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भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्द किसने और क्यों जोड़ा?

Who added Secular and Socialist in the preamble of the Indian constitution and why: भारत का संविधान (Indian Constitution), जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ, देश के शासन का आधारभूत दस्तावेज है। इसकी प्रस्तावना (Preamble of the Indian Constitution), जिसे संविधान का दर्शन और आत्मा माना जाता है, में ‘सेक्युलर’ (Secular) धर्मनिरपेक्ष) और ‘सोशलिस्ट’ (Socialist) समाजवादी) शब्द 1976 में 42वें संविधान संशोधन (42nd Constitutional Amendment) के माध्यम से जोड़े गए। यह संशोधन तत्कालीन इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) सरकार के कार्यकाल में आपातकाल (1975-77) के दौरान हुआ। इन शब्दों को जोड़ने का निर्णय और इसका ऐतिहासिक संदर्भ आज भी राजनीतिक और वैचारिक बहस का विषय बना हुआ है। इस खबर में हम इन शब्दों के इतिहास, संशोधन के पीछे की मंशा, संभावित साजिश के दावों और वर्तमान में इन्हें हटाने के संभावित प्रभावों का विश्लेषण करेंगे।

भारत के संविधान में किसने जोड़ा ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’

Who added ‘secular’ and ‘socialist’ in the constitution of India: भारत के संविधान की प्रस्तावना को मूल रूप से जवाहरलाल नेहरू द्वारा 13 दिसंबर 1946 को प्रस्तावित उद्देश्य प्रस्ताव के आधार पर तैयार किया गया था, जिसे संविधान सभा ने 22 जनवरी 1947 को स्वीकार किया और 26 नवंबर 1949 को अंगीकृत किया। संविधान सभा में डॉ. बी.आर. अंबेडकर (Dr. B.R. Ambedkar) जो प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे, ने इस प्रस्तावना को अंतिम रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मूल प्रस्तावना में भारत को “प्रभुत्वसंपन्न, लोकतांत्रिक गणराज्य” के रूप में परिभाषित किया गया था, जिसमें ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्द शामिल नहीं थे। अंबेडकर का मानना था कि संविधान को किसी खास विचारधारा से जोड़ना उचित नहीं है, क्योंकि यह भविष्य की पीढ़ियों की स्वतंत्रता को सीमित कर सकता है।

1976 में, आपातकाल के दौरान, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से प्रस्तावना में ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़े। इसके अलावा, ‘अखंडता’ (इंटिग्रिटी) शब्द भी जोड़ा गया। स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के आधार पर यह संशोधन किया गया, जिसे उस समय संसद में कांग्रेस के पूर्ण बहुमत (360 सीटें) के कारण आसानी से पारित कर लिया गया। इस संशोधन का उद्देश्य भारत को एक समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में स्पष्ट रूप से परिभाषित करना था।

‘सोशलिस्ट’ शब्द का उद्देश्य: इस शब्द को जोड़कर सरकार ने सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता जताई। यह जवाहरलाल नेहरू के समाजवादी दर्शन और इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे से प्रेरित था। भारतीय समाजवाद को लोकतांत्रिक और मिश्रित अर्थव्यवस्था के ढांचे में परिभाषित किया गया, जो रूस या चीन जैसे समाजवाद से भिन्न था। इसका लक्ष्य धन के केंद्रीकरण को रोकना और सभी नागरिकों को समान अवसर प्रदान करना था।

‘सेक्युलर’ शब्द का उद्देश्य: यह शब्द भारत की धार्मिक विविधता को सम्मान देने और सभी धर्मों के प्रति तटस्थता सुनिश्चित करने के लिए जोड़ा गया। यह भारत के संवैधानिक ढांचे में पहले से मौजूद धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25-28) और समानता (अनुच्छेद 14-18) के सिद्धांतों को और मजबूत करता है। इसका उद्देश्य यह स्पष्ट करना था कि भारत किसी एक धर्म को प्राथमिकता नहीं देगा और सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता और समान व्यवहार को बढ़ावा देगा।

क्या संविधान में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द जोड़ना यह एक साजिश थी?

Was it a conspiracy to add the words secular and socialist to the Constitution: 42वें संविधान संशोधन को लेकर यह दावा किया जाता रहा है कि यह आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की सत्ता को मजबूत करने और उनकी सरकार की वैचारिक स्थिति को संवैधानिक रूप से स्थापित करने की साजिश थी। इस संशोधन को ‘मिनी-संविधान’ भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें 59 खंडों के माध्यम से संविधान के कई हिस्सों में बदलाव किए गए, जिसमें संसद की सर्वोच्चता को बढ़ाने और सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों को सीमित करने जैसे प्रावधान शामिल थे।

साजिश के दावों के पक्ष में तर्क:

साजिश के दावों के खिलाफ तर्क:

यदि इसे साजिश माना जाए, तो इसका एजेंडा इंदिरा गांधी की सरकार को वैचारिक और राजनीतिक रूप से मजबूत करना, आपातकाल के दौरान उनकी नीतियों (जैसे गरीबी हटाओ, राष्ट्रीयकरण) को संवैधानिक समर्थन देना और भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी राष्ट्र के रूप में अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करना हो सकता है। हालांकि, यह भी तर्क दिया जाता है कि ये शब्द भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक वास्तविकता को और स्पष्ट करने के लिए जोड़े गए।

