वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का
आ सके देश के काम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है,
वह खून नहीं, पानी है!
उस दिन लोगों ने सही-सही
खून की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में
मॉंगी उनसे कुरबानी थी।
Subhash Chandra Bose: ये कविता भारत माता एक ऐसे सपूत के नाम है जिसने इस देश को अंग्रेजी हुकूमत के चंगुल से निकालने के लिए घर, परिवार को छोड़ दिया। देश के आजादी के लिए आजाद हिन्द फ़ौज का गठन करने वो देश के बाहर तो गए लेकिन वापस अपने वतन लौट न सके. आज़ादी का वो अमर सिपाही जिसके लिए आज़ादी, जूनून था सपना था आज़ाद भारत। इसके लिए उन्होंने बनाई आज़ाद हिन्द फ़ौज, जिसने बुलंद की आज़ादी की आवाज़, जिसने किया खून के बदले खून का वादा।आज़ादी तो मिली लेकिन कहाँ गए सुभाष? किसने छुपाया नेता जी के मौत की राज? आखिर क्या है नेता जी के मौत का रहस्य? देश आज़ाद है लेकिन क्यों कैद है नेताजी के मौत का सच?
नेताजी (Subhash Chandra Bose) का जर्मनी दौरा
वो 29 मई 1942 को जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर से मिले थे। हिटलर की भारत के बारे में राय अच्छी नहीं थी। उन्होंने अपनी किताब ‘मैन कैम्फ’ में लिखा था कि “ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ से अगर भारत निकल जाता है तो पूरी दुनिया के लिए बहुत दुर्भाग्य की बात होगी जिसमें मैं भी शमिल हुं। एक जर्मन के रुप में मैं भारत को किसी दूसरे देश की तुलना में ब्रिटेन के अधिपत्य में देखना पसंद करूंगा.” इन सबके बावजूद नेताजी हिटलर से मिले। बर्लिन में उन्होंने फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना की। वो चाहते थे कि हिटलर अपने आर्मी को लेकर इंडिया पर हमला बोले ताकी ब्रिटिश को वहां से हटाया जा सके. हिटलर ने नेताजी की इस मांग पर सीधे तौर पर तो कोई भरोसा नहीं दिया, लेकिन टालने की जरूर कोशिश की। भले ही हिटलर ने कुछ साफ नहीं कहा लेकिन उस दौर में दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह से ऐसी बात करने की हिम्मत नेताजी जैसे गिने-चुने लोगों में ही थी। बातचीत का एक और मुद्दा था नेताजी को कैसे जर्मनी से जापान पहुंचाया जाए। हिटलर भी इस बात के पक्ष में थे कि नेताजी को जल्द से जल्द सुरक्षित जापान भेजा जाए। हालांकि हिटलर हवाई जहाज से यात्रा के खिलाफ थे। उस वक्त द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था और रास्ते में एयरफोर्स से खतरा था। ऐसे में हिटलर ने सलाह दी कि नेताजी को पनडुब्बी से जापान जाना चाहिए। एक जर्मन पनडुब्बी का फौरन इंतजाम भी हो गया। हिटलर ने खुद ही यात्रा का नक्शा बनाया और छह हफ्ते में यात्रा पूरी होनी थी। 9 फरवरी 1943 को नेताजी यू-180 पनडुब्बी पर सवार होकर जर्मनी के कील बंदरगाह से रवाना हुए. 13 मई 1943 को जापानी पनडुब्बी सुमात्रा के उत्तरी तट पर सबांग पहुंच गई। इस पनडुब्बी के चालक दल के साथ नेताजी ने तस्वीर खिंचवाई। तस्वीर पर ऑटोग्राफ देने के साथ ही नेताजी ने लिखा- मेरा मानना है कि हमारी जीत और शांति की लड़ाई में ये यात्रा मील का पत्थर साबित होगी।
नेताजी (Subhash Chandra Bose) का जापान दौरा
