क्या था मजरूह सुल्तानपुरी के दिल में मोहब्बत या बग़ावत ,जो लिख दिए इतने दिलनशीं नग़्में !

MAJROOH (1)

Biography Of Majrooh Sultanpuri : “मैं अकेला ही चला था जानिब -ए – मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया!”
ये अशआर हैं मशहूर ओ मारूफ शायर और नग़्मा निगार मजरूह सुल्तानपुरी के जिन्होंने 1965 में फिल्म दोस्ती में ” चाहूंगा मैं तुझे…”गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता, तो 1993 में उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला और भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च पुरस्कार , दादा साहब फाल्के से भी सम्मानित किया गया ।
फिल्मी गीतों के लिए उनकी क़लम में इतनी संजीदगी और हक़ीक़त है कि वो रूमानियत का दामन नही छोड़ती जिसे आप ‘लाल दुपट्टा मलमल का’, ‘क़यामत से क़यामत तक’,’जो जीता वही सिकंदर’ ‘दहक’ और ‘लव’ फिल्मों के गीतों में महसूस कर सकते है ये दिलनशीं एहसास उनकी ज़िंदगी की आखरी फिल्मों जैसे ‘वन टू का फोर’ में भी बरक़रार रहे ।

मेडिकल प्रैक्टिस छोड़कर करने लगे शायरी :-

आपका असली नाम असरार उल हसन ख़ान था ,उनकी पैदाइश उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में एक मुस्लिम राजपूत परिवार में हुई थी आपके वालिद साहब पुलिस विभाग में नौकरी करते थे पर अपने बेटे को अंग्रेजी शिक्षा दिलाने के पक्ष में नहीं थे इसलिए मजरूह को पारंपरिक मदरसा में तालीम हासिल करने के लिए भेजा गया जहां वो दर्स-ए-निज़ामी बने ये पाठ्यक्रम धार्मिक शिक्षा पर केंद्रित था और अरबी और फ़ारसी में उनकी क़ाबिलियत का बाइस बना – और फिर ‘आलिम’ का प्रमाण पत्र लेकर वो चल दिए लखनऊ जहां तकमील-उत-तिब कॉलेज ऑफ यूनानी मेडिसिन में शामिल हो गए जिससे वो मुकम्मल हकीम बनने की राह पर चल दिए पर दिल में दबा-दबा कहीं ग़ज़ल लिखने का हुनर जुनून की शक्ल इख़्तेयार करने लगा था क्योंकि जब भी जज़्बातों का सैलाब थामे न थमता तो वो उसे क़लम की स्याही बनाकर काग़ज़ उतार देते ऐसे ही कुछ ग़ज़लें काग़ज़ के बाँध में तैरने लगीं जिन्हें सुनाने का मौक़ा
उन्हें सुल्तानपुर में एक मुशायरे में मिल गया और ग़ज़ल लोगों को इतनी पसंद आई कि मजरूह ने अपनी मेडिकल प्रैक्टिस छोड़ने का फैसला कर लिया और संजीदगी से अपने अशआर काग़ज़ पर उड़ेलने लगे जल्द ही कई मुशायरों में शिरकत भी करने लगे और उस वक्त के उर्दू मुशायरों में अव्वल दर्जे में शुमार शायर जिगर मोरादाबादी के शागिर्द बन गए ।

ठुकरा दिया था ए आर कारदार का प्रस्ताव :-

1945 में, मजरूह ,साबू सिद्दिक़ी इंस्टीट्यूट में, एक मुशायरे में शिरकत करने के लिए बॉम्बे गए,यहां उनकी ग़ज़लों और शायरी को दर्शकों ने खूब सराहा और उनसे मुतासिर लोगों में से एक थे फिल्म निर्माता एआर कारदार जिन्होंने मजरूह को फिल्मों में गाने लिखने का प्रस्ताव दिया हालाँकि, मजरूह ने फिल्मों के लिए गाने लिखने से इनकार कर दिया क्योंकि वो फिल्मों के बारे में बहुत अच्छा नहीं सोचते थे। लेकिन जिगर मुरादाबादी ने उन्हें ये कहकर मना लिया कि फिल्में अच्छा पैसा देंगीं और इससे उनका घर परिवार अच्छे से चल जायेगा , इसके बाद मजरूह मान गए और कारदार उन्हें संगीतकार नौशाद के पास ले गए जिन्होंने इस युवा लेखक की परीक्षा ली और मजरूह को एक धुन दी जिसके मीटर में उन्हें कुछ लिखने था जिस पर मजरूह जी ने कुछ यूं लिखा …”जब उसने गेसू बिखराये, बादल आये झूम के ….” बस फिर क्या था नौशाद जी को ये बोल इतने पसंद आये कि उन्होंने मजरूह को फिल्म “शाहजहाँ” में बतौर गीतकार साइन करवा लिया ,इसके बाद मजरूह ने ‘डोली’ और ‘अंजुमन’ ‘जैसी फिल्में कीं, लेकिन उन्हें बड़ी सफलता मेहबूब खान की (1949) की फिल्म ‘अंदाज़’ से मिली।

