़ी ‘(1996) में एक अंडरवर्ल्ड डॉन की भूमिका में अपनी भूमिका के विपरीत काम किया, जिसके लिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री की श्रेणी में तीसरा फिल्मफेयर पुरस्कार जीता , और इसके बाद ‘कामसूत्र: ए टेल ऑफ़ लव ‘ (1996) और ‘आस्था: इन द प्रिज़न ऑफ़ स्प्रिंग ‘(1997) में दिखाई दीं, जिन्हें आलोचकों की प्रशंसा तो मिली लेकिन कुछ खोजबीन भी शुरू हो गई । 2000 के दशक के दौरान, उन्हें 2001 के ड्रामा ‘ज़ुबैदा ‘और ‘लज्जा ‘में उनकी सहायक भूमिकाओं के लिए सराहा गया , और उन्होंने माँ की भूमिकाएँ निभानी शुरू कीं, जिनमें ‘कोई मिल गया ‘(2003) और इसकी सुपरहीरो सीक्वल ‘कृष ‘शामिल थी।

कैसे हुआ नये सफर का आग़ाज़ :-

1968 के अंत में, नैरोबी स्थित व्यवसायी कुलजीत पाल ने अपने नए प्रोजेक्ट ‘अंजना सफ़र ‘  के लिए एक नवागंतुक की तलाश में जेमिनी स्टूडियो का दौरा किया। उन्होंने स्टूडियो में रेखा को देखा और रेखा का स्क्रीन टेस्ट लेने के लिए पुष्पावल्ली के घर गए, उन्होंने हिंदी में कई वाक्यों को लिखवाया, जिन्हें रेखा ने लैटिन लिपि में फिर से लिखा फिर उसे याद करने के लिए कहा। जिन्हे कुछ क्षण बाद ही , रेखा ने पूरी तरह से याद करके भावपूर्ण अंदाज़ में सुनाया और पाल उनकी आवाज़ और हिंदी के लहजे से बहोत मुतासिर हुए इसके बाद उन्होंने रेखा को वाणीश्री के बाद फिल्म की दूसरी महिला प्रधान भूमिका के लिए चुन लिया । उन्हीं के कहने पर रेखा 1969 में बॉम्बे यानी मुंबई आ गईं  , और डॉ॰ राजकुमार के साथ सफल कन्नड़ फिल्म ऑपरेशन जैकपॉट नल्ली सीआईडी ​​999 पहली बार मुख्य भूमिका निभाई।  राजा नवाथे द्वारा निर्देशित ‘अंजना सफर ‘में , उन्होंने सुनीता की भूमिका निभाई, एक महिला जिसे उसके पिता ने एक छिपे हुए खजाने की तलाश में अफ्रीका की यात्रा करने के लिए मजबूर किया। उन्हें उनके काम के लिए ₹ 25,000 (यूएस $ 300) का भुगतान किया गया था ।