संविधान से सेक्युलर-सोशलिस्ट शब्द हटाने की मांग

2025 में ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों को प्रस्तावना से हटाने की मांग ने राजनीतिक बहस को फिर से गरमा दिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के नेता दत्तात्रेय होसबोले (Dattatreya Hosabale) और कुछ अन्य नेताओं ने इन शब्दों की प्रासंगिकता पर सवाल उठाए हैं, जिसका विपक्ष, खासकर कांग्रेस, ने तीखा विरोध किया है। इन शब्दों को हटाने के संभावित प्रभाव इस प्रकार हो सकते हैं:

  1. धर्मनिरपेक्षता पर प्रभाव:
    • ‘सेक्युलर’ शब्द हटाने से भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि पर सवाल उठ सकते हैं, खासकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर। यह संदेश जा सकता है कि भारत किसी एक धर्म को प्राथमिकता दे सकता है, जो देश की धार्मिक विविधता और सहिष्णुता की परंपरा को कमजोर कर सकता है।
    • हालांकि, संविधान के अनुच्छेद 25-28 पहले की तरह धार्मिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करते रहेंगे, लेकिन प्रस्तावना से इस शब्द का हटना प्रतीकात्मक रूप से संवेदनशील हो सकता है और सांप्रदायिक तनाव को बढ़ा सकता है।
    • विपक्षी दल इसे संविधान के मूल चरित्र पर हमला बता सकते हैं, जिससे राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है।
  2. समाजवाद पर प्रभाव:
    • ‘सोशलिस्ट’ शब्द हटाने से भारत की आर्थिक नीतियों पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है। यह शब्द सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने का प्रतीक है। इसे हटाने से सरकार की जनकल्याणकारी नीतियों पर सवाल उठ सकते हैं।
    • 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया, और समाजवाद का अर्थ अब पहले जैसा कठोर नहीं रहा। फिर भी, इस शब्द को हटाना निजीकरण और बाजार-आधारित नीतियों को और बढ़ावा देने का संकेत दे सकता है।
    • सामाजिक कल्याण योजनाओं, जैसे मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, और अन्य सब्सिडी पर आधारित नीतियां प्रभावित हो सकती हैं, क्योंकि इनका आधार समाजवादी सिद्धांतों से प्रेरित है।
  3. राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव:
    • इन शब्दों को हटाने की मांग को विपक्ष संविधान के साथ छेड़छाड़ और बाबासाहेब अंबेडकर के दृष्टिकोण के खिलाफ बता सकता है, जिससे राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा।
    • सुप्रीम कोर्ट के फैसलों, जैसे केशवानंद भारती मामले में, प्रस्तावना को संविधान का अभिन्न हिस्सा माना गया है। इन शब्दों को हटाने के लिए संविधान संशोधन की आवश्यकता होगी, जो संसद में विशेष बहुमत और संभवतः राज्यों की सहमति पर निर्भर करेगा। यह प्रक्रिया लंबी और विवादास्पद होगी।
    • सामाजिक रूप से, यह कदम अल्पसंख्यक समुदायों और सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों में असुरक्षा की भावना पैदा कर सकता है।
  4. कानूनी प्रभाव:
    • सुप्रीम कोर्ट ने पहले कहा है कि ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ संविधान की बुनियादी संरचना का हिस्सा हैं। इन्हें हटाने का प्रयास ‘बेसिक स्ट्रक्चर’ सिद्धांत का उल्लंघन माना जा सकता है, जिससे कानूनी चुनौतियां पैदा हो सकती हैं।
    • हालांकि, संविधान संशोधन की प्रक्रिया संवैधानिक रूप से संभव है, लेकिन इसके लिए व्यापक राजनीतिक सहमति और जन समर्थन की आवश्यकता होगी।

‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों को 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से आपातकाल के दौरान जोड़ा गया, जिसके पीछे इंदिरा गांधी सरकार की वैचारिक और राजनीतिक मंशा थी। इसे साजिश कहना अतिशयोक्ति हो सकता है, क्योंकि यह संवैधानिक प्रक्रिया के तहत किया गया और सुप्रीम कोर्ट ने इसे वैध ठहराया। हालांकि, इसकी टाइमिंग और संदर्भ ने इसे विवादास्पद बना दिया।

वर्तमान में इन शब्दों को हटाने की मांग भारत की धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी पहचान पर सवाल उठाती है। यह कदम प्रतीकात्मक रूप से भारत के समावेशी और जनकल्याणकारी चरित्र को प्रभावित कर सकता है, जिससे राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी स्तर पर व्यापक बहस और अस्थिरता पैदा हो सकती है। संविधान निर्माताओं, खासकर बाबासाहेब अंबेडकर, ने संविधान को लचीला बनाया था ताकि यह समय के साथ बदलाव को समायोजित कर सके, लेकिन ऐसे संशोधनों के लिए व्यापक सहमति और संवैधानिक मूल्यों का सम्मान जरूरी है।

यह बहस न केवल संविधान के तकनीकी पहलुओं को छूती है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और वैचारिक पहचान को भी परिभाषित करती है। भविष्य में इस मुद्दे पर चर्चा और लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही यह तय करेगी कि इन शब्दों का क्या होगा और भारत का संवैधानिक दर्शन किस दिशा में जाएगा।

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