History Of Sarees In Hindi | न्याज़िया बेगम: भारतीय पारंपरिक परिधान की बात चले और साड़ी का ज़िक्र न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता, जिसकी ड्रेपिंग और पैटर्न दोनों ही मन मोह लेते हैं। हमारी संस्कृति और परंपरा की अनुपम छटा बिखेरते हैं और शायद इसमें नारी सबसे सुंदर दिखती भी है पर इस 6 गज की साड़ी का चलन कहां से शुरू हुआ ये जानने के लिए आइए एक नज़र डालते हैं इसके इतिहास पर।
साड़ी का पहला जिक्र
दरअसल पहले साड़ी का मतलब बिना सिला कपड़ा था जिसे भारतीय उपमहाद्वीप में 2800 ईसा पूर्व से 1800 ईसा पूर्व के दौरान चलन में माना जाता है जिसे महिलाएं और पुरुष दोनों बांधा करते थे और धोती कहते थे ।
कुछ मतों और दावों की तरफ चलें तो:-
कुछ रिपोर्ट्स ऐसी भी आईं जिनमें कहा गया कि सिंधु घाटी सभ्यता और हड़प्पा संस्कृति की खुदाई में एक मूर्ति मिली जिसने साड़ी लपेटी थी वो भी कछनी स्टाइल में। कुछ ने कहा यजुर्वेद में सबसे पहले साड़ी शब्द का उल्लेख मिला है। वहीं ऋग्वेद में कहा गया है कि यज्ञ या हवन के समय पत्नी को साड़ी पहनाने का विधान हुआ करता था जो धीरे-धीरे भारतीय परंपरा का हिस्सा बन गई।
हालांकि साड़ी शब्द संस्कृत के शब्द सट्टिका से आया है जिसका मतलब होता है कपड़े की पट्टी जिसकी लंबाई का उस वक़्त सही अनुमान लगाना मुश्किल था। और जब महाभारत में द्रोपदी के चीर हरण का विवरण हुआ तो साड़ी का ही नाम आया ।
अब बात करते हैं साड़ी के यहां तक के सफर की :-
साड़ी का चलन उस दौर से माना जाता है जब कपड़ा तो बुन लिया गया था पर सिलाई अभी दूर थी तो कपड़े को बांधना या लपेटना ही एक अच्छा विकल्प था ,इसलिए ब्लाउज़ भी नहीं पहने जाते थे, ब्रिटिश राज से पहले तक कई जगह पर कुछ ऐसे ही चला। ड्रेपिंग का ढंग भी प्रांत के हिसाब से अलग अलग था। रविंद्र नाथ टैगोर के भाई सत्येंद्र नाथ टैगोर की पत्नी और समाज सुधारक ज्ञानदानंदिनी देवी पहली बंगाली महिला कही जाती हैं जिन्होंने ब्लाउज़ पहना था।
धीरे धीरे साड़ी की लम्बाई हुई तय :-
धोती कुर्ती, कछनी से निकल कर अब आम तौर पर बनी लगभग 6 गज की साड़ी, जो हर प्रांत में अलग पैटर्न और डिज़ाइन में बुनी गई। यहां तक कि धागे में भी वेराइटी आ गई जो किसी भी प्रांत की विशेषता और परम्परा भी दर्शाने लगी जैसे – मध्यप्रदेश की चंदेरी और महेश्वरी, असम की मूंगा रेशम, गुजरात की पटोला, गठोडा।
और आज ये समय है कि हर राज्य की अपनी बेहद खूबसूरत खासियत के साथ बनारसी, कांजीवरम, कॉटन, सिल्क, डोला, बांधनी, लहरिया, पैठणी, कोटा डोरिया, इक्कत, मशरू, संबलपुरी, बालूचरी, कश्मीरी, उप्पदा , गडवाल, नारायणपेट,चेट्टीनाड, कूर्गी, मंगलगिरी, वेंकट गिरी, पोचमपल्ली, बोमकाई, इल्कल के अलावा जॉर्जेट, शिफॉन, नेट, ज़री, सोने और चांदी वर्क के साथ हमें महंगी से मांगी साड़ियां मिल जाती हैं।
जिनकी बस ड्रेपिंग के स्टाइल को चेंज करके महिलाएं बेहद एलिगेंट लुक हासिल कर लेती हैं, जिसमें मौसम का मिज़ाज भी बड़ा रोल निभाता है यूनिक कलर कॉम्बिनेशन देकर। ये थी साड़ी की कहानी उम्मीद है आपको अच्छी लगी होगी।