क्या सुंदरता के मापदंड पर खरी नहीं उतरती थीं रेखा :-

1969 में बॉम्बे आने के तुरंत बाद, रेखा को निर्माता और निर्देशक मोहन सहगल ने अपनी फिल्म ‘सावन भादों ‘ के लिए साइन किया हालाँकि सबने कहा कि उनमें हिंदी का धारा प्रवाह नहीं था लेकिन फिर भी इसके बाद वो कई हिट फिल्मों में दिखाई दीं, जिनमें ‘रामपुर का लक्ष्मण ‘(1972), ‘कहानी किस्मत की ‘(1973), और ‘प्राण जाए पर वचन न जाए ‘(1974) शामिल हैं, फिर भी – लेखिका तेजस्विनी गंती ने कहा – “उद्योग उनकी सफलता से आश्चर्यचकित था क्योंकि उनका गहरा रंग, भरा हुआ शरीर और भड़कीले कपड़े फिल्म उद्योग और समाज में प्रचलित सुंदरता के मानदंडों का खंडन करते थे।” इसके बाद रेखा 1975 में, फिल्म ‘आक्रमण ‘ में दिखाई दीं, ‘धरम करम ‘ फिल्म ‘धर्मात्मा ‘ उस साल की उनकी एकमात्र वित्तीय सफलता थी। रेखा कहती हैं कि उस समय उनके बारे में जो धारणा थी, उन्होंने उसे बदलने की पूरी कोशिश की “मुझे मेरे गहरे रंग और दक्षिण भारतीय टोन की वजह से हिंदी फिल्मों की बदसूरत बत्तख कहा जाता था। मुझे बहुत दुख होता था जब लोग मेरी तुलना उस समय की प्रमुख अभिनेत्रियों से करते थे और कहते थे कि मैं उनसे मुक़ाबला नहीं कर सकती तभी मैंने बड़ा मुकाम हासिल करने की ठान ली थी। रेखा ने जो कहा वो साबित कर दिया और 1970 के दशक के मध्य में उन्होंने अपनी स्लिम बॉडी और अपने मेकअप, ड्रेस सेंस और हिंदी उच्चारण से सबको हैरान कर दिया। इसके बाद रेखा ने 1976 में आई  ‘दो अनजाने ‘ में अमिताभ बच्चन के साथ दमदार भूमिका निभाई फिर ‘नमक हराम ‘(1973) में भी अपने अभिनय से सबको आश्चर्य चकित कर दिया। 1977 तीसरा वर्ष था जब रेखा को लगातार एक के बाद एक व्यावसायिक सफलताऐं मिलीं ‘खून पसीना ‘साल की छठी सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली भारतीय फिल्म बनकर उभरी। ‘ईमान धरम ‘ में उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री की ट्रॉफी से नवाज़ा गया।

समानांतर सिनेमा का रुख़ बन गया टर्निंग पॉइंट

रेखा के लिए टर्निंग पॉइंट 1978 में आया, जब उन्होंने सामाजिक ड्रामा फिल्म ‘घर ‘में एक बलात्कार पीड़िता का किरदार निभाया और उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए अपना पहला नामांकन मिला । उसी वर्ष, उनकी एक और रिलीज़, ‘मुक़द्दर का सिकंदर ‘, उस वर्ष की सबसे बड़ी हिट के रूप में उभरी, साथ ही दशक की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में से एक थी, और रेखा को इन समय की सबसे सफल अभिनेत्रियों में से एक के रूप में स्थापित किया गया था। फिल्म को सकारात्मक आलोचनात्मक स्वागत मिला, और ज़ोहराबाई नामक एक तवायफ़ के रूप में रेखा की संक्षिप्त भूमिका ने उन्हें फिल्मफेयर में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का नामांकन दिलाया। इस साल की हिट फिल्मों में ‘कर्मयोगी ‘ भी शामिल हैं ।

प्रेम सम्बन्ध की अटकलें पहुंची चरम पर :-

दो अनजाने ‘ के बाद , अमिताभ बच्चन के साथ उनके प्रेम संबंध की अटकलें लगाई जाने लगीं इसके बावजूद वो ‘मिस्टर नटवरलाल ‘और ‘सुहाग ‘ में उनके साथ नज़र आईं। अगले दो साल उनके लिए और भी सफल रहे। जिसमें उन्होंने कॉमेडी फिल्म ‘खूबसूरत ‘ में अभिनय किया , सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार जीता और इस फिल्म को फिल्म फेयर पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का नाम भी दिया गया। ‘मांग भरो सजना ‘,’जुदाई ‘ और सावन कुमार की ‘साजन की सहेली ‘ने आलोचनात्मक ध्यान आकर्षित किया। अमिताभ बच्चन के साथ रेखा के कथित प्रेम संबंध की अटकलें तब चरम पर पहुंच गईं जब उन्होंने यश चोपड़ा की रोमांटिक ड्रामा ‘सिलसिला ‘में साथ काम किया । ये उनकी साथ में बनी सबसे विवादास्पद फिल्म थी क्योंकि इसमें रेखा ने बच्चन की प्रेमिका की भूमिका निभाई थी, जबकि बच्चन की वास्तविक जीवन की पत्नी जया बच्चन ने उनकी पत्नी की ही भूमिका निभाई थी। मीडिया में इस क़दर इस फिल्म को लेकर उतावलापन बढ़ गया था कि फिल्म को 1980-1981 के दौरान गुप्त रूप से फिल्माया गया था और यश चोपड़ा ने मीडिया को शूटिंग पर जाने की अनुमति ही नहीं दी थी। ‘सिलसिला ‘को कई पत्रकारों ने “कास्टिंग तख्तापलट” के रूप में माना था, और ये रेखा और बच्चन की साथ में आख़री फिल्म भी बन गई। इसके बाद भी रेखा की ‘बसेरा ‘और टी. रामा राव की ‘एक ही भूल ‘ दोनों ही बॉक्स ऑफिस पर सफल रहीं। उन्हें ‘जीवन धारा ‘(1982) के लिए एक और फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नामांकन मिला , जिसमें उन्होंने एक युवा अविवाहित महिला की भूमिका निभाई और तारीफें बटोरीं।  