वामपंथी होने की मिली सज़ा :-

ये सफर शुरू ही हुआ था कि तभी उनकी कुछ राजनीति से प्रेरित कविताओं में निहित वामपंथी झुकाव ने उन्हें परेशानी में डाल दिया, सरकार उनकी सत्ता-विरोधी कविताओं से खुश नहीं थी इस पर मजरूह से माफ़ी मांगने के लिए कहा गया, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया और उन्हें बलराज साहनी जैसे अन्य वामपंथियों के साथ सज़ा सुनाई गई । मजरूह की गिरफ्तारी 1948 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की दूसरी कांग्रेस के बाद कम्युनिस्टों की देशव्यापी गिरफ्तारी के दौरान हुई थी , जिसमें कम्युनिस्टों ने भारतीय सरकार के खिलाफ क्रांति करने का फैसला किया था। पर मजरूह ने हिम्मत नहीं हारी , सज़ा काटने के दो साल बाद अपने फिल्मी करियर को नए सिरे से शुरू किया और गुरु दत्त की 1953 की फिल्म “बाज़” के साथ एक बार फिर सफलता हासिल की।

के एल सहगल से लेकर शाहरुख़ ख़ान तक फिल्माए गए उनके गीत :-

मजरूह सुल्तानपुरी ने अनिल विश्वास , नौशाद , ग़ुलाम मोहम्मद , मदन मोहन , ओपी नैय्यर , रोशन , सलिल चौधरी , चित्रगुप्त , एन.दत्ता , कल्याणजी-आनंदजी , लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आरडी बर्मन जैसे कई संगीत निर्देशकों के साथ काम किया ।
आखरी दिनों में उन्हें बीमारियों ने घेर लिया था और बहाने से 24 मई सन 2000 को 80 साल की उम्र में हमसे दूर ले गईं ,मानो तन्हाइयां भी बेक़रार हो उनकी क़लम में ढल जाने को गुनगुनाने को ।
गीतकार के रूप में उनकी आखिरी फिल्म “वन 2 का 4 थी” , जो 2001 में उनकी मृत्यु के बाद रिलीज़ हुई थी।
1950 और 1960 के दशक की शुरुआत में उन्होंने भारतीय सिनेमा के गीतों को एक आला मक़ाम दिलाने की पुर ज़ोर कोशिश की और हर दिल अज़ीज़ नग़मा निगार रहे ।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ , ख़ुमार बाराबंकवी के साथ , मजरूह को सबसे उल्लेखनीय ग़ज़ल लेखक के रूप में भी याद किया जाता है। मजरूह सुल्तानपुरी के दिलनशी नग़्में बेशक आपके भी पसंदीदा नग़्मों की फ़ेहरिस्त में होंगे तो चलिए कुछ गीत हम आपको चलते-चलते याद दिला देते हैं ,…’दिल का भंवर करे पुकार प्यार का राग सुनो प्यार का राग सुनो …..’,’रुक जाना नही तू कहीं हार के कांटों पे चलके मिलेंगे साए बहार के ….’, ‘दिल पुकारे आरे,आरे आरे….’,’लेके पहला पहला प्यार…’,’सलाम ए इश्क मेरी जा ज़रा क़ुबूल कर लो …’,
ऐसे ही बेशुमार गीत हैं जो आपकी सलाहियत को जलवा अफ़रोज़ करते हैं तो कोई भी गीत आज आप अपने लिए चुन लीजिए ,उसे दिल से सुनिए और महसूस करिए मजरूह सुल्तानपुरी के अल्फाज़ों की जादूगरी को।

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