कब हम दूसरों को इल्ज़ाम देना बंद करेंगे ?

न्याज़िया बेगम
मंथन। क्या हर दफा ग़लती सामने वाले की ही होती है और अगर हो भी तो क्या इसमें हमारी कोई भागीदारी नहीं होती ?
सामने वाले का बदला हुआ व्यवहार हमारी ही किसी क्रिया का परिणाम तो नहीं ? क्या हमारे लिए इसे जानना ज़रूरी नहीं ? अगर हां तो ज़रा सोचिए!

गलती तो सबसे होती है

ग़लती तो सबसे होती है ,आखिर हम इंसान हैं ,तो अगर किसी और से भी हो गई है तो क्या बड़ी बात है पर सोचने वाली बात ये है कि उसे वो ग़लती करने का मौक़ा हमने ही तो नहीं दे दिया ,हालांकि ये विषय बहुत गंभीर है और ग़लती बहुत छोटी और बहुत बड़ी भी हो सकती है जिसे भूला भी जा सकता है और कभी भूला नहीं भी जा सकता या नज़र अंदाज़ भी नहीं किया जा सकता हो ,ऐसी भी हो सकती है। तो कहां से उठाए पहला क़दम कि कोई ऐसी ग़लती न हो कि हम और हमसे जुड़ा और कोई भी परेशान हो जाए ,इसके लिए शायद हमें सबसे पहले,

अपनी ग़लती माननी चाहिए

अपनी ग़लती माननी चाहिए क्योंकि मानेंगे तभी तो ये सबक़ ले पाएंगे कि अब आगे उसे नहीं दोहराना है, अब सवाल ये है कि ऐसा करने से ,हम किसी की नज़र में छोटे हो जाएंगे या बड़े ,इसका जवाब ढूंढने के लिए ,उम्र और ओहदे के दायरे को भूल के देखिए पर ये करना भी आसान नहीं है क्योंकि जब आप ये भूल जाते हैं तो उस मासूम छोटे बच्चे की तरह साफ दिल के हो जाते हैं जिसे गिरने का डर नहीं होता ,उसे तो बस चलना है अपने हर लड़खड़ाते क़दम से सीखना है कि अब अगला क़दम उसे और कैसे सम्भल के रखना है कि वो अब न गिरे ,कैसे गिरे ?किसने गिराया? इस बात का सोग मनाते नहीं बैठना है और सच पूछिए तो यही ज़िंदगी है जहां से शुरू होती है उसी पे खत्म हो तो ही अच्छी है पहले ख़ुद को बेहतर बनाइए अपनी ग़लतियां मानिए तभी आप दूसरों को भी माफ कर पाएंगे ,अगले की सिचुएशन उसके हालात को समझ पाएंगे जिसकी वजह से उससे ग़लती हुई है उसकी जगह पर खुद को रखकर देख पाएंगे और अगर आपकी भी कोई भागीदारी है तो उसको भी समझ पाएंगे ये कह पाएंगे कि अगर मैने ऐसा न किया होता तो उसने भी ऐसा न किया होता।

अपनी ग़लती एक्सेप्ट करना ज़रूरी

अपनी ग़लती एक्सेप्ट करना बहोत ज़रूरी है ,शिकायतें भी ज़रूरी हैं लेकिन इतनी नहीं की सब बर्बाद हो जाए,हम किसी को अपना न मान पाए हर बुरा करने वाला हमारा दुश्मन हो जाए। एक छोटा सा उदाहरण ले लीजिए कि एक गृहणी पूरा दिन घर संवारती है और कोई न कोई आके उसे बिखेर देता है पर वो तब तक समझाती रहती है जब तक वो ख़ुद कर सकती है या बिगड़े काम बनावा सकती है , ऐसा नहीं कि वो खुद बड़ी पारंगत है वो भी सीखते सीखते यहां तक पहुंची है वो उसका कार्य क्षेत्र है, फिर भी वो शिकायत नहीं करती अपने उन बिखरे सामानों को उस तरह रखने की कोशिश करती है कि आप उनका इस्तेमाल भी कर ले और चीज़ें बिखरे भी न, इसी गृहिणी को हम कुशल कहते हैं बस यही हाल हर जगह है हम कुशल गृहणी भी हो सकते हैं और उसका परिवार भी, कभी हम ग़लती करते हैं तो कभी उसे सुधारने की कोशिश।
ग़ौर ज़रूर करिएगा इस बात पर फिर मिलेंगे आत्ममंथन की अगली कड़ी में।

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