कला फिल्मों से की अभिनय की परिपक्वता सिद्ध :-

इसके बाद रेखा एक नई पारी खेलने उतरीं समानांतर सिनेमा जो भारतीय नव-यथार्थवादी कला फिल्मों का एक आंदोलन था। इन फिल्मों में कलयुग (1981), उमराव जान (1981), विजेता (1982), उत्सव (1984) और इजाज़त (1987) शामिल थीं। इन नई भूमिकाओं के लिए उन्होंने संजीदगी से तैयारी की जो रेखा, अपने करियर की शुरुआत में हिंदी नहीं बोलती थीं, उन्होंने उर्दू भाषा की बारीकियाँ सीखीं और उनकी इन भूमिकाओं के लिए उन्हें खूब सराहना मिली और ‘उमराव जान ‘ में उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया। कला फिल्मों में रेखा को ‘कलयुग ‘ और  फ़िल्म “विजेता” में भी सराहना मिली तो वहीं गिरीश कर्नाड के कामुक नाटक फिल्म ‘उत्सव ‘ में ,उन्हें बंगाल फिल्म पत्रकार संघ द्वारा सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया।  2003 में, मैथिली राव ने लिखा, “रेखा – हमेशा से वेश्या की भूमिका के लिए पहली पसंद रही हैं, चाहे वह प्राचीन हिंदू भारत हो या 19वीं सदी का मुस्लिम लखनऊ – सभी में कामुकता मूर्तिमान है…” फिर फिल्म ‘इजाज़त ‘ ने रेखा के बारे में और धारणाएं बदलीं और उन्हें हर किरदार को परिपक्वता से निभाने वाली श्रेष्ठ अभिनेत्री साबित किया।