दो दिनों के आराम के बाद नेताजी एक जापानी युद्धक विमान में बैठ कर टोकियो पहुंचे. वहां पहुंचकर उन्होंने जापानी प्रधानमंत्री से मुलाकात की और उसी मुलाकात के बाद जापान के प्रधानमंत्री ने नेताजी को अपना समर्थन देने का फैसला किया। नेताजी की मुलाकात वहां रासबिहारी बोस से होती है जो वहां पहले से ही इंडियन नेशनल आर्मी का नेतृत्व कर रहे थे. इस मुलाकात के बाद रास बिहारी बोस नेताजी को इंडियन नेशनल आर्मी का कमान सौंप देते हैं. 13000 की संख्या वाली आर्मी की कमान अपने हाथ में लेते ही सुभाष सेना को सम्बोधित करते हैं और दिल्ली चलो का नारा देते हैं. 21 अगस्त 1943 को नेताजी सिंगापुर में एक अस्थाई सरकार का गठन करते हैं. वो कहते हैं ये कोई सामान्य सरकार नहीं हैं. हम एक क्रांतिकारी संगठन है और बहुत जल्द जंग का एलान करेंगे। दिसंबर 1947 को जापानी सेना अंडमान निकोबार से ब्रिटिश आर्मी को निकालने में सफल होती है और इसका पूरा कंट्रोल सुभाष चंद्र बोस को सौंप देती है. ये पहला भारतीय क्षेत्र होता है जो ब्रिटिशर्स से आज़ाद होता है. 30 दिसंबर 1943 को पोर्ट ब्लेयर में भी भारतीय तिरंगा लहराया जाता है. 7 जनवरी 1944 को नेताजी सिंगापुर से बर्मा में अपनी अस्थाई सरकार के मुख्यालय को रंगून बर्मा ले जाते हैं. उनका अगला टारगेट अब कोहिमा और इम्फाल था जहाँ से ब्रिटिश आर्मी को भगाना था. मार्च 1944 को बोस की सेना इम्फाल पर अटैक कर देती है और यह लड़ाई 4 महीने तक चलती है. इस लड़ाई में भी इंडियन नेशनल आर्मी सफलता प्राप्त करती है और मोइरांग मणिपुर में तिरंगा फहराती है. लेकिन कुछ ही दिन बाद इंडियन् नेशनल आर्मी के सामने समस्या बारिश बनकर आती है. मई के महीने में बारिश आने से इंडियन नेशनल आर्मी को लड़ाई लड़ने में समस्याओं का सामना करना पड़ता है और वो वापस बर्मा लौट जाती है. 21 अगस्त 1944 को नेताजी सार्वजनिक तौर पर स्वीकारते हैं कि इम्फाल में बारिश की वजह से उन्हें पीछे हटना पड़ा. नेताजी इसके बाद वापस सिंगापुर लौट जाते हैं और फिर से अपनी आर्मी को मजबूत करने में लग जाते हैं.
इसी बीच वर्ल्ड वॉर तेज हो जाता है और जापान को इस वॉर में हार का सामना करना पड़ता है. सहयोगी जापान को हार का सामना करते देख बोस को जरुरत थी इस लड़ाई में नए पार्टनर की. इस लड़ाई को आगे बढाने के लिए बोस अब रूस का रुख करते हैं. नेताजी 18 अगस्त 1945 को टोक्यो से मंचूरिया के लिए उड़ान भरते हैं और फिर हमेशा के लिए लापता होगये हैं. 23 अगस्त 1945 को टोक्यो रेडियो ने एक मनहूस खबर दी जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी. उस खबर के मुताबिक ताइवान की धरती पर एक विमान हादसे में नेताजी की मौत हो गई.
नेताजी की मौत एक रहस्य
स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने नेताजी के मौत की जांच के लिए 1956 और 1977 नियुक्त किया। लेकिन दोनों ही बार यही नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही शहीद हो गये। 22 वर्ष बाद `एक बार फिर से 1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। अयोध्या के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे पेश किये गये लेकिन इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चन्द्र बोस के होने का मामला राज्य सरकार तक गया। परन्तु राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप के योग्य न मानते हुए मामले की फाइल ही बन्द कर दी।