Muharram Youm-E-Ashura 2025: भारतीय मुसलमान 06 जुलाई 2025 को यानी आज मुहर्रम के अवसर पर इमाम हुसैन की शहादत को याद करेंगे. कई मुसलमान आज के ही दिन रोज़ा भी रखेंगे. कुछ ताज़ियों के साथ सड़कों पर जुलूस में निकालेंगे और कुछ शरबत और दूसरी खाने-पीने की चीज़ें बांटकर जनसेवा में अपना समय बिताएंगे. इस बीच, शिया मुसलमान मातम और अज़ादारी में भी समय बिताएंगे.
करबला में क्या होगा
गौरतलब है कि, विश्व भर में फैले हुए कई मुसलमान अलग-अलग तरीके से इस दिन इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हैं. इराक के शहर करबला में इस दिन का खास एहतिमाम किया जाता है. लेकिन इस दिन की अज़ादारी सिर्फ मुसलमानों तक ही सीमित नहीं है. भारत के पंजाब राज्य में मौजूद एक छोटा सा समुदाय ‘हुसैनी ब्राह्मण’ भी मुहर्रम के दिन इमाम हुसैन को याद करता है.
आखिर कौन होते हैं हुसैनी ब्राह्मण?
आपको बता दें कि, हुसैनी ब्राह्मण पंजाब के मोहयाल ब्राह्मण समुदाय का एक हिस्सा हैं. मोहयाल समुदाय में बाली, भीमवाल, छिब्बर, दत्त, लऊ, मोहन और वैद सहित छह छोटे समुदाय हैं. इन्होंने अपनी हिंदू परंपरा के दायरे में रहते हुए गैर-भारतीय परंपराओं को अपनाया है. इसके कारण मोहल समुदाय का एक छोटा सा उप-समूह इस्लाम के प्रति श्रद्धा रखने लगा है.
इसलिए है इस्लाम से लगाव
हुसैनी ब्राह्मण इमाम हुसैन के प्रति अपने दिल में प्रेम रखते हैं. सालों साल से चली आ रही इस परंपरा के तहत वे हर साल मोहर्रम पर ताज़िया बनाते हैं. नोहे और कवित गाकर इमाम हुसैन और करबला में शहीद होने वालों को याद करते हैं. इन नोहों और कवितों में दत्त समाज के कुछ पूर्वजों का भी ज़िक्र है. इसके कारण को समझने के लिए हमें उनके इतिहास की ओर रुख करना होगा.
मोहर्रम क्यों मनाया जाता है?
मोहर्रम से हुसैनी ब्राह्मणों के कनेक्शन को समझा जाए उससे पहले मोहर्रम को समझना ज़रूरी है. मोहर्रम इस्लामिक कैलेंडर (हिजरी कैलेंडर) का पहला महीना होता है. 61 हिजरी यानी 680 ईसवी में जब पैगम्बर मोहम्मद (अ.स.) के नवासे मदीना शहर में थे, तब उन्हें इराक के शहर कूफा से एक खत आया कि वहां के मुसलमान तत्कालीन बादशाह यज़ीद बिन मुआवियाह को अपना राजा स्वीकार नहीं करते हैं.
करबला कौन सी जगह थी
कूफा के कई लोगों ने खत लिखकर कहा कि वे यज़ीद के बजाय इमाम हुसैन को अपना खलीफा बनाना चाहते हैं. जनता की राय को ऊपर रखते हुए इमाम हुसैन ने अपने 70 साथियों के साथ कूफा की ओर 1400 किलोमीटर का सफर करने का फैसला किया. रास्ते में उन्हें यज़ीद शासन के अधिकारियों और सैनिकों ने रोक लिया. यह जगह करबला थी.
करबला की घटना कब हुई थी
करीब 10 दिन तक इमाम हुसैन और उनके साथियों को भूखा-प्यासा रखने के बाद उन्हें शहीद कर दिया गया. करबला की यह घटना मोहर्रम की 10 तारीख को हुई. लिहाज़ा इस शिया समुदाय और कई सुन्नी मुसलमान भी इस दिन इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद करते हैं.
सबसे महत्वपूर्ण बात, हुसैनी ब्राह्मणों का मोहर्रम से क्या है कनेक्शन?
गौरतलब है कि, हुसैनी ब्राह्मणों के मोहर्रम से रिश्ते को लेकर दो मान्यताएं हैं. पहली वह, जिसका ज़िक्र विशंभरनाथ उपाध्याय ने अपनी किताब संत-वैष्णव काव्य पर तांत्रिक प्रभाव’ में किया है. उन्होंने लिखा है कि जब ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती भारत आए तो ‘चिश्तियों के प्रभाव से हुसैनी ब्राह्मणों का जन्म हुआ. वह लिखते हैं, ये न हिन्दू हैं न मुसलमान. ये अपने को अथर्ववेदी ब्राह्मण कहते हैं. इनका वेष हिन्दू है लेकिन ये हिन्दू व्रतों के साथ रमज़ान को भी मानते हैं.
मोहयाल समुदाय में एक किंवदंती है जिसके अनुसार दत्त वंश के एक मोहयाल ब्राह्मण ने करबला की लड़ाई में इमाम हुसैन की ओर से लड़ाई लड़ी थी. राहिब दत्त नाम के इस योद्धा ने इस प्रक्रिया में अपने सात बेटों की बली दी थी. हालांकि इस्लामिक इतिहास में ऐसे किसी योद्धा की जानकारी नहीं मिलती.
वर्तमान में कहां-कहां हैं हुसैनी ब्राह्मण?
प्रमुख रूप से हुसैनी ब्राह्मण पुणे, दिल्ली, चंडीगढ़, पंजाब और हिमाचल प्रदेश में रहते हैं. भारत के हुसैनी ब्राह्मण समुदाय ने अपने नोहों और कवितों में इमाम हुसैन के साथ-साथ राहब दत्त को भी जगह दी है. यानी उन्होंने न तो हिन्दू धर्म का दामन छोड़ा है, और न ही इमाम हुसैन का. हुसैनी ब्राह्मणों से जुड़ी यह कहावत उनके जीने के तरीके को सटीक शब्दों में बताती है; “वाह दत्त सुल्तान, हिन्दू का धर्म, मुसलमान का ईमान. आधा हिन्दू, आधा मुसलमान.”