संघर्ष करते हुए निभाईं साहसिक भूमिकाएँ :-

समानांतर सिनेमा के अलावा, रेखा ने अब बड़ी साहसिक भूमिकाएँ भी निभाईं और वो नायिका-प्रधान बदला फिल्मों में मुख्य भूमिकाएँ निभाने वाली शुरुआती अभिनेत्रियों में से एक बन गईं , जिनमें से पहली फिल्म थी 1988 की ‘खून भरी मांग ‘ उन्होंने इस फिल्म में अपना दूसरा फिल्मफेयर पुरस्कार जीता।1990 के दशक में रेखा की सफलता में गिरावट देखी गई। कई फिल्में नहीं चली फिर भी जब उनकी पीढ़ी की अधिकांश अभिनेत्रियों, जैसे – हेमा मालिनी और राखी , जब केवल चरित्र भूमिकाएं निभा रहीं थीं रहीं,थीं तब भी रेखा प्रमुख भूमिकाएं निभा रही थीं दशक के पहले वर्ष में रेखा की चार फिल्में रिलीज़ हुईं, जिनमें ‘मेरा पति सिर्फ मेरा है ‘और ‘अमीरी ग़रीबी ‘ कुछ ख़ास कमाल नहीं कर पाईं , ये वो वक़्त था जब रेखा अपने पति की हाल की आत्महत्या से उबरने की कोशिश कर रही थीं। इसके बाद भी रेखा ने हिम्मत नहीं हारी और केसी बोकाड़िया की ‘फूल बने अंगारे ‘ (1991) फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर हिट रही और रेखा को उनके काम के लिए फिल्मफेयर में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नामांकन मिला, इसके संदर्भ में सुभाष के. झा ने टिप्पणी की, “खाकी कभी इतनी सेक्सी नहीं लगी”।  इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा कि वो “घोड़ों की सवारी करती हैं, तलवारें चलाती हैं और फूल (एक फूल) और अंगारे (जलता हुआ कोयला) बनकर शीर्षक के साथ न्याय करती हैं”। ‘फूल बने अंगारे ‘ और ‘खून भरी मांग ‘को जनता की स्वीकृति ने कई फिल्म निर्माताओं को रेखा के पास इसी तरह के प्रस्ताव लाने के लिए प्रेरित किया, और उन्होंने ऐसी भूमिकाएँ निभाईं – जिन्हें “बदला लेने वाली फ़रिश्ता” कहा गया और इस श्रृंखला में उनकी अगली फिल्में थीं ,’इंसाफ की देवी ‘(1992), ‘अब इंसाफ होगा (1995) और उड़ान (1997) ,कुछ और मुख़्तलिफ़ किरदार निभाते हुए उन्होंने ‘गीतांजलि ‘में जुड़वां बहनों की दोहरी भूमिका निभाई और ‘खून भरी मांग  ‘ में शीर्षक भूमिका निभाई।

भूमिका के चरित्र की वजह से घिरीं विवादों में :-

 इस दशक के मध्य में, ‘कामसूत्र: ए टेल ऑफ़ लव ‘ सफल रही तो वहीं ‘खिलाड़ियों का खिलाड़ी ‘(1996) में पहली बार नकारात्मक भूमिका निभाई और सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीता इसके अलावा सर्वश्रेष्ठ खलनायक का स्टार स्क्रीन पुरस्कार भी हासिल किया। उस समय की एक और उनकी विवादास्पद फिल्म थी ‘आस्था: इन द प्रिज़न ऑफ़ स्प्रिंग ‘ (1997) जिसमें  बासु भट्टाचार्य ने , अपने करियर की आख़री फिल्म बनाते हुए, उन्हें एक गृहिणी की भूमिका में लिया, जो एक वेश्या के रूप में भी काम करती है। एक बार फिर, उन्हें भूमिका की प्रकृति और फिल्म के कुछ स्पष्ट प्रेम दृश्यों के लिए प्रेस और दर्शकों की आलोचना का सामना करना पड़ा पर उन्होंने कहा ” मैं उस मुकाम पर पहुँच गई हूँ जहाँ मैं अपने सामने आने वाली किसी भी भूमिका के साथ न्याय कर सकती हूँ।” ये था रेखा का आत्म विश्वास।

चरित्र भूमिकाओं के चुनाव पर हुई चर्चा :-

2000 के दशक में, रेखा अपेक्षाकृत कम फ़िल्मों में दिखाई दीं। उन्होंने इस दशक की शुरुआत टी. रामा राव  निर्देशित ‘बुलंदी ‘ से की । दूसरी फ़िल्म खालिद मुहम्मद की ‘ज़ुबैदा’ थी,  राजकुमार संतोषी की नारीवादी ड्रामा ‘लज्जा ‘में दिखाई दीं ,फिल्म की बात करते हुए, रेखा ने टिप्पणी की, “मैं लज्जा हूँ और लज्जा मैं हूँ” । राकेश रोशन की साइंस-फिक्शन फिल्म “कोई मिल गया”  इसने अन्य पुरस्कारों के अलावा सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। रेखा को उनके अभिनय के लिए फिल्मफेयर में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के लिए एक और नामांकन मिला। 2005 में, रेखा ने प्रदीप सरकार की ” परिणीता ” में “कैसी पहेली ज़िंदगानी” गाने पर एक आइटम नंबर में अतिथि भूमिका निभाई । ‘बचके रहना रे बाबा ‘(2005) में, रेखा ने एक ठग महिला की भूमिका निभाई, इसके बाद 2006 में ‘कुड़ियों का है ज़माना ‘आई . तो 2007 में, उन्होंने गौतम घोष की फ़िल्म ” यात्रा” में एक बार फिर एक वेश्या का किरदार निभाया । अपने करियर के शुरुआती दौर में इस तरह की भूमिकाओं में मिली शुरुआती सफलता के विपरीत, इस बार फ़िल्म कुछ ख़ास कमाल नहीं दिखा पाई। लेकिन 2010 में, रेखा को भारत सरकार ने चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान, पद्मश्री से सम्मानित किया । रेखा ने 2010 में हेमा मालिनी और ऋषि कपूर के साथ फ़िल्म ” सदियाँ” में अभिनय किया। इस फ़िल्म से शत्रुघ्न सिन्हा के बेटे लव सिन्हा ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत की । 2014 में, उन्होंने दिवाली (24 अक्टूबर) पर रिलीज़ हुई “सुपर नानी” में भी काम किया जो अपने नाम की तरह ही सुपर नानी का किरदार था। 2015 में, वो आर. बाल्की की फिल्म ‘शमिताभ ‘ में खुद का किरदार निभाती नजर आईं।

क्या सच में रेखा हैं एक रहस्य :-

1970 के दशक से, कई सफल फिल्मों में अमिताभ बच्चन के साथ उनकी जोड़ी के साथ दोनों के बीच प्रेम संबंध की अटकलें भी लगी रहीं, जिसका समापन उनकी मुख्य भूमिका वाली फिल्म ‘सिलसिला ‘(1981) में हुआ, मार्च 1990 में दिल्ली के उद्योगपति और टेलीविजन निर्माता मुकेश अग्रवाल से उनकी शादी सात महीने बाद समाप्त हो गई जब मुकेश ने आत्महत्या कर ली। अग्रवाल एक स्व-निर्मित उद्यमी और किचनवेयर ब्रांड हॉटलाइन के मालिक भी थे। ऐसा माना जाता है कि वह लंबे समय से अवसाद से जूझ रहे थे और रेखा के जीवनीकारों के अनुसार, रेखा को शादी के बाद ही उनके मानसिक स्वास्थ्य के बारे में पता चला। रेखा से उनका परिचय एक पारस्परिक मित्र और फैशन डिज़ाइनर बीना रमानी के ज़रिये हुआ था , जिन्होंने उन्हें रेखा का ‘पागल प्रशंसक’ करार दिया। उनकी शादी 4 मार्च 1990 को हुई और कुछ महीने बाद – जब वह लंदन में थीं तो कई पिछले प्रयासों के बाद, उन्होंने आत्महत्या कर ही ली, एक नोट छोड़कर गए कि , “किसी को दोष मत दो”। फिर भी ये वो दौर था जब रेखा के खिलाफ एक मज़बूत मगर विरोधी लहर बाह निकली जिसमें उन्हें ‘चुड़ैल ‘ ‘हत्यारिन’ तक कहा गया लेकिन रेखा एक बार फिर से ग्रहण से बेदाग़ निकल आईं। हम आपको बताते चलें कि इससे पहले सन 1973 में रेखा और अभिनेता विनोद मेहरा से शादी करने की अफवाह भी फैली थी , लेकिन 2004 में सिमी गरेवाल के साथ एक टेलीविज़न इंटरव्यू में उन्होंने विनोद मेहरा से शादी करने की बात से इनकार किया और उन्हें अपना “शुभचिंतक” और करीबी दोस्त बताया। इन सबके बावजूद आलोचकों ने रेखा की हिंदी और अभिनय में निपुणता के लिए कड़ी मेहनत की सराहना की, और मीडिया रिपोर्टर अक्सर इस बात पर चर्चा करते थे कि कैसे उन्होंने 1970 के दशक की शुरुआत में खुद को एक “मोटी” बत्तख से “हंस” में बदल लिया। 1983 में, उनके आहार और योग अभ्यास को “रेखाज़ माइंड एंड बॉडी टेम्पल” नामक पुस्तक में प्रकाशित किया गया था।

राजनीति का भी सफर तय किया :-

अभिनय के अलावा, रेखा ने 2012 से 2018 तक राज्यसभा के लिए संसद सदस्य के रूप में कार्य किया। 2012 में, रेखा को भारत की द्विसदनीय संसद के ऊपरी सदन, राज्यसभा में संसद सदस्य के रूप में नामित किया गया था । कला के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सिफारिश पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उन्हें इस पद पर नियुक्त किया था।

 सांवली साधारण लड़की से एक ग्लैमरस एक्ट्रेस बनने का करिश्मा :-

हिंदुस्तान टाइम्स ने उनके शारीरिक परिवर्तन और वजन घटाने को “सिनेमा और शायद वास्तविक जीवन के सबसे नाटकीय परिवर्तनों में से एक” के रूप में वर्णित किया, यह तर्क देते हुए कि “रेखा एक अधिक वजन वाली, सांवली साधारण लड़की से एक ग्लैमरस और खूबसूरत रहस्य में बदल गई”।आलोचक उमर कुरैशी के अनुसार, “दिवा (भारत में) शब्द रेखा के लिए गढ़ा गया था ।  फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली ने उन्हें “महान सितारों की कड़ी में से अंतिम” कहा है। रेखा को आलोचकों ने हिंदी सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से एक बताया है। फ़िल्मफ़ेयर ने उनकी अभिनय शैली का वर्णन करते हुए लिखा है कि “शैली, कामुकता या विशुद्ध रूप से परदे पर उपस्थिति के संदर्भ में, वो बेजोड़ हैं” और तर्क दिया है कि वह “एक उग्र, सहज, बेबाक और ईमानदार सच्ची कलाकार हैं ,बनावटी नहीं ।  श्याम बेनेगल , जिन्होंने उन्हें दो फिल्मों में निर्देशित किया, उनका मानना ​​है कि वो “एक निर्देशक की अभिनेत्री” हैं। उनके काम को फोर्ब्स इंडिया की “भारतीय सिनेमा के 25 महानतम अभिनय प्रदर्शनों” की सूची में शामिल किया गया था।  2011 में, रेडिफ़ ने उन्हें अब तक की नौवीं सबसे महान भारतीय अभिनेत्री के रूप में सूचीबद्ध किया, वहीं दूसरी तरफ हिंदुस्तान टाइम्स का  कहना है कि रेखा ने “अपने जीवन को एक पेचीदा रहस्य में” लपेटा है। रेडिफ के अनुसार , “रेखा की एकांतप्रिय प्रकृति ने उनके चारों ओर रहस्य की आभा बनाने में काफी मदद की है।” लेकिन रेखा कहती हैं वो इनमें कुछ भी नहीं बल्कि वो “बातूनी और जिज्ञासु, उत्साहित और ऊर्जावान, हंसमुख और आशावादी हैं। उन्हें 2012 आईफा अवार्ड्स में ‘भारतीय सिनेमा की रानी’ का खिताब दिया गया , उन्हें “भारतीय सिनेमा में उत्कृष्ट योगदान” पुरस्कार और लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया 1999 में, स्तंभकार से लेखक बने मोहन दीप ने उनके बारे में पहली जीवनी प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था यूरेखा!: द इंटिमेट लाइफ स्टोरी ऑफ़ रेखा (1999)।पत्रकार यासर उस्मान ने भी 2016 में रेखा: द अनटोल्ड स्टोरी  शीर्षक से एक और जीवनी लिखी। लेकिन उनका ये सफर अब भी जारी है वो एक्टिव हैं और अपने चाहने वालों को आज भी आश्चर्य चकित करती नज़र आतीं हैं कभी अपनी एक्टिंग से कभी अपने डांस से तो कभी अपनी ख़ूबसूरती से। बतौर जज भी गाते गुनगुनाते रियल्टी शोज़ में दिखती हैं ,तो अवॉर्ड शोज़ में भी चार चाँद लगाती हैं ,नए कलाकारों के साथ